कथेतर : यात्रा वृतांत

'सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल'

अनिरुद्ध कुमार

 हाल ही में आयीं तीन यात्रा-संस्मरण संबंधी पुस्तकों, दूर दुर्गम दुरुस्त (उमेश पंत), सियाहत(आलोक रंजन) और शिमला डायरी (प्रमोद रंजन) में भारत की विभिन्न संस्कृतियों को जानने-समझने का प्रयास किया गया है। दूर दुर्गम दुरुस्त पूर्वोत्तर भारत की यात्रा पर लिखी गयी है जबकि शिमला डायरी उत्तर भारत और सियाहत दक्षिण भारत की यात्रा पर लिखी गयी है। आलोक रंजन अपनी नौकरी के सिलसिले में दक्षिण भारत में जाते हैं और वहां के जीवन को क़रीब से जानने का प्रयास करते हैं। प्रमोद रंजन नौकरी की तलाश में उत्तर भारत के पर्वतीय क्षेत्र (शिमला) में जाते हैं जबकि उमेश पंत वर्षों से संरक्षित पूर्वोत्तर को जानने की इच्छा के कारण पूर्वोत्तर की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। जीवन की ज़रूरतों के अनुसार इन लेखकों की ये दृष्टियां भी इनकी पुस्तकों में भी वैसे ही देखने को मिलती हैं।

आलोक रंजन सियाहत के माध्यम से दक्षिण भारत के सांस्कृतिक जीवन को बड़ी खूबसूरती से सामने रखते हैं। दक्षिण भारतीय जन-जीवन और संस्कृति पर हिंदी में लिखी गयी यह एक बेहतरीन पुस्तक है। इसके माध्यम से वे केरल के सुंदर और सजीव सांस्कृतिक जीवन का चित्रण करते हैं। वहां की सड़कों, नदियों, बारिश, खेत-खलिहान खान-पान, रहन-सहन आदि का सुंदर चित्र खींचते हैं। बहुत क़रीने से हर एक चीज़ का वर्णन करते हैं जिसमें वहां की संस्कृति के प्रति सम्मान झलकता है, दक्षिण भारत आलोक रंजन के लिए कोई दूसरा देश-प्रदेश नहीं, बल्कि उन्हें अपना लगता है। उसी तरह प्रमोद रंजन भी हिमाचल को आत्मीयता से देखते-समझते हैं। उमेश पंत की, दूर दुर्गम दुरुस्त के बारे में यह कहना मुश्किल है। आलोक रंजन हिमाचल के लोगों के आयुर्वेद के ज्ञान की प्रशंसा करते हैं, जो लोगों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता आ रहा है। तीनों लेखकों ने खानपान के साथ ही  उनके आतिथ्य भाव की भी तारीफ़ की है, जिसका अभाव उत्तर भारत में दिखायी देता है।

 1. सियाहत

मलयालम कवि ओ. एन. वी. कुरुप की मृत्यु के बाद उनकी श्रद्धांजलि में जगह-जगह लगे पोस्टरों और पान, ताड़ी की दुकानों पर हो रही चर्चा को देखकर लेखक महसूस करता है कि एक कवि की पहुंच कितनी हो सकती है : ‘बीकौज़ ही वाज़ ए पोयट ऑफ़ ओर्डिनरी मैन विद ओर्डिनरी आइडियास’। ये पंक्तियां ताड़ी की दुकान पर बैठे हुए लोगों से लेखक को उस जनकवि के बारे में सुनने को मिलती हैं। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस संस्कृति में कवि और उसके पाठकों का क्या संबंध है! आलोक रंजन इन सबके माध्यम से वहां के लोगों के सांस्कृतिक जीवन को दिखाते हैं। आलोक रंजन ने अपनी यात्राओं के दौरान देखा कि केरल में लोग सिर्फ़ अपने बारे में ही नहीं, बल्कि प्रकृति के बारे में भी सोचते हैं और जंगल के भीतर रहने वाले जानवरों की सुरक्षा के बारे में भी सोचते हैं। ऐसा पूर्वोत्तर भारत में भी देखने को मिलता है। केरल का मरायूर चंदन की लकड़ी के लिए प्रसिद्ध है और वहां जाने के बाद लेखक को पता चलता है कि रहीम के दोहे वाली बात मिथकीय है कि 'चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग'। वहां पहुंच कर लेखक ने जाना कि चंदन के पेड़ पर सांप होते ही नहीं। रहीम के दोहे की बात सुन कर वहां के लोग खूब हंसे। आलोक रंजन ने दक्षिण भारत के प्रसिद्ध समुद्र तटों गुंटूर, कन्याकुमारी, कोवलम, वर्कला, ओम आदि का भी बड़ा ही मनोरम दृश्य पाठकों के सम्मुख उकेरा है। पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि सचमुच सारे समुद्र तट सामने ही विद्यमान हैं। ईसाई धर्म को लेकर लेखक के मन का पूर्वग्रह तब दूर हो जाता है जब वे केरल के एक क़स्बे में ईसाई धर्म को क़रीब से देखते हैं।

दक्षिण से उत्तर भारत की रेल यात्रा के समय वे बताते हैं कि रेल में आरक्षित सीटों पर लोकल सवारियों का अनारक्षित टिकट लेकर बैठना उत्तर भारत के जैसा ही है, किंतु उत्तर भारतीय नवयुवकों की लफंगई और छेड़छाड़ वहां कहीं नहीं है। यहां तक कि पूर्वोत्तर भारत में भी नहीं। केरल के साथ साथ ही आलोक रंजन आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के जीवन और संस्कृति का चित्रण करते हैं। वे एन.एच.-49 के अंतिम छोर पर तमिलनाडु राज्य के अंतर्गत पड़ने वाले धनुष्कोटि नामक बस्ती जो कि भीषण चक्रवाती तूफ़ान के कारण अब खंडहर हो चुकी है, की यात्रा भी करते हैं।

'तेरा' गांव के रहने वाले 22 वर्षीय सुगु से न्योता पाकर लेखक आदिवासी गांव में एक मेहमान की तरह प्रवेश करते हैं और वहां सुगु की मां के हाथों का परोसा हुआ खाना उसी रवायत के साथ पाते हैं जैसे हर जगह की मां खिलाती है। ‘तेरा’ गांव की यात्रा एक ऐसी कठिन यात्रा थी जिसमें अनेक पहाड़, नदी और जंगल पार करके खेत खलिहानों के रास्ते हाथियों के झुंडों से बचते पैदल भी रास्ता तय करना पड़ा था। आलोक रंजन ‘तेरा’ गांव के आदिवासी जीवन का, उनके रहन सहन का,आतिथ्य का, खेल-नृत्य का  मोहक चित्रण करते हैं। वहां के लोगों की आत्मीयता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां से लौटने के समय जब जीप नहीं मिली तो गांव के लोग दुर्गम रास्तों को पार करते हुए इन्हें सकुशल नदी तक छोड़ने साथ-साथ आये थे।

आलोक रंजन उत्तरी कर्नाटक की भी यात्रा करते हैं और होसपेट(हम्पी), ऐहोल, बीजापुर, बादामी, की यात्राओं का वर्णन करते हैं। कृष्णदेव राय के विजय नगर साम्राज्य के हम्पी पहुंचकर वहां के सूर्योदय का चित्र उकेरते हैं। वहां से भालुओं के अभयारण्य को देखने के लिए आलोक रंजन 60 किमी. आने जाने की अद्भुत रोमांचकारी साइकिल यात्रा करते हैं। इन सारे अनुभवों को पढ़ते हुए ही रोमांच हो आता है। आलोक रंजन ने दक्षिण भारत की एक मुकम्मल तस्वीर पेश की है। जैसा देखा, जैसा महसूस किया बिलकुल वैसी ही तस्वीर। यात्राकारों के लिए यह एक ज़रूरी बात होती है कि यात्रा के दौरान वे वहां की संस्कृतियों का निरपेक्ष चित्रण करें बिना किसी पूर्वग्रह के और आलोक रंजन ने इसे बेहतर ढंग से निभाया है।

 2. दूर दुर्गम दुरुस्त

उमेश पंत की दूर दुर्गम दुरुस्त कहने को तो पूर्वग्रहों के पार पूर्वोत्तर की यात्रा है लेकिन वे उत्तर भारत के श्रेष्ठतावादी पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं हो सके हैं। लेखक टूरिस्टों की भांति ही पूर्वोत्तर के बारे में पूर्वग्रहों से प्राप्त संशय, भय एवं अहंकार से हमेशा ग्रसित रहते हैं। पूर्वोत्तर के बारे में ज़्यादातर बातें लेखक ने पूर्वोत्तर की यात्रा करने वाले अपने साथियों, अंकुर और राजन, से प्राप्त जानकारियों के आधार पर लिखी हैं। लेकिन पूर्वोत्तर के बारे में बताये गये तथाकथित इतिहास की पड़ताल करना आवश्यक नहीं समझा। यात्रा आरंभ करने के समय ट्रेन में पूर्वोतर भारत के उस लड़के का जो कि अच्छी ख़ासी हिंदी बोल रहा था, उत्तर भारतीय लोगों के साथ शामिल न होना, अलगाववाद के कारण नहीं था बल्कि उसकी अपनी शांति भंग न हो, इस कारण था। पूर्वोत्तर का जीवन बहुत शांतिप्रिय है और यहां के जीवन में ख़लल मुख्य भूमि के लोग और वहां की सेना डालती है जिसे वे बाहरी कहते हैं।

उमेश पंत न जाने क्यों अपनी पूरी यात्रा के दौरान भय और संशय से ग्रस्त दिखते हैं। उनके इस भय का कारण पूर्वोत्तर के बारे में व्याप्त कथित  अलगाववाद की भ्रामक समझ है। लेखक पूर्वोत्तर के बारे में अनजान हैं, यह स्वीकार तो करते हैं लेकिन उनके भय के कारण उनके पूर्वग्रह ही हैं, उसी भय के कारण ही शाम ज़्यादा हो जाने के कारण वे अकेले कामाख्या मंदिर देखने नहीं जाते और बस से उतर जाते हैं। बाद में दोस्त अंकुर के आ जाने के बाद वे ओला टैक्सी में बैठकर मंदिर देखने जाते हैं। गुवाहाटी के जीवन को लेखक बड़े ही अचंभित भाव से देखते हैं जिसकी उत्तर भारत में कल्पना ही नहीं की जा सकती। स्त्रियों के प्रति वहां वैसा पूर्वग्रह नहीं है, जैसा उत्तर भारत में देखने को मिलता है। यहां की महिलाओं के आत्मविश्वास को लेखक कुछ इस तरह से कलमबद्ध करते हैं : ‘सड़कों पर शांति मार्च करते हुए भी उनके चेहरे पर वही आत्मविश्वास दिखता है, जो रात के आठ बजे सिटी बस में बेखौफ़ चढ़ते-उतरते हुए। यहां सड़कें महिलाओं को एक अदृश्य डर का आवरण अपने चेहरे पर ओढ़ने को मजबूर नहीं करतीं। उनके होठों पर कितनी गहरी लिपस्टिक है इससे सामने वालों की नज़रों पर कोई असर नहीं होता’। वास्तव में, सिर्फ़ इस मामले में ही नहीं, हर मामले में संपूर्ण पूर्वोत्तर भारत संपूर्ण उत्तर भारत से ज़्यादा प्रगतिशील है। और इसका श्रेय यहां की माताओं को जाना चाहिए जिन्होंने यहां के पुरुषों को बचपन से ही इंसान बनना सिखाया।

लेखक ने पूर्वोत्तर को समझने के लिए दो बार यात्रा की। पहली यात्रा लगभग 20 दिन की रही जिसमें वे गुवाहाटी, शिलांग, तेज़पुर, तवांग, जोरहाट, माजुली, का सफ़र करते हैं। लेकिन पूर्वोत्तर की सांस्कृतिक विविधता इतनी विशाल है कि कुछ महीनों के बाद लेखक पूर्वोत्तर को जानने के लिए दूसरी बार यात्रा करते हैं जिसमें वे गुवाहाटी से दिमापुर, कोहिमा, किग्विमा, किसामा, जूको वैली, इम्फ़ाल, आदि जगहों का सफ़र करते हैं। लेखक द्वारा ज़्यादातर वे ही जगहें देखी गयी हैं, जो दूर दूर के पर्यटक देखने आते हैं। जैसे कि मावलीलॉन्ग गांव, रूट ब्रिज, चेरापूंजी, बांग्लादेश से सटा डावकी बार्डर, माजुली नदी द्वीप, जूको वैली इत्यादि। लेकिन इन सब जगहों की यात्रा करके आप पूर्वोत्तर भारत की संस्कृति को क़रीब से नहीं जान सकते, हां ऊपर ऊपर से सिर्फ़ देख भर सकते हैं। पूरी यात्रा में लेखक के अंदर हमेशा एक आशंका, एक भय बैठा रहता है, कि कहीं उन्हें कोई ठग न ले, कोई नुक़सान न पहुंचा दे। जबकि पूर्वोत्तर ने इसके उलट उनका आत्मीय स्वागत किया। स्त्री-पुरुष की सीमा के परे लोगों ने इन्हें भटकने पर हमेशा सही रास्ता बताया।  यह ही पूर्वोत्तर की ख़ास बात है। निश्छल जीवन जिसमें उन सबके लिए भरपूर प्यार है जो उन जैसे ही निश्छल हैं। पूर्वोत्तर के बारे में लेखक ने यहां के लोगों के बजाय ज़्यादातर उन लोगों के ज़रिये जाना जो खुद उत्तर भारत से हैं जिनमें इनके कुछ दोस्त, रास्ते में मिले लोग, टैक्सी के ड्राइवर आदि हैं, जो पूर्वोत्तर के बारे में अपनी-अपनी राय रखते हैं। इन जगहों की खूबसूरती के साथ-साथ यहां रहने वाले लोग भी वैसे ही मन से भरपूर खूबसूरत हैं।

किताब में दिये गये संदर्भों से इस बात का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इसे लिखने में किस प्रकार के संदर्भों का सहारा लिया गया है। पुस्तक में दिये गये पूर्वोत्तर भारत का ज़्यादातर इतिहास इंटरनेट या विक्कीपीडिया से लिया गया है, जिनकी प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध बनी रहती है। अच्छा होता यदि लेखक खुद से पूर्वोत्तर के इतिहास, संस्कृति, समाज आदि के बारे में लिखी श्रेष्ठ लेखकों की बेहतर किताबें पढ़कर जाता और यहां के दूर-दराज़ में रहने वाले लोगों से बात करके यहां के जन-जीवन को जानने का प्रयास करता।

3. शिमला डायरी

आलोक रंजन के सियाहत की ही तरह प्रमोद रंजन उत्तर भारत के जन-जीवन और संस्कृति को शिमला डायरी के माध्यम से सामने लाते हैं। प्रमोद रंजन की शिमला डायरी मात्र डायरी नहीं है। पांच खंडों में लिखित डायरी के रूप में यह पुस्तक डायरी के साथ-साथ ही कविता, कहानी, आलोचना, टिप्पणियां और हिमाचल के मौखिक इतिहास का अनोखा दस्तावेज़ भी है। पहाड़ों की ओर लोग प्रायः घूमने-फिरने या शांति की तलाश में जाते हैं। प्रमोद रंजन पहाड़ों की ओर स्वप्नों की तलाश में गये थे, न कि हिमालय में मुक्ति पाने के लिए, जैसाकि धार्मिक प्रवृत्ति के लोग जाते हैं। इन पहाड़ों से ही वे अपने लेखकीय और पत्रकार जीवन के संघर्ष का आरंभ करते हैं। तेरा गांव में जैसे सुगु ने आलोक रंजन को वहां की दुनिया से रूबरू करवाया था, वैसे ही यहां मंडी शहर के रहने वाले सैन्नी अशेष ने प्रमोद रंजन को जीवन की वास्तविकताओं से अवगत कराया। अपने हिमाचल प्रवास के बारे में प्रमोद रंजन लिखते हैं कि  ‘यह कहानी मेरे हिमाचल प्रवास तक सीमित है भी नहीं। इसके सिरे हमारे समय की उन विडंबनाओं से भी जुड़ते हैं, जो बहुसंख्यक आबादी की नैसर्गिक आज़ादी छीन रही हैं और उन्हें एक अंतहीन दौड़ में शामिल रहने के लिए विवश कर रही हैं। यह शिमला डायरी उसी के प्रतीकार को दर्ज़ करने कि एक कोशिश है’।  

शिमला प्रवास के दौरान पत्रकार बनने से पूर्व प्रमोद रंजन अपने गहन अध्ययन को जारी रखते हुए लगातार कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं और उन पर अपनी टिप्पणियां दर्ज़ करते हैं। मसलन, प्रमोद रंजन 2005 में ही पत्रकारिता के घिनौने पक्ष को उजागर करते हुए कहते हैं, ‘पत्रकारिता का पूरा माहौल इस तरह का है कि जीना है तो किसी न किसी का पालतू बनना ही पड़ेगा- अब यह आप पर निर्भर करता है कि इस श्रेणीबद्ध पालतू शृंखला में आप स्वयं को कहां-कितना ऊपर या नीचे फ़िट कर पाते हैं! यह पेशा बेहद तेज़-तर्रार, शातिर पालतुओं के आधिपत्य में है’। कहना न होगा कि आज के समय में पत्रकार चाटुकार हो गया है और पत्रकारिता चाटुकारिता। लेकिन प्रमोद रंजन तब भी अडिग हैं और उन्हें यह चाटुकारिता स्वीकार्य नहीं। 15 वर्ष पूर्व कही हुई लेखक की यह बात कितनी सटीक और सत्य है, इसका अंदाज़ा हम आज की पत्रकारिता को देखते हुए सहज ही लगा सकते हैं। पत्रकारिता का स्तर अब कहां है, यह किसी से छुपा नहीं है- ‘दूसरी ओर, दैनिक भास्कर के लिए नये ब्यूरो प्रमुख के साथ मैं किसी क़ीमत पर काम करने के लिए तैयार नहीं। उसने दफ़्तर ज्वाइन करते ही सभी पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था : ‘काम करना हो तो करें, नहीं तो अभी बाहर जायें। अभी के अभी 2-2 हज़ार पर 10 रिपोर्टर रख लिये जायेंगे। ...शहर को फ़ोकस करें। लड़कियों के बिंदास फ़ोटो लायें। पारिचर्चाएं करें। चमकते चेहरों की। यह नहीं कि किसी एससी/एसटी की फ़ोटो ले आयें..’। यह 15 वर्ष पूर्व दर्ज डायरी की बात है। संघर्ष ऐसे ही संघर्ष नहीं कह दिया जाता। संघर्षों की ये स्मृतियां लेखक के मन में ऊभ-चूभ मचाती रहती हैं। हर सच्चे लेखक के साथ ये मनःस्थितियां आती हैं : ‘दिमाग़ में कई जुमले कौंध रहे हैं : सड़क किनारे पकौड़ी बेचने से लेकर इस देश को चलाने तक कुछ और भी कर सकता हूं, डॉक्टर ने तो कहा नहीं कि पत्रकार ही बनूं।...मुझे मूर्ख बनाते हुए आप यह समझें कि मैं एकदम मूर्ख हूं, इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है? ...विवाद फैलाना चाहते हो तो खरा-खरा सच लिख दो, बस। सच से ज़्यादा विवादास्पद कुछ नहीं होता।... पत्रकारिता में सफल होने का एक नुस्ख़ा : चुप्पा बनो। पक्ष-विपक्ष में कुछ भी बोलने से परहेज़ रखो’।

प्रमोद रंजन इन सब परिस्थितियों से हार नहीं मानते और अगली सुबह फिर से कमर कस कर तैयार हो जाते हैं। पत्रकारिता के संघर्ष के इन्हीं दिनों, मशहूर हिंदी दैनिक, दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक के द्वारा, बिहारीपन के ऊपर किये गये टोंट 'यह बिहारी कहां जा रहा है' के माध्यम से प्रमोद रंजन समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त क्षेत्रीयता के वर्चस्व की ओर इशारा करते हैं। अपनी डायरी के माध्यम से प्रमोद रंजन व्यक्ति, परिवार और समाज के संदर्भों में परिवारों में व्याप्त भारतीय सामंती मानसिकता को दर्शाते हैं, जो हमारे देश की नस-नस में व्याप्त है। 1 मई, मज़दूर दिवस के दिन घास पर खिले छोटे छोटे सफ़ेद फूलों के बिंबों के माध्यम से वे मज़दूर जीवन की ऊर्जा को महसूस करते हैं। पत्नी द्वारा बेटी के कान-छेदन जैसी ग़ैरज़रूरी परंपरा का पारिवारिक स्तर पर विरोध इनके सशक्त स्त्री विमर्श को दर्शाता है। अपने इन्हीं विचारों के माध्यम से वे ईश्वरीय धारणा के बरक्स वैज्ञानिक और वास्तविक सोच पर ज़ोर देते हैं।

डायरी के दूसरे खंड में प्रमोद रंजन ने कई कविताएं और एक कहानी लिखी है। ये कविताएं आधुनिक जीवन संघर्षों और विमर्शों के मध्य गोते लगाते एक आधुनिक मनुष्य की जीवन गाथाएं हैं, जिनके माध्यम से वे इस समाज में सदियों से व्याप्त जात-पांत, छुआछूत और धार्मिक कुप्रथाओं पर बड़े ही दार्शनिक तरीक़े से प्रहार करते हैं। उनकी कविताओं में परिवार एक पतवार की तरह हमेशा उनके साथ मौजूद मिलता है। इनकी कविताओं में राजनीतिक व्यंग्य भी खूब देखने को मिलता है ... 'शिमला में हिमपात' कविता में प्रमोद रंजन लिखते हैं :

ठंड बढ़ रही है

बादलों को पुकार रहे देवदार

आज बर्फ़ गिरेगी

धोती में लिपटे बापू

इंदिरा ने भी नहीं डाला पल्लू

हाय इन्हें तो ठंड लगेगी

आज बर्फ़ गिरेगी

डायरी में 'रामकीरत की रीढ़' नाम से पत्रकारिता के जीवन को बेबाक़ी से चित्रित करने वाली एक दिल छू लेने वाली कहानी है।

डायरी का तीसरा खंड आलोचना को समर्पित है जिसमें समकालीन कवियों केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, पवन करण, गगन गिल, मिथिलेश श्रीवास्तव, कुलराजीव पंत, अनूप सेठी  और अन्य लेखकों पर टिप्पणीपरक लेख हैं। अपनी आलोचना में प्रमोद रंजन हिमाचल में हिंदी की दशा एवं दिशा पर गंभीर विचार करते हैं। कहना न होगा कि ये टिप्पणियां इन रचनाकारों के गूढ़ रचनाकर्म और व्यक्तित्व को उद्घाटित करती हैं।

डायरी के चौथे खंड में समाचार पत्रों के लिए लिखी गयी टिप्पणियां हैं जिनके माध्यम से प्रमोद रंजन ने शिमला में हुए नाटकों के मंचन, संगोष्ठियों और अन्य साहित्यिक गतिविधियों का आकलन किया है।

पांचवें खंड में प्रमोद रंजन हिमाचल के उन दुर्गम क्षेत्रों की यात्रा करके हिमाचल के मौखिक इतिहास को संजोने का प्रयास करते हैं जिनकी भौगोलिक स्थिति, समाज-व्यवस्था और संस्कृति दुनिया के अन्य हिस्सों से अलग है। ये इलाक़े भारी बर्फ़बारी के कारण साल में लगभग आठ महीने दुनिया के अन्य हिस्सों से कटे रहते हैं। इनमें किन्नौर, लाहौल स्पीति और चंबा के पांगी क्षेत्र प्रमुख हैं। इन क्षेत्रों में मुख्यतः बौद्ध धर्म प्रचलित है लेकिन साथ ही प्राचीन काल से चला आ रहा बहुदेववाद भी उतना ही प्रभावी है। यहां का बहुदेववाद आधुनिक हिंदू धर्म से अलग है तथा हिमालय की विशिष्ट आदिवासी परंपराओं का हिस्सा है। लेखक ने इन क्षेत्रों के दर्जनों स्थानीय लोगों से लंबी बातचीत की तथा उनके माध्यम से उन लोगों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की विशिष्टताओं को दर्ज किया है। मौखिक इतिहास के इस खंड में चार साक्षात्कारों के रूप में उस संपूर्ण क्षेत्र के जन-जीवन को सिलसिलेवार पेश करने का प्रयास किया है। पुस्तक का मौखिक इतिहास वाला यह खंड काफ़ी रोचक लगता है। निश्चय ही यह लेखक की अन्य संस्कृतियों के प्रति जागरूकता को दर्शाता है। और हम सबको यह जानना भी चाहिए कि मुख्य भूमि से दूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों का जीवन कैसा होता है, जैसे कि किन्नौर में बहु-पति प्रथा पायी जाती है। साथ ही इन साक्षात्कारों के माध्यम से महायान के विश्वासों, वंचित समुदाय के प्रति उसके नज़रिये तथा बहु-पति प्रथा में स्त्रियों की दयनीय स्थिति का भी पता मिलता है। इन साक्षात्कारों में इन क्षेत्रों में बने जोमो गोम्पा में भिक्षुणियों पर लगी पाबंदी और कर्मकांडों की भी चर्चा है। शिमला डायरी वास्तव में साहित्य की एक उपलब्धि है। यह एक लेखकीय जीवन के संघर्षों और उसके साहित्यिक अवदानों का इस्पाती दस्तावेज़ है। 

 इन सभी लेखकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतवर्ष के अलग-अलग क्षेत्रों की संस्कृतियों को दिखाने का सार्थक प्रयास किया है। तमाम जोख़िम और बाधाओं को उठाकर इन लेखकों ने भारत के विभिन्न समाजों और संस्कृतियों का चित्रण करके उनमें एकरूपता तलाशने का जो सराहनीय प्रयास किया है उसके लिए ये साधुवाद के योग्य हैं। इनकी रचनाएं आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए निश्चय ही प्रेरणा का कार्य करेंगी और जीवन को अनेक आयामों में देखने और उन्हें स्वीकार करने का मार्ग प्रशस्त करेंगी।

मो. 9435298492

पुस्तक संदर्भ

1. सियाहत : यात्राएं ख़त्म नहीं होतीं : आलोक रंजन, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2018

2. दूर दुर्गम दुरुस्त (पूर्वग्रहों के पार पूर्वोत्तर की यात्रा) : उमेश पंत, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2020

3. शिमला डायरी: प्रमोद रंजन, मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, 2019

 

 

 

   

 

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