साक्षात्कार


 ‘समाधान प्रस्‍तुत करना रचनाकार का काम नहीं’ :
असग़र वजाहत
वरिष्‍ठ कथाकार असग़र वजाहत से नंद भारद्वाज की बातचीत

पांच जुलाई, 2018 की वह ख़ुशनुमा सुबह, जयपुर के साहित्‍यकारों, पत्रकारों और संस्‍कृतिकर्मियों के लिए एक सुखद संयोग की तरह थी, जब हिंदी के वरिष्‍ठ कथाकार एवं जनवादी लेखक संघ के अध्‍यक्ष असग़र वजाहत को अपनी 72वीं वर्षगांठ पर जिस आत्‍मीयता के साथ अपने बीच संवाद करते देखा-सुना और समझा। वह निश्‍चय ही उनके लिए एक यादगार अनुभव था, जिसकी स्‍मृति आज भी उनके चेहरों पर मुस्‍कान सजा देती है। ऐसी मुलाक़ातें और संवाद  हमें साहित्‍य, संस्‍कृति और अपने समय-समाज के ज़रूरी सवालों पर किसी महत्‍वपूर्ण रचनाकार की रचनाशीलता और संजीदा सोच को जानने-समझने का बेहतर अवसर प्रदान करती है।
     असग़र भाई के दो दिन जयपुर प्रवास के दौरान उनकी 72 वीं वर्षगांठ को ज़रा क़ायदे से मनाने के सिलसिले में पिंकसिटी प्रैस क्‍लब के सभागार में जो सम्‍मान संगोष्‍ठी आयोजित की गयी उसमें उनके संक्षिप्‍त औपचारिक परिचय के बाद मेरे साथ संवाद का जो सिलसिला आरंभ हुआ तो असग़र भाई ने बहुत पुर-ख़ुलूस तरीक़े से उन सवालों के जवाब दिये। वही बातचीत यहां अविकल रूप से प्रस्‍तुत की जा रही है – नंद भारद्वाज    

नंद भारद्वाज : असग़र भाई, सबसे पहले तो आपको अपनी 72 वीं सालगिरह पर हम सभी की ओर से हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं। एक वरिष्‍ठ हिंदी कथाकार के रूप में यहां सभी लोग आपसे भली भांति परिचित हैं और यह हमारी ख़ुशक़िस्‍मती है कि आज आप हमारे बीच मौजूद हैं और आपसे संवाद का यह सुखद अवसर मिल रहा है। मेरा यह भी मानना है कि एक लेखक अपने लेखन के माध्‍यम से पाठकों के बीच और उनके ज़हन में सदा बना रहता है और वह मौजूदगी क़तई कम असरकारी नहीं होती। आप एक लेखक होने के साथ शिक्षक के रूप में भी जो अवदान करते रहे हैं, वह अपने आप में इतना बड़ा है कि कई बार लेखन उसका पूरक कर्म लगता है। निश्‍चय ही यह सार्वजनिक जीवन में एक लंबी प्रक्रिया से संभव होता है। शिक्षण के साथ जन संचार का जो व्‍यापक क्षेत्र है, वह चाहे इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया हो या सिनेमा, इन माध्‍यमों से जुड़कर आपने काम किया है। एक ऐसा लेखक जिसका इन सभी माध्‍यमों से गहरा ताल्‍लुक़ रहा हो, उसके साथ किसी एक बैठक में हम सब कुछ जान लें, यह आसान नहीं है। फिर भी मेरी कोशिश रहेगी कि आपकी सक्रियता का यह जो बड़ा फलक है, उसे हवाले में अवश्‍य रखूं। जैसा आपके बारे में सभी जानते हैं, आप जिस सैय्‍यद परिवार से आते हैं, उस परिवार का अपने ज़माने में एक अलग रुतबा रहा है, अच्‍छे ख़ासे ज़मींदार परिवार से हैं आप। उत्‍तरप्रदेश के फ़तेहपुर में आपका जन्म हुआ, वहीं आपका बचपन बीता और वहीं प्रारंभिक से लेकर दसवीं तक की शिक्षा ग्रहण की। आपके पहले उपन्‍यास, सात आसमान में इस पारिवारिक पृष्‍ठभूमि के ब्‍यौरे मुग़लकाल में हुमायूं तक मिलते हैं। सैय्‍यद परिवार की ऐसी पृष्‍ठभूमि और रुआब-रुतबे वाले माहौल से एकदम उलट जो सहज सूफ़ी मिज़ाज वाली जीवन-शैली आपने अपनायी, तो यह जानने की सहज जिज्ञासा होती है कि यह सब कैसे संभव हुआ और इसके पीछे क्‍या कारण मानते हैं आप?    
असग़र वजाहत : एक बहुत रोचक और एक तरह से बड़ा बुनियादी सवाल आपने पूछा है और उसका उत्‍तर इतना सरल नहीं है। हालांकि थोड़ा अगर गहराई में जायें, तो शायद लगेगा कि वह सब स्‍वाभाविक सा ही था। जिस परिवेश में मैंने आंखें खोलीं, वह एक तरह का सामंती परिवेश ही था, लेकिन‍ उस सामंती परिवेश में कुछ मानवीय मूल्‍य बहुत महत्‍वपूर्ण थे। यह ज़रूर था कि सबको बराबर बेशक नहीं समझा जाता था, लेकिन यह भी ज़रूरी था कि सबको एक इंसान ज़रूर समझा जाये। तो इस प्रकार का माहौल था, जहां सब के प्रति मानवीय संवेदना मन में रहती थी। यह शिक्षा मुझे प्रारंभ से ही मिली कि मनुष्‍यता जो है, वह सबसे बड़ा मूल्‍य है। उस माहौल से निकलकर जब मैं अलीगढ़ आया, तो अलीगढ़ और दूसरे विश्‍वविद्यालयों के बारे में जैसा आप जानते हैं, वे अपने आप में उस समय मंथन और चिंतन के गढ़ थे, जहां अलग अलग विचारधाराएं और सोच रखने वाले लोग उन विश्‍वविद्यालयों में होते हैं और, दरअसल शिक्षा का एक बड़ा पहलू यह होता है कि आप जीवन और जगत के बारे में अलग अलग दृष्टिकोणों से परिचित हों, जो महत्‍वपूर्ण हैं। संयोग से यहां मेरा कुछ प्रगतिशील और जनवादी सोच वाले लोगों से परिचय हुआ और निश्चितरूप से उसका बड़ा प्रभाव मेरे सोचने जीने के ढंग पर पड़ा है और बहुत सी बातों के बारे में मैंने फिर से सोचना शुरू किया, और उसमें बचपन में बिताया हुआ समय सहायक सिद्ध हुआ कि मनुष्‍य को मनुष्‍यता के रूप में देखना, प्रत्‍येक मनुष्‍य में एक मानवीय भावना और संवेदना है, उसका हमें पूरा सम्‍मान करना चाहिए। तो यह मेरे ख़याल से उस परिवेश के कारण और अलीगढ़ में पढ़ाई के कारण संभव हुआ।
नंद : जब आप ग्रेजुएशन के लिए अलीगढ़ आये तो आपने बीएससी यानी साइंस में स्‍नातक की शिक्षा ली, फिर वहीं से हिंदी में एम ए किया और उसी में ‘हिंदी और उर्दू की प्र‍गतिशील काव्‍य–धारा’ पर पीएचडी की उपाधि प्राप्‍त की। इस तरह उस समय की हिंदी कविता और उर्दू शायरी से आपका गहरा ताल्‍लुक़ रहा। आपने कविता और शायरी के बेहतर हवाले भी अपने लेखन में दिये हैं, लेकिन आपकी छवि जो है वह एक कथाकार की या नाटककार की ज्‍य़ादा मुखर रही है। कविता और शायरी  में रुचि तो ज़रूर रही और शायद यही कारण रहा हो कि आपके लोकप्रिय नाटक ‘जिस लाहौर नइ देख्‍या ….’ के हरेक दृश्‍य का अंत आपने कविता में ही किया है, लेकिन आश्‍चर्य है कविता से इतने क़रीबी रिश्‍ते के बावजूद उसे अपनी अभिव्‍यक्ति का मुख्‍य माध्‍यम नहीं बनाया। मेरी जिज्ञासा है कि कविता से इस दूरी की क्‍या वजह रही?
असग़र : देखिए, मेरे विचार से कविता करना एक अलग तरह के मिज़ाज की मांग करता है,   मैं चाहता ज़रूर था कविता लिखना, पर नहीं लिख सका, लेकिन अच्‍छी कविता पढ़ने की रुचि हमेशा रही, इसलिए मुझे नहीं लगा कि सब कविता लिखें, कुछ अच्‍छी कविता पढ़ने वाले भी हों तो बेहतर है। कविता के प्रयोग मैंने अपनी कहानियों में शुरू किये हैं, कविता के तत्‍वों को कहानी में इस्‍तेमाल करना और उन्‍हें कहानी की भाषा में बदलना, इस तरह कविता की शक्ति को कहानी या गद्य में लाने की कोशिश मैंने अवश्‍य की। जबकि मेरे बहुत से कवि मित्र कहते हैं‍ कि बहुत से लोग कविता में असफल होने के बाद गद्य में आ गये हैं और उन्‍होंने गद्य लिखना शुरू‍ कर दिया है, शायद मेरे साथ भी ऐसा ही कहते हों, पर उस तरह कविता की शुरूआत तो कभी मैंने की ही नहीं। 
नंद : असग़र भाई, जहां से आपकी कहानी लिखने की यात्रा शुरू होती है, यानी सन् 1963 में आपकी पहली कहानी सामने आयी थी और उसके बाद धर्मयुग, कल्‍पना आदि पत्रिकाओं के माध्‍यम से लगातार कहानियां सामने आने लगीं, लेकिन तभी से नाटक में भी आपकी रुचि बढ़ी और आप नाटक लिखने लगे। आपने स्‍वयं कहा भी है कि कहानियों में नाट्य तत्‍व आपको बहुत आकर्षित करता था। कहानियां आपको सुनायी जाती थीं तो वह तत्‍व आपका सबसे अधिक ध्‍यान खींचता था, नाटकीय घटनाक्रम, नाटकीय स्थितियां, संप्रेषण की दृष्टि से आपको ज्य़ादा प्रभावशाली लगती रही हैं और आपने नाटक विधा में सीधे हस्‍तक्षेप किया। मेरी जिज्ञासा यहां कहानी के उस पक्ष से है, जो आपको एक बड़े उद्देश्‍य या बड़े मक़सद से जोड़ता है। यानी हमारे समय में जो सबसे अधिक चिंता पैदा करने वाले सवाल हैं, उनको आपने कहानी विधा के माध्‍यम से कहने की कोशिश की और वह भी किसी बने बनाये शिल्‍प में नहीं, बल्कि शिल्‍प भी आपने अपने ढंग का गढ़ने की कोशिश की। यानी पारंपरिक कहानियां जिस तरह से लिखी जा रही थीं और उस समय की लोकप्रिय हिंदी पत्रिकाओं में जिस तरह की कहानियां मांगी जा रही थीं, आपने उस मांग के अनुरूप लिखना पसंद नहीं किया, अपनी स्‍वयं की रुचि और शर्तों पर लिखना ही पसंद किया। सांप्रदायिकता का मसला आपकी कहानियों और आपके लेखन में सबसे गंभीर मुद्दा रहा है, इस तरह की सोच विकसित होने की क्‍या वजह मानते हैं और किस तरह आपने इसे संभव किया? 
असग़र : देखिए, अपने समाज से सवाल करने और अपने सवालों के जवाब हासिल करने की कोशिश हर रचनाकार की होती है, जब वह अपने समाज से सवाल करता है और अपने परिवेश की व्‍याख्‍या करने की कोशिश करता है, तब उसका ऐसे सवालों से सामना होता है, जिनके जवाब शायद उसके पास नहीं होते। जवाब नहीं होते हैं, लेकिन सवाल होते हैं और सवाल होते हैं तो उनके जवाब खोजने की कोशिश होती है। तो रचनाकार का काम उन सवालों को रेखांकित करना है। समाज को देखकर मेरा यह मानना है कि उसमें बुनियादी रूप से एक असमानता है, असमानता इतनी क्‍यों है? असमानता के कारण लोगों का जीवन इतना कठिन क्‍यों है? असमानता के साथ ही जो बेरोज़गारी है, वह इतनी भयावह है, शोषण किस प्रकार से कैसे, कितना लोगों का हो रहा है, उसकी दूसरे समाजों से तुलना करनी है, संयोग से मुझे अक्‍सर विदेशों में जाने का अवसर मिलता रहा और अपने समाज की दूसरे समाजों से तुलना करने की जो अपेक्षा है, वह भी करता रहा, तो इन सब स्थितियों के कारण मेरा जुड़ाव उन बुनियादी सवालों से बना, जो सवाल हमारे सामने आते हैं। ये जो सवाल आते हैं, क्‍या हम उनको संबोधित कर पाते हैं? यही विचार करने की बुनियादी बात है।  
नंद : ये सवाल जिस ढंग से हमारे सामने आते रहे हैं, क्‍या हमारे लेखक उन्‍हें ठीक से डील कर पाते हैं, जैसे सांप्रदायिकता पर आपने पहले भी लिखा है, कृष्‍णचंदर से आप सीखते रहे हैं, और भी बड़े लेखकों ने इस ओर ध्‍यान दिलाया है, कृष्‍णा सोबती ने अपने ढंग से इस समस्‍या पर लिखा है, मुंशी प्रेमचंद तो शुरू से इस समस्‍या को लेकर लिखते रहे हैं, लेकिन आपका जो तरीक़ा है, वह औरों से अलग है, किस तरह आपको इसकी ज़रूरत महसूस हुई और फिर कैसे आपने उसे प्रयोग में लाने का प्रयत्‍न किया? 
असग़र : मैं यह समझता हूं कि किसी भी लेखन का पहला काम होता है संप्रेषण, पाठक तक बात को पहुंचाना। पाठक जब किसी लेखक को पढ़ना शुरू करता है, तो सबसे पहले उसका रचना की तरफ़ आकर्षित होना ज़रूरी है। अगर आप पाठक को आकर्षित नहीं करेंगे तो वह आपकी रचना नहीं पढ़ेगा। तो आकर्षित करने के जो बहुत से तरीक़े हैं, उनको आज़माना चाहिए। नाटकीयता और द्वंद्व के जो तत्‍व हैं, उनके अंदर यह बुनियादी बात होती है कि वे पाठक को आकर्षित करते हैं। वह आकर्षण पैदा करने के लिए आपको बार बार नये तरीक़े से कहने और शुरू करने की ज़रूरत होती है। दूसरा, देश के अंदर जो एक बदलाव आया था, उसने इस बात की प्रेरणा दी है कि हम अपनी बात को कहने के जो तरीक़े हैं, उन्‍हें बदलें। ख़ासतौर से मैं बात कर रहा हूं, इंदिरा गांधी के ज़माने में लगी इमरजेंसी की, हम लोगों के सामने यह चुनौती थी कि अपनी बात को किस तरह से कहा जाये कि हम गिरफ्‍त़ में भी न आयें, और अपनी बात बेहतर ढंग से कह लें, यह एक बहुत बड़ा चैलेंज था और हमारे बहुत से रचनाकार साथी जिन पर अटैक कराये गये जिसकी वजह से बहुत से रचनाकार साथी इस बिंदु पर आकर ठहर गये थे, मैंने कोशिश की थी कि मैं इसको किसी तरह रिज़ॉल्‍व करूं और उसी कोशिश में किसी ने कहा कि अगर प्रतीकात्‍मक कहानियां लिखी जायें तो वो बेहतर तरीक़ा होगा और उस समय जो प्रतीकात्‍मक कहानियां लिखी थीं, वे छपीं भी और लोगों ने पसंद भी कीं। और हद यह कि उसी समय वे रेडियो पर पढ़ी भी गयीं। अब चूंकि प्रतीकात्‍मक कहानियां थीं और उनमें सत्‍ता का विरोध जिस रूप में किया गया, वह इस तरह का रहा कि उन पर किसी की पकड़ नहीं बन पायी। तो अपनी बात को नये ढंग से कहने की चुनौतियां और वे प्रयोग मेरे सामने सदैव रहे हैं।
नंद : कुछ कहानियां आपकी ऐसी हैं जो बहस की तरह हैं। उनमें कहानी का जो पारंपरिक तरीक़ा होता है, वह आपने नहीं अपनाया, न वे वैसी घटनापरक या कथानक-प्रधान हैं। कई बार एक चरित्र की तरह उभरती हैं, उनमें परिवेश का चित्रण भी इस तरह का है जैसे किसी एक गांव की कहानी कही जा रही है, तो वह गांव ही जैसे चरित्र हो जाता है। इस तरीक़े से जो आपने प्रयोग किये हैं, उनका कैसा रिस्‍पोंस या प्रभाव रहा और इसकी आपने किस तरह ज़रूरत महसूस की?
असग़र : मुझे यह लगा कि जैसे पात्र हमारे जिस समाज से आते हैं, वे एक से नहीं हैं, किसी एक समय के नहीं हैं, स्‍वयं पात्र हमारा समय बन जाता है, समय की वैसी स्थितियां बन जाती हैं, पर्यावरण बन जाता है, स्‍थान बन जाता है, तो इस प्रकार से वह एक पात्र नहीं रह जाता, बल्कि वह एक प्रवृत्ति में बदल जाता है। तो यह उसको एक प्रवृत्ति में बदलने की व्‍यापक कोशिश है। यह किसी एक पात्र की कहानी नहीं होती, वह हम सब की कहानी हो जाती है, हमारे समाज की कहानी है, देश की कहानी है। तो इस तरह से नायक जो है, वह एक पात्र नहीं है, वह पूरा परिवेश है।
नंद : नाट्य लेखन के क्षेत्र में जब आप सक्रिय हुए और आपका पहला नाटक ‘वीर गति’ सामने आया, और उसके बाद जो दूसरा नाटक आया ‘इन्‍ना की आवाज़’। उसका परिवेश भी बदला हुआ है और शोषण का जो एक बड़ा मुद्दा हम सबके सामने चिंता का रहा है उस सामंतवादी ज़माने में उसकी ओर भी आपने ध्‍यान आकर्षित करने का प्रयत्‍न किया है, उसके बाद आपने सांप्रदायिकता के मुद्दे पर और गहराई से अपना ध्‍यान केंद्रित करते हुए ‘जिस लाहौर नइ देख्‍या --‘ जैसा महत्‍वपूर्ण नाटक लिखा, जो ख़ूब लोकप्रिय हुआ, तो उसके पीछे किस तरह की सोच रही, किस बात ने आपको प्रेरित किया और उन नाटकों के रिस्‍पोंस को आप किस तरह देखते हैं?
असग़र : यह जो नाटक ‘जिस लाहौर नइ देख्‍या ओ जन्‍म्‍या ई नइ’ जब मैंने लिखा, तो उसके पीछे बड़ी रोचक बात रही। मैंने अक्‍सर देखा है कि किसी भी रचना को लिखने के बीज आपको अपने परिवेश और समय में मिलते हैं। बिना बीज के पेड़ का होना असंभव है। तो ‘जिस लाहोर नइ देख्‍या—' के लिखे जाने की पृष्‍ठभूमि की बात करूं तो आप जानकर आश्‍चर्य करेंगे कि इसके बीज मुझे कहां से मिले? इसके बारे में मैंने अन्‍यत्र लिखा भी है। उर्दू के एक पत्रकार हुआ करते थे संतोषकुमार जी, जो लाहौर के थे और दिल्‍ली में जो उर्दू का ‘प्रताप’ अख़बार निकलता है, उसके संपादक थे, तो वे लाहौर गये थे किसी डेलीगेशन में, और डेलीगेशन से लौटकर उन्‍होंने उस पर एक पुस्‍तक लिखी थी, लाहौरनामा। वह पुस्‍तक मैंने देखी नहीं थी। एक दिन दिल्‍ली जर्नलिस्‍ट यूनियन के कार्यालय में संतोषकुमार जी मिले और बोले कि मैं आपको अपनी पुस्‍तक की तीस पंक्तियां सुनाना चाहता हूं। वे गर्मी के दिन थे और मैं बड़ा थका हारा परेशान सा पहुंचा था कि घंटा भर आराम करूंगा, पर उनके आग्रह का मान रखते हुए मैं उनसे वे पंक्तियां सुनने को तैयार हो गया। उन पंक्तियों में उन्‍होंने एक ऐसी हिंदू बूढ़ी महिला का‍ ज़िक्र किया था, जो विभाजन के बाद भारत नहीं आयी, अपने मोहल्‍ले में ही रह गयी थी। उसका बहुत सहयोगी स्‍वभाव था कि आसपड़ोस के सारे लोग उसका ख़याल रखते थे। यह प्रसंग एक बीज रूप में मेरे सामने आया, और तत्‍काल एक नाटक की रूपरेखा मेरे ज़हन में बननी शुरू हो गयी और मैं यह भूल गया कि मैं थका हुआ हूं, मुझे पानी पीना है याकि मुझे कुछ खाना है, और मैंने चलते-चलते उन से कहा कि आपने मुझे इतना बड़ा ख़ज़ाना दे दिया है कि जिसकी कल्‍पना करना कठिन है। तो वे बोले कि ऐसा क्‍या हुआ, इस पर मैंने यही कहा कि यह मैं आपको बाद में बताऊंगा। जब हबीब तनवीर इस नाटक की रिहर्सल कर रहे थे तो उस वक्‍त़ मैंने संतोष जी से  कहा‍ कि चलिए आपको मैं वह चीज़ दिखाता हूं। जो बीज आपने मुझे दिया था, वह कहां पहुंचा यह मैं आपको दिखाना चाहता हूं। तो उन्‍होंने देखा और बहुत प्रसन्‍न हुए, तो उस एक प्रसंग से इस नाटक की रचना हुई। तो मेरे कहने का आशय है कि हर नाटक या रचना के साथ यह होता है और यही इस नाटक के साथ हुआ और मुझे बिल्‍कुल आशा नहीं थी कि यह नाटक इस प्रकार से इतनी लोकप्रियता प्राप्‍त करेगा। क़रीब तीस साल हो गये इस नाटक को लिखे हुए, विश्‍व के अनेक शहरों में इसके शो हुए हैं, और आज भी इसके बहुत शो होते हैं। मेरे लिए यह ख़ुश की बात है कि यह विचार, जिसमें सच्‍चाई, र्इमानदारी और धर्म का जो एक वास्‍तविक स्वरूप है, वह लोगों के पास इस नाटक के माध्‍यम से पहुंचता है, यह बहुत ख़ुश की बात है।
नंद : आपको यह जानकर ख़ुश होगी असग़र भाई कि आपके नाटक ‘जिस लाहौर नइ देख्‍या वो जन्‍म्‍या ई नइ’ के हमारे अपने शहर में भी कई अच्‍छे प्रदर्शन हुए हैं और कई अलग अलग नाट्य मंडलियों ने इसके प्रदर्शन किये हैं। जैसा आपने बताया, यह नाटक पिछले तीस सालों में देश-दुनिया में बहुत लोक‍प्रियता अर्जित कर चुका है और हर शो का बहुत अच्‍छा रिस्‍पोंस रहा है। आपके इन नाटकों को लेकर मेरी एक छोटी-सी जिज्ञासा यह भी है कि उस नाटक में जैसे पहलवान का चरित्र है, या ‘इन्‍ना की आवाज़’ में जो बीच के अधिकारी हैं, चाहे वे सुपरवाइज़र हैं या राज्‍य के दूसरे ओहदेदार हैं, यानी राजा अलग और पूरी व्‍यवस्‍था को संचालित करने वाले लोग अलग और वहां अपने असंगत व्‍यवहार के लिए लोगों के सामने जो एक्‍सपोज़ होते हैं, वे बीच के लोग ही होते हैं, जब कि उस तंत्र को संचालित करने वाला जो असली मालिक है, या वे छिपी हुई ताक़तें, जो असली गुनहगार हैं, वे कहीं पिक्‍चर में नहीं आतीं। यह नहीं पता लग पाता कि यह जो विभाजन की समस्‍या पैदा हुई है, उसके पीछे कौन लोग हैं, उनकी मानसिकता क्‍या थी, यानी क्‍या यह संभव नहीं है कि कोई रचनाकार उस मूल कारण तक जा पाये ?
असग़र : मेरा ख़याल है कि हर विधा की अपनी सीमाएं होती हैं और उन सीमाओं का अतिक्रमण करना या उसे पार करने की कोशिश, जो उस विधा को ही कमज़ोर बना दे, वह कोशिश नहीं करनी चाहिए। जैसे मान लीजिए कि जो एक गीतकार है, वह गाता है, वह अपने गाने के, अपनी लय के, अपने संगीत के अध्‍ययन से अपनी कोई बात आप तक पहुंचाना चाहता है, तो उसकी अपनी सीमा है, और उसे उसी तक रहने देना चाहिए। एक कथाकार है, वह किसी ख़ास स्थिति में अपने परिवेश को सामने ला रहा है, उसकी भी अपनी सीमाएं हैं, वह उनके बाहर जा नहीं सकता और यही बात नाटक पर भी लागू होती है। अगर वह उस स्थिति से बाहर जायेगा, या उस समस्‍या की पड़ताल में जायेगा तो वह नाटक नहीं रह जायेगा, वह कुछ और हो जायेगा। उसे लेख तो नहीं बनाना है, उसे नाटक ही बने रहना है, उसका काम लोगों को सोचने के लिए प्रेरित करना है कि वे सोचें। नाटक अपने आप में कोई समाधान नहीं है, नाटक आपको केवल सोचने की एक दिशा दे सकता है। और हम देखेंगे कि उसे देखने वाले दर्शक या पाठक इतने जागरूक हैं जो उससे सही नतीजे तक पहुंचेंगे। पूरी परिस्थिति या समस्‍या का कोई समाधान पेश करना, यह नाटककार या रचनाकार का काम नहीं है।
नंद : समकालीन कथा साहित्‍य में आपका जो बड़ा योगदान माना जाता है, वह कहानियों के साथ आपके उपन्‍यासों के माध्‍यम से और बेहतर ढंग से संभव हुआ है। सात आसमान जैसा आपका बड़ा उपन्‍यास सामने आया, कैसी आगि लगाई, बरखा रचाई धरा अंकुराई और मन माटी जैसे उपन्‍यास सामने आये, जबकि कहानीकार के रूप में आपने कई नये प्रयोग किये हैं, आपकी छोटी कहानियां ख़ूब लोकप्रिय रही हैं। पाठक के मानस पर सीधा असर करने वाली ऐसी कहानियां लिखते हुए उपन्‍यास जैसी विधा की ओर जाने की ज़रूरत किसी लेखक को कब महसूस होती है और कब कोई यह महसूस करता है कि अब उसे किसी बड़े फलक पर काम करना चाहिए?            
असग़र : मेरा मानना है कि कोई लेखक एक विधा या एक विषय तक सीमित नहीं होता है।  विषय बदलते हैं, और बदलते विषयों के साथ उनका रूप भी बदलता है। बहुत से विचार ऐसे आते हैं कि जिन पर आप कहानी लिख सकते हैं, कुछ विषय और उनका परिवेश इतना फैला हुआ होता है कि उस पर आप उपन्‍यास ही लिख सकते हैं, उस पर अगर आप कहानी लिखेंगे तो वह शायद काफ़ी न हो। इस प्रकार से जो कंटैंट है वह फ़ॉर्म को निर्धारित करता है। मेरे लेखन में भी जो अलग अलग कंटेंट आते रहे, वही बताते रहे कि हम किस फ़ॉर्म में सामने आयेंगे। उन्‍हें जिस फ़ॉर्म में आना था, वे अगर उसमें न आते तो पता नहीं उनका क्‍या रूप होता। जहां तक मेरे उपन्‍यास, सात आसमान के बारे में आपने कहा, मैंने तो उसे एक ग़ैर-परंपरावादी ढंग से लिखा है, मैंने उसे आधे से ज्य़ादा लिखा और लिखकर छोड़ दिया। उसे लिखते हुए मुझे लगा कि मैं यथार्थ यानी सचाई को कहानी बना रहा हूं, जबकि मेरी कोशिश यह रहती है कि कहानी सीधे सीधे यथार्थ में न जाये, जो मुझे कहना है, उसे कम से कम में ठीक से कह दूं ताकि जो सचाई है, उसकी साख बनी रहे। वह सचाई कहानी या उपन्‍यास में ढलकर कहीं काल्‍पनिकता के नज़दीक न पहुंच जाये।
नंद : यह जो अपने कथा लेखन में आप जिसे आख्‍यान कहते है, इसका थोड़ा खुलासा कीजिए,  यह कथा के तयशुदा रूपविधान से किस तरह अलग है, और लोगों ने इसका किस रूप में प्रयोग किया है, जबकि मुझे लगता है कि आपके आख्‍यान की कुछ अलग पहचान है? 
असग़र : धीरे धीरे हुआ यह कि एक क़िस्‍म की काल्‍पनिक कहानी या उपन्‍यास में मेरी रुचि कम होती गयी है और मुझे यह लगा कि ये जो हमारे कहानी और उपन्‍यास लिखने के फ़ॉर्म हैं, एक प्रकार से अब बहुत पुराने पड़ गये हैं, उसमें वह मज़ा नहीं रहा, जो पहले कभी हुआ करता था,  हो सकता है कि बहुत लोगों को अब भी उतना ही मज़ा आता हो, लेकिन मुझे लगा कि फ़िक्‍शन और नॉन-फ़िक्‍शन को मिलाकर कुछ ऐसा प्रयोग किया जाये। तो बाकर एम सैयद की एक खोज है, पुराने इतिहास के पात्रों में से एक खोज, लेकिन उस खोज के बहाने जो समय सामने आता है, और जिनकी खोज की जा रही है, वे तो सामने नहीं आते, लेकिन उन पात्रों के स्‍थान पर कुछ दूसरे पात्र सामने आते हैं, जो बहुत रोचक और मजेदार हैं, उनके माध्‍यम से आप उनके समय और समाज को समझ सकते हैं, तो यह एक प्रकार से सांस्‍कृतिक इतिहास बनता है, जो आपको ढाई सौ तीन सौ साल के समय के लोगों के जीवन और उनकी समस्‍याओं और चिंताओं की जानकारी कराता है।
नंद :  आपने एक भ्रमणशील लेखक के रूप में दुनिया के कई देशों की यात्राएं की हैं और उसकी उपलब्धि हमें इस रूप में मिली कि उसके बहुत अच्‍छे यात्रा वृतांत हमें देखने पढ़ने को ‍मिले, इन यात्रा अनुभवों का कई कहानियों पर प्रभाव दिखायी देता है, यहां तक कि उपन्‍यासों और नाटकों पर भी उन यात्राओं का असर दिखायी देता है, जबकि अच्‍छे यात्रा वृतांत तो अपनी जगह हैं ही, थोड़ी उनकी भी हमें जानकारी दें, उन यात्राओं में कौन सी यात्रा या विदेश प्रवास आपको सबसे अधिक रोचक और महत्‍वपूर्ण लगा।
असग़र : देखिए, हर यात्रा में कुछ न कुछ तो ऐसा होता है, जो आपको लगता है कि यह बहुत महत्‍वपूर्ण यात्रा रही। और यात्रा करने का या नयी चीज़ या मुल्‍कों को देखने का पता नहीं क्‍यों, एक प्रकार का जुनून सा लगता है मुझे, मेरे अंदर हमेशा से यह इच्‍छा रही कि मैं नया से नया देखूं, सभी लोग पूछते हैं कि आपकी सबसे बड़ी इच्‍छा क्‍या है, तो मैं कहता हूं कि सबसे बडी इच्‍छा यह है कि इस संसार में जितनी बड़ी जगहें हैं, उन तक घूम आऊं और अधिक से अधिक लोगों से मिलूं। यह एक तरह की व्‍याकुलता है जो ले जाती है कहीं, ऐसी जगहों पर, जहां लोग नहीं जाते, वहां जाना बहुत रोचक होता है। मैं मिज़ोरम गया तो पूछा कि ऐसी जगह बताइए जहां लोग जाते नहीं हैं। तो उन्‍होंने कहा कि बंगलादेश की सीमा पर एक गांव है, जहां चकमा आदिवासी रहते हैं, वहां चले जाइए। वह इतना बीहड़ इलाक़ा है कि वहां के जो प्रतिनिधि हैं, वे भी वहां नहीं रहते। तो वहां ऐसा मलेरिया होता है कि उसका कोई इलाज नहीं है, वहां ठहरने की कोई जगह नहीं है, कोई होटल वग़ैरह भी नहीं है, तो ऐसी जगहों पर जाने की और उन्‍हें जानने की इच्‍छा रहती है, या ऐसी जगहें जो दुर्लभ हों।
नंद : दो छोटे छोटे सवाल और करूंगा आपसे और उनमें पहला तो यही कि आप बहुत अच्‍छे शिक्षक रहे हैं, दिल्‍ली में जामिया मिलिया में काम किया है, हंगरी जैसे देश में आपने हिंदी पढ़ायी है। अपने भ्रमणशील जीवन में अन्‍य लोगों को भी संस्‍कृति और मानवीय सरोकारों के प्रति लोगों को जागरूक बनाने का प्रयत्‍न किया है, मेरी जिज्ञासा यह है कि एक शिक्षक के रूप में लेखक के काम का निर्वाह किस तरह से संभव हो पाता है? कहां कहां उनमें टकराव होता है, कहां वह उपलब्धिमूलक लगता है? 
असग़र : देखिए, आपकी इस बात से तो मैं असहमत हूं कि मैं बहुत अच्‍छा शिक्षक हूं। (सहज हंसी) अच्‍छा शिक्षक मैं नहीं हूं --
नंद : पर आपसे पढ़कर निकले बहुत लोग तो यही कहते हैं कि वे आप जैसे अच्‍छे शिक्षक से पढ़े हैं और यह उन्‍हीं की राय है। (हंसी)
असग़र : असल में पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं यह ज़रूर चाहता था कि कोई चुनौती भरा काम करूं और शिक्षक के काम को लेकर मैं ऐसा मानता था कि यहां रोज़ कोई नयी चुनौती मिलेगी, तो रोज़ नयी चुनौती वाले काम को करने की जिज्ञासा थी मेरे अंदर, जो करना चाहता था, वह तो कर नहीं पाया, लेकिन कुछ न कुछ, कोई न कोई काम तो करना था, तो इस प्रकार से मैं शिक्षक बना, और फिर कोशिश की कि इसे मैं रुचिकर बनाऊं, छात्रों के साथ और अच्‍छा संवाद हो, तो वह एक कोशिश रही मेरे अंदर। और उससे रचना करने में भी काफ़ी मदद मिली। क्‍योंकि लिखने पढ़ने के काम से रचना का काम जुड़ा हुआ है, और दूसरी बात यह कि छात्रों के साथ संवाद का जो हमारा जीवन था, तो उन दोनों के बीच अच्‍छा तालमेल बिठाने का प्रयास किया। अगर मैं कोई दूसरी नौकरी करता तो शायद इतना अच्‍छा तालमेल न बैठा पाता।
नंद : इधर जिस तरह का माहौल है और जिस तरह की चेतना विकसित करने की ज़रूरत हम महसूस करते हैं, उसमें लेखक के ज़िम्‍मे भी बहुत सा काम आता है, आप स्‍वयं जनवादी लेखक संघ के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष हैं और प्रगतिशील विचारधारा के साथ आपका वर्षों से गहरा संबंध रहा है, यहां तक अपने कॉलेज जीवन के दिनों से, जब आप एएमयू में पढ़ते थे, प्रगतिशील काव्‍य धारा पर आपकी पीएचडी है, बल्कि उस ज़माने में सीपीएम के मेंबर के रूप में चुनाव भी लड़ा, राजनीतिक दृष्टि से जिस तरह की जागरूकता आपके साथ रही है, आपके इस लंबे अनुभव को देखते हुए हम जानना चाहते हैं कि इस सारे माहौल में, हालांकि ज़िम्‍मेदारी तो हर देशवासी की है, लेकिन लेखकों पर किस तरह की ज़िम्‍मेदारी आप अनुभव करते हैं, संगठन क्‍या कुछ कर सकते हैं और इस दृष्टि से आपके क्‍या सुझाव हैं?
असग़र : ये लेखक और संगठन बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन शायद कर नहीं पाते हैं। और हम लोगों की और लेखक संगठनों की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है, जबकि लेखक संगठनों की भूमिका को सीमित नहीं होना चाहिए, कुछ सौ लोगों के बीच में पत्रिकाएं भी पहुंचती हैं, और बाक़ी जो व्‍यापक जन समूह है, उससे हमारा कोई संवाद बनता नहीं, सबसे बड़ी समस्‍या हमारे देश में यह है कि जो जागरूक बुद्धिजीवी समाज है, उसका संवाद इस व्‍यापक जनसमुदाय के साथ नहीं है, यहां जितने लोग बैठे या गोष्ठियों में जितने लोग आते हैं, उसमें निरंतर कमी आयी है, लेखक संगठनों को और जागरूक लोगों को जैसे प्रयास करने चाहिए थे, वैसे नहीं हो पाये हैं, वह व्‍यापकता नहीं बन पायी। जबकि हमारे ही देश में दूसरी भाषाओं के लेखक और साहित्‍यकार बहुत बड़े स्‍तर पर काम करते हैं, मान लीजिए मराठी में या कन्‍नड़ में या मलयालम में, जो सक्रियता है, वह मध्‍य भारत के हिंदी क्षेत्र में नहीं दिखायी देती।
नंद : असमिया में मैंने देखा है कि वहां के साहित्‍यकार बहुत संगठित ढंग से कार्य करते हैं। असम साहित्‍य सभा का जैसा व्‍यापक प्रभाव जनता के बीच दिखायी देता है, उस तरह का प्रभाव हिंदी साहित्‍य लेखन का यहां के समाज के बीच क्‍यों नहीं दिखायी देता, क्‍या कठिनाई है आखिर ? हिंदी लेखक की ऐसी क्‍या सीमाएं हो गयी हैं कि वह अपने समय और परिवेश में उस तरह से सक्रिय नहीं हो पाता?
असग़र : देखिए हिंदी समाज का अध्‍ययन करना बड़ा रोचक होगा, और यह अध्‍ययन कम से कम सन् 1857 से शुरू करना चाहिए। अगर 1857 से यह अध्‍ययन शुरू किया जाये तो बहुत महत्‍वपूर्ण, बुनियादी और रोचक तथ्‍य सामने आयेंगे। हिंदी समाज एक ऐसा समाज है जहां पर अभी तक जो परिवार की भाषा और समाज की भाषा है, उसमें अंतर आप देख सकते हैं, जब कि यह मलयालम में या कन्‍नड़ में आप नहीं देख सकेंगे। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार से एक हिंदी चेतना को आगे बढ़ना चाहिए था, उसमें समय लग रहा है, वह अभी आगे बढ़ने की प्रक्रिया में है। तीसरी बात यह है कि जो सन 1857 के बाद आजादी का संघर्ष चला, उसमें अंग्रेज़ों से हमारी पराजय के क्‍या कारण रहे, तो उन कारणों में दुर्भाग्‍य से एक कारण जो है वह संगीत ही को मान लिया गया, यह रहा कि हमारा समाज तो गाने सुनता है, हमारा समाज तो संगीत में डूबा हुआ है, हमारा समाज तो इस प्रकार के काम करता है। तो संगीत नृत्‍य उस मध्‍यम वर्ग या उच्‍च मध्‍यम वर्ग के आदमी को हालात से उदासीन बनाये रखता था। शायद इसी वजह से हिंदी प्रदेश में चेतना या जागरण का स्‍तर थोड़ा और नीचे चला गया। आपको जुनून फ़िल्‍म का वह दृश्‍य ज़रूर याद होगा, जब उसमें एक क्रांतिकारी है नसीरुद्धीन शाह, उसकी वह सेना हार जाती है, और वह भागकर अपने घर पहुंचता है और देखता है कि उसका भाई जो है वह कबूतर उड़ा रहा है, तो वह उस कबूतरख़ाने को तोड़ देता है और चिल्‍लाता है कि हम कबूतर उड़ाते रहे, गाने सुनते रहे, हम यह करते रहे, वह करते रहे, तो हिंदी प्रदेश के जो लोग हैं, वे पराजय के बोध से इतने ज्य़ादा दबे रहे, तो उनकी संस्‍कृति पूर्ण रूप से विकसित होकर सामने आ ही नहीं पायी, जबकि अहिंदी प्रदेश जो 1857 की क्रांति की गिरफ्‍त़ में नहीं थे, वहां आप देखेंगे कि सांस्‍कृतिक चेतना का स्‍तर दूसरी तरह का रहा। 
नंद – आपका तहेदिल से शुक्रिया असग़र भाई कि आज आपसे आपकी ज़िंदगी और अदबी सफ़र के बारे में इतनी तसल्‍ली और तफ़सील से बात हो सकी, मेरा ख़याल है, आपके पाठकों और साहित्‍य में दिलचस्‍पी रखने वालों को इसके माध्‍यम से बहुत सी नयी और काम की बातें जानने समझने को मिली हैं, आपका हार्दिक आभार।  

मो0  नंद भारद्वाज : 9829103455
मो0 असग़र वजाहत : 9818149015   

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