जन्मशताब्दी स्मरण

 

जनकवि अन्ना भाऊ साठे

सुबोध मोरे

 साहित्यकार और जनकवि कॉमरेड अन्नाभाऊ साठे की दुनिया बदलने कअपील करनेवाला एक जनगीत लगभग सात-आठ दशकों से मज़दूर वर्ग के आंदोलन में शामिल है। यह उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। सौ साल पहले 1 अगस्त, 1920 को कॉंमरेड अन्नाभाऊ का जन्म, पिछड़ी समझी जाने वाली मातंग जाति में हुआ था। अन्नाभाऊ को साहित्यरत्न, लोकशाहीर (जनकवि) के नाम से सारी दुनिया जानती है। लेकिन यह महान कलाकार, साहित्यकार, जनकवि मज़दूर आंदोलन के माध्यम से कैसे उभरा, उनके क्रांतिकारी गीत, साहित्य की वैचारिक नींव जिस मज़दूर कम्युनिस्ट आंदोलन ने डाली, उसका सच्चा इतिहास और मज़दूर नेता, जनकवि और साहित्यकार के रूप में उनके सक्रिय जीवन को इस जन्म शताब्दी के अवसर पर जानना महत्वपूर्ण है।

           कॉमरेड अन्नाभाऊ 1930 के दशक में तत्कालीन सतारा ज़िले में अपने मूल जन्मस्थान वाटेगांव को छोड़ कर मां-बाप के साथ बचपन में ही मुंबई आ गये थे। यहां आने के बाद सर पर बोझा ढोने, फेरीवाले का काम करने से लेकर कपड़ा मिल में हेल्पर के रूप में काम किया। लाल बावटा मिल वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व में मुंबई में 1934 की ऐतिहासिक हड़ताल हुई थी। अन्नाभाऊ ने उस आंदोलन में एक मज़दूर के रूप में सक्रिय भागीदारी की थी। हड़ताल के  दौरान शिवड़ी क्षेत्र में कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच झड़प हुई, उसके भी वे साक्षी रहे। यह हड़ताल मिल मज़दूरों के संघर्ष में मारे गये शहीदों तथा दलित समुदाय के परशुराम जाधव की याद में 23 अप्रैल, 1934 को शुरू हुई थी। सभी मिलों के गेट पर परशुराम जाधव के पोस्टर लगाये गये थे। इसी से अन्नाभाऊ श्रमिक आंदोलन की तरफ़ आकर्षित हुए। लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ उनका सीधा संबंध तब हुआ जब वे 1935-36 में मुंबई के धारावी के पास ‘माटुंगा लेबर कैंप’ के पास एक गंदी झुग्गी में रहने चले गये। उस समय बड़ी संख्या में दिहाड़ी निर्माण श्रमिक, महानगरपालिका, रेलवे, गोदी आदि में काम करने वाले कर्मचारी वहां झोपड़ियों में रहते थे। इन श्रमिकों को एकजुट करने और उनका संगठन बनाने का काम तत्कालीन कम्युनिस्ट नेता और डॉ. भीमराव बाबासाहेब आंबेडकर के ऐतिहासिक ‘महाड सत्याग्रह’ के प्रमुख सहयोगी कॉमरेड आर. बी. मोरे कर रहे थे। उनके साथ कॉमरेड के. एम. सालवी थे, जो आंबेडकर के नेतृत्व मे हुए ‘कालाराम मंदिर सत्याग्रह’ में अग्रणी कार्यकर्ताओं में से एक थे।

 समाजवादी विचारधारा के रूबरू

अन्नाभाऊ उन नेताओं और कार्यकर्ताओं के संपर्क में आने वाले पहले व्यक्ति थे, जो इस तरह के सामाजिक आंदोलन के माध्यम से आत्म-जागरूक हुए थे। उनसे, अन्नाभाऊ को सामाजिक असमानता और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के बारे में पता चला। इसी तरह उन्हें दुनिया भर के कामकाजी लोगों के शोषण और उत्पीड़न तथा उनके विरुद्ध संघर्षों की जानकारी मिली। रूसी क्रांति और वहां के श्रमिकों के समाजवादी राज्य की स्थिति के बारे में भी पता चला। उस समय, कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा मज़दूर आंदोलन में श्रमिकों की वैचारिक जागरूकता बढ़ाने के लिए कॉ. आर. बी. मोरे, कॉ. बी. टी. रणदिवे, कॉ. एस. वी. देशपांडे आदि नेता मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा पर श्रमिकों का एक स्टडी सर्कल चलाते थे। इस अध्ययन मंडल से कामगारों का पहला कैडर निकला। जिसमें कॉ. सालवी, कॉ. शंकर नारायण पगारे, कॉ. किसन खवले, कॉ. सरतापे आदि थे। बाद में, उनके साथ, कॉमरेड अन्नाभाऊ ने भी भाग लेना शुरू कर दिया।

         इसी लेबर कैंप में कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर अन्नाभाऊ को अक्षरों का ज्ञान हुआ। वहीं पर उन्होंने मराठी भाषा में शाब्दिक रूप से क, ख, ग सीखा। (क्योंकि अस्पृश्यता के कारण उन्हें बचपन में ही स्कूल छोड़ना पड़ा था) वर्णमाला की  पहचान के बाद, उन्होंने शुरू में दुकानों के नामफलक, फ़िल्म के पोस्टर पढ़ना शुरू किया। बाद में, वे लेनिन के जीवन चरित, रूसी क्रांति के प्रसिद्ध लेखक मैक्सिम गोर्की का उपन्यास, मां, रूसी क्रांति का इतिहास, श्रमिक साहित्य मंडल द्वारा मराठी मे प्रकाशित मार्क्स-एंगेल्स का कम्युनिस्ट घोषणापत्र, श्रमिक आंदोलन से निकलने वाली मुंबई कामगार साप्ताहिक पत्रिका आदि पढ़ना शुरू किया। इसी तरह वे कार्यकर्ताओं से देश-विदेश की मौजूदा परिस्थितियों को समझने लगे। इससे अन्नाभाऊ की राजनीतिक, सामाजिक तथा वैचारिक समझ बढ़ने लगी।

 दलित युवक संघ की स्थापना

इसी दरमियान कॉ. आर. बी. मोरे के मार्गदर्शन में, कॉमरेड सालवी के सहयोग से अन्नाभाऊ ने माटुंगा लेबर कैंप में ‘दलित युवक संघ’ नामक एक युवा संगठन की स्थापना की और बेरोज़गार युवाओं को संगठित करने और उन्हें राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन में शामिल करने की कोशिश की। इस तरह अन्नाभाऊ ने कम्युनिस्ट पार्टी, मज़दूर आंदोलन में सक्रिय भाग लेना शुरू कर दिया।

              1936-37 की इसी अवधि के दौरान, अन्नाभाऊ कम्युनिस्ट पार्टी के एक आधिकारिक सदस्य बन गये और पार्टी के सक्रिय सदस्य के रूप में काम करना शुरू किया। पार्टी कार्यकर्ताओं के अनुरोध पर, उन्होंने तत्कालीन लेबर कैंप में मच्छरों के बारे में पहला गीत लिखा। उस समय, श्रमिक शिविरों में रहने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता, कॉ. शंकर नारायण पगारे को पहले से ‘अंबेडकरी जलसे’ का अनुभव था। उनकी पहल से, अन्नाभाऊ ने श्रम शिविर में कम्युनिस्टों के प्रभाव में ‘दलित युवक संघ’ की पहली कला मंडली का गठन किया। इस तरह अन्नाभाऊ मज़दूर, कास्तकारों के आंदोलन पर गीत लिखने लगे। उसी समय, कम्युनिस्टों की पहल पर मुंबई में श्रमिकों के जो आंदोलन और लड़ाइयां शुरू हुई थीं, जैसे कपड़ा मिलों के गेट पर तथा मज़दूरों की सभाओं में अन्नाभाऊ और उनके सहयोगियों ने वहां गीत गाने शुरू किये।

 प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य

इसी समय, 1936 में राष्ट्रीय स्तर पर, कम्युनिस्टों की पहल पर प्रगतिशील विचारकों की एक संस्था ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ का गठन हुआ था। ये लेखक रूस में समाजवादी क्रांति से प्रभावित थे। जिनमें प्रेमचंद, सज्जाद ज़हीर, फ़ैज अहमद फ़ैज़, कृष्णचंदर, इस्मत चुग़ताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास, मंटो, मख़दूम मोहिउद्दीन, राजेंद्र सिंह बेदी, राहुल सांकृत्यायन, मुल्कराज आनंद, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री, मज़रूह सुल्तानपुरी आदि कई लोग शामिल थे। इनमें से कुछ लोगों का साहित्य, साथ ही गोर्की, चेख़व, तुर्गनेव, टॉलस्टॉय, मायकोव्स्की आदि मराठी में प्रकाशित हो रहे थे, उसे अन्नाभाऊ भी पढ़ते थे। उस साहित्य का वैचारिक प्रभाव अन्नाभाऊ पर भी पड़ने लगा। उसी से उनको कहानी, नाटक, उपन्यास लिखने की प्रेरणा मिली। कम्युनिस्ट आंदोलन एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन था। उसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति का परिचय भी था। दुनिया में जिस जिस देश मे साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, फ़ासीवाद और मेहनतकश जनता के शोषण के ख़िलाफ़ मुक्ति संघर्ष चल रहा था, उसका प्रभाव यहां के आंदोलनों में दिखायी देने लगा था। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और फ़ासीवाद का प्रतिरोध समय समय पर कम्युनिस्टों द्वारा किया जा रहा था।

       इन सबका असर अन्नाभाऊ की विचारधारा पर दिखायी देने लगा था और उनमें एक विश्वदृष्टि विकसित होने लगी थी। 1936 में स्पेन में फ़ासीवाद उभरना शुरू हुआ और इसके ख़िलाफ़ संघर्ष शुरू हुआ। उसकी रिपोर्ट कम्युनिस्ट पत्रिकाओं मे छपने लगी, उन्हें अन्नाभाऊ नियमित रूप से पढ़ते थे। इसे पढ़ने और कामरेडों के साथ चर्चा करने के बाद 1939 में, उन्होंने स्पेन के फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ पहला ‘स्पैनिश पोवाडा’ (यानी लोकगीत का एक रूप जिसे गायन की लोकशैली में प्रस्तुत किया जाता है), लिखा, जिसे लेकर मुंबई के मिल वर्कर्स यूनियन की ओर से मज़दूरों के बीच कई कार्यक्रम आयोजित किये गये थे। लोगों ने पहली बार अन्नाभाऊ को कवि के रूप में पहचाना और सराहा।

 सांस्कृतिक जागरण

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, फ़ासीवादी हिटलर ने सोवियत रूस पर आक्रमण किया। लाल सेना ने हिटलर के फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ ज़ोरदार संघर्ष किया। इस सबका बख़ान करने वाला एक पोवाडा अन्नाभाऊ नें 1942 में लिखा जिसे काफ़ी लोकप्रियता मिली। मुंबई में मज़दूर आंदोलनों में इसका ज़ोरदार स्वागत हुआ और अन्नाभाऊ की लोकप्रियता भी बहुत बढ़ गयी। कम्युनिस्ट पार्टियों के आयोजनों  में भी ‘स्टालिनग्राद का पोवाडा’ के विशेष कार्यक्रम हुए, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन नेताओं ने देखा था और अन्नाभाऊ की प्रशंसा भी की थी। केवल इतना ही नहीं, बल्कि पार्टी ने स्टालिनग्राद का पोवाडा नामक एक पुस्तिका भी प्रकाशित की, जिसे लोगों में वितरित किया गया।

          1938 से 1943-44 तक, जनकवि अन्नाभाऊ और उनके साथियों ने मुंबई के गिरणगांव में चल रहे हड़तालों, आंदोलनों, संघर्षों के समर्थन में कला मंडली द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करके कार्यकर्ताओं में जागरूकता पैदा करने का बड़ा काम किया। इस कला मंडली के माध्यम से होने वाले सांस्कृतिक जागरण का फ़ायदा कम्युनिस्ट आंदोलन को पहुंचाने के लिए पार्टी ने सांस्कृतिक मोर्चे पर विशेष ध्यान देने का निर्णय लिया। 

 संयुक्त कला मंडली स्थापित 

इस बीच, 1943 में मुंबई में कम्युनिस्ट पार्टी का पहला सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें कॉमरेड पी. सी. जोशी को अखिल भारतीय महासचिव चुना गया। उनके लेखकों और कलाकारों के साथ घनिष्ठ संबंध थे। चूंकि कम्युनिस्ट पार्टी का केंद्रीय मुख्यालय मुंबई में था, इसलिए महाराष्ट्र के प्रमुख कवि कलाकारों को एक साथ लाने के लिए मुंबई में एक संयुक्त कला मंडली स्थापित करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए पार्टी नें बार्शी-सोलापूर से कवि कॉ. अमर शेख़ और कोल्हापूर से कॉ. दत्तात्रय गव्हाणकर को मुंबई बुलाया था। 1944 में, माटुंगा लेबर कैंप में इन तीन प्रमुख कवियों और अन्य कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और कलाकारों की भागीदारी के साथ ‘लाल बावटा कला पथक’ नामक एक ऐतिहासिक कला मंडली का गठन किया गया था जिसके प्रमुख कॉ. अन्नाभाऊ साठे, कॉ. अमर शेख़ और कॉ. दत्ता गव्हाणकर थे। प्रबंधक के रूप में वा. वि. भट थे।

          अन्नाभाऊ के जाति-वर्ग चेतना के गीत, पोवाडे, लावणियां, लोक नाटकों के साथ कॉ. अमर शेख़ के गीत और उनकी पहाड़ी आवाज़, साथ में कॉ. दत्ता गव्हाणकर के गीत, लोक नाटक और उनकी लोकप्रिय सरस संगीत के साथ और निर्देशन में तमाम कलाकार एक साथ आने की वजह से लाल बावटा कलापथक मुंबई में मज़दूरों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गया।

 दर्द को बयां करते गीत 

इस बीच, कम्युनिस्ट पार्टी ने जनवरी 1945 में मुंबई के क़रीब ठाणे ज़िले के टिटवाला में महाराष्ट्र किसान सभा का पहला स्थापना सम्मेलन आयोजित करने का फ़ैसला लिया, जिसे कॉमरेड शामराव परुलेकर, कॉ. गोदावरी परुलेकर और कॉ. बुवा नवले का नेतृत्व मिला। मुंबई और आसपास के ठाणे तथा कोलाबा ज़िलों में इस ऐतिहासिक सम्मेलन के बारे में जागरूकता फैलाने में ‘लाल बावटा कलापथक’ का बड़ा योगदान था। सम्मेलन के लिए कॉ. अमर शेख़ द्वारा लिखा गया एक ख़ास गीत ‘किसान सभा शेतकऱ्याची माऊली’ (किसान सभा कृषकों की माता), दलित लेखक नारायण सुर्वे का लिखा ‘डोंगरी शेत माझ गाव, मी बेनू किती...’ (मेरी खेती पहाड़ी है, उसे कितना जोतूं...), ग्रामीण किसान महिला के दुःख, कठिनाई और दर्द को बयां करते ये गीत काफ़ी चर्चा में आये। इस सम्मेलन में ही कॉ. अन्नाभाऊ, कॉ. अमर शेख़ और कॉ. गव्हाणकर इन तीन प्रमुख जनकवियों को महाराष्ट्र से आये तमाम किसान, मज़दूर, कास्तकार, कार्यकर्ता, प्रतिनिधि, आदिवासी और श्रमिकों ने जाना। इन तीन प्रमुख जनकवियों के गीतों और लोक नाटकों को लोगों ने काफ़ी सराहा। इस सम्मेलन में अन्नाभाऊ ने किसानों की समस्याओं और शिकायतों को व्यक्त करने के लिए ‘अकलेची गोष्ट’ नामक एक विशेष लोक नाटक लिखा था जिसे बाद में पूरे महाराष्ट्र में खेला गया और वह बहुत लोकप्रिय भी हुआ। 1943 से 1946 तक बंगाल में भीषण सूख़ा पड़ा। लोग भूख से मर रहे थे। इस दुखद घटना के बारे में बताने के लिए और लोगों को अपनी नाराज़गी व्यक्त करने और लोगों की मानवीयता का आह्वान करने के लिए अन्नाभाऊ ने 1944 में ‘बंगालची हाक’ (बंगाल की पुकार) नामक पोवाडा लिखा था।

 नाटकों में आम लोगों की जगह 

कॉ. अन्नाभाऊ, कॉ. अमर शेख़ और कॉ. गव्हाणकर अपने साथियों के साथ लाल बावटा कलापथक को लेकर बंगाल गये। वहां उन्होंने उस पोवाडे और गीतों के कई कार्यक्रम करके लाखों रुपये इकठ्ठा किये। यह पोवाड़ा इतना लोकप्रिय हो गया कि बंगाल में ‘इप्टा’ के कलाकारों ने इसका बांग्ला में अनुवाद किया और इसके कई कार्यक्रम किये और बाद में यह पूरे देश में लोकप्रिय हो गया। इस पोवाड़ा का बांग्ला में एल पी रिकॉर्ड भी आया। इतना ही नहीं, 'इप्टा' के कलाकारों द्वारा उसे लंदन के प्रसिद्ध रॉयल थिएटर में ‘बैले’ डांस नाटक के रूप में भी प्रस्तुत किया गया।

          कॉमरेड अन्नाभाऊ की ख़ासियत यह थी कि मुंबई का मज़दूर आंदोलन हो या चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कॉ. माओ के नेतृत्व में हुई सामाजिक क्रांति, इन सबसे उन्होंने अपने आपको जोड़ रखा था। जैसे 1946 में मुंबई में नाविकों का ऐतिहासिक विद्रोह, किसान आंदोलन, तेलंगाना के किसानों, निज़ामशाही और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष, विभाजन को लेकर पंजाब और दिल्ली में हुए दंगों, अमलनेर में पुलिस की गोलीबारी में शहीद होने वाले किसानों का सवाल,  हर एक अत्याचार को अन्नाभाऊ ने अपने गीतों, पोवाडे और जन नाटकों में लिखा है।

          1946 में अन्नाभाऊ अपनी कला मंडली के साथ अमलनेर गये और सरकार की अंधाधुंध गोलीबारी का विरोध किया। ‘मुंबईचा गिरणी कामगार’ (मुंबई के मिल वर्कर्स), ‘माझी मुंबई’ (मेरी मुंबई), ‘बोनसचा ढा’ (बोनस के लिए संघर्ष), ‘लवादाचा ऐका परकार’, शेटजीचे इलेक्शन (सेठ का चुनाव), ‘बेकायदेशीर’ (ग़ैरकानूनी) इत्यादि नाटकों में हाशिये पर धकेले गये समाज का चित्रण किया। वे अपने गीतों, पोवाडे, लोक नाटकों से मालिक-श्रमिक संबंध, पूंजीवादी लोकतंत्र, मज़दूर और किसानों के शोषण, धोखाधड़ी आदि पर प्रहार करते। अपने बहुचर्चित ‘मुंबई लावणी’ में, उन्होंने पूंजीपति, अमीर और ग़रीब के जीवन में अत्यधिक असमानता को दर्शाया है।

          जग बदल घालूनी घाव, (दुनिया बदल दे..) सांगून गेले मला भीमराव, (कह चले भीमराव) गीत में अन्नाभाऊ कहते हैं, ‘पूंजीपतियों ने हमेशा लूटा है, धर्मांधों ने छला है’, गीत में जाति और वर्ग के शोषण के ख़िलाफ़ डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के नाम पर, वे दलितों को चोट करने के लिए कहते हैं। कॉ. अन्नाभाऊ की कहानियां, उपन्यास के नायक और नायिकाएं भी विद्रोही और संघर्षशील हैं। उन्होंने दलितों, शोषितों, श्रमिक और उपेक्षित लोगों के नायकों को अपने साहित्य में सम्मानीय स्थान देने का बड़ा मौलिक काम किया है। उनके उपन्यास ‘फ़कीरा’ का नायक ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ विद्रोह करता है। उन्होंने इस प्रसिद्ध उपन्यास को डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर के उग्र लेखन के लिए समर्पित किया था। उपन्यास ने सर्वश्रेष्ठ साहित्य के लिए कई सरकारी पुरस्कार भी जीते। इसके अलावा, इप्टा  की मदद से, उस समय मराठी फ़िल्म उद्योग के प्रसिद्ध अभिनेताओं के साथ ‘फ़कीरा’ नामक फ़िल्म बनायी गयी थी। 

            जनकवि कॉ. गव्हाणकर ने फ़िल्म फ़ाइनेंस कॉरपोरेशन से वित्तीय कर्ज़ लेकर इसका निर्माण किया था। अन्नाभाऊ और जाने-माने पटकथा लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इसकी पटकथा लिखी थी और उसे कुमार चंद्रशेखर द्वारा निर्देशित किया गया था। इसके अलावा उनके कुछ उपन्यासों पर भी प्रदेश में फ़िल्में बनी हैं। उनका उपन्यास, चित्रा मुंबई के नाविकों के विद्रोह की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है और नायिका भी एक विद्रोही है। अन्नाभाऊ के सोवियत रूस जाने से पहले यानी 1961 में इसका रूसी में अनुवाद छपा था।

अन्नाभाऊ साठे न केवल एक साहित्यिक व्यक्ति थे, बल्कि एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भी थे, जिन्हें अक्सर ब्रिटिश और कांग्रेस अधिकारियों के क्रोध और दमन का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी, उन्हें भूमिगत रहना पड़ता था और जेल में डाल दिया जाता था। उनके कई लोक नाटकों पर भी सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था। अन्नाभाऊ एक कर्तव्यनिष्ठ पत्रकार भी थे। वे दलित-शोषितों और मेहनतकशों की दुर्दशा को पढ़ने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की, मशाल, लोकयुद्ध, युगांतर और अन्य साप्ताहिक पत्रिकाओं के लिए नियमित रूप से लिखते थे। वे पुस्तक और फ़िल्म समीक्षा भी लिखते थे। 1943 में मुंबई में स्थापित ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर असोसिएशन’ (इप्टा) की स्थापना में भी सहायक थे। 1949 में वे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।

          कॉमरेड अन्नाभाऊ ने मराठी में दलित और विद्रोही साहित्य की वैचारिक नींव रखी है। आधुनिक मार्क्सवादी विचारक एंटोनियो ग्राम्शी की, जो परिभाषा थी ‘जैविक बुद्धिजिवी’ वह अन्नाभाऊ पर भी लागू होती है। मराठी के प्रसिद्ध विद्रोही साहित्यकार बाबुराव बागुल उन्हें महाराष्ट्र का मैक्सिम गोर्की कहते थे।

          संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और इसके निर्माण में, अन्नाभाऊ के लाल बावटा कलापथक और उनके सहयोगी कॉ. अमर शेख़ तथा कॉ. गव्हाणकर ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया। लेकिन जिन जनवादी साहित्यकारों ने अपने लेखन और गीतों के माध्यम से देश और दुनिया में पीड़ितों, मज़दूरों, काश्तकारों, दलित-शोषितों के शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, उन्हें तथाकथित साहित्यिक तथा संस्कृति के ठेकेदार, तत्कालीन और वर्तमान अधिकारियों ने नज़रअंदाज़ किया।

 उपेक्षा की  वजह

महाराष्ट्र  में, पी. एल. देशपांडे, कुसुमाग्रज, (साहित्यकार) यशवंतराव चव्हाण के नाम पर अकादमिंयां और सरकारी संस्थाएं स्थापित की जाती हैं, अख़बारों में स्मरण दिन मनाया जाता है, विशेष अंक निकालते हैं, चैनलों पर चर्चा की जाती है। लेकिन जिनकी वजह से संयुक्त महाराष्ट्र अस्तित्व में आया उन कॉ. अमर शेख़, कॉ. अन्नाभाऊ साठे का जन्म शताब्दी वर्ष आया और चला गया, लेकिन न तो शासक और न ही तथाकथित महान संपादकों ने उन्हें याद किया।  इस तरह इन तीनों जन कलाकारों की घोर उपेक्षा की गयी।

          कॉ. अन्नाभाऊ, अमर शेख़ और गव्हाणकर के हिस्से में आयी उपेक्षा का मुख्य कारण यह है कि ये सभी लोकशाहीर यानी जनकवि निम्न समझी जाने वाली जातियों, धर्मों और वर्ग से आये थे। दूसरा कारण यह है कि वे उच्च जाति-वर्ग और शासकों के ख़िलाफ़ कम्युनिस्ट के रूप में एक मज़बूत भूमिका निभा रहे थे। यक़ीनन यह सच इनके लिए गले की हड्डी है। यही वजह है कि  मुंबई-महाराष्ट्र और देश के मेहनतकश लोग और लोक कलाकारों की ओर से इन तीनों की स्मृति में जन-कलाकारों का संयुक्त स्मारक मुंबई में खड़ा किया जाना चाहिए। इस जन्म शताब्दी वर्ष का अच्छा परिणाम तभी साबित होगा, जब हम अन्नाभाऊ साठे, अमर शेख़ और दत्ता गव्हाणकर के क्रांतिकारी विचारों को दैनिक संघर्ष के माध्यम से अमल में लायें। यही एकमात्र कॉमरेड अन्नाभाऊ साठे को क्रांतिकारी अभिवादन होगा।

मो. 9819996029 / 9322025263

मराठी से हिंदी अनुवाद कलीम अज़ीम, पुणे, महाराष्ट्र

 

 

 

 

 

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