कोरोना काल : प्रवंचनाओं के संदर्भ-4


    कोरोना-काल में पूंजीवाद : संकट बनाम अवसर
जवरीमल्ल पारख

12 मई 2020 को राष्ट्र के नाम संदेश देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने 20 लाख करोड़ के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा करते हुए कोरोना महामारी के इस भयावह दौर को अवसर में बदलने का आह्वान किया था। जब लॉकडाउन के पहले चरण की घोषणा की थी, तब उन्होंने देशवासियों को विश्वास दिलाया था कि अगले 21 दिन में कोरोना महामारी के विरुद्ध लड़ाई जीत ली जायेगी। कोरोना महामारी से ग्रसित मरीज़ों का इलाज करने वाले डॉक्टरों और नर्सों को इस लड़ाई के योद्धाओं का ख़िताब दिया गया और उनके उत्साहवर्द्धन के लिए ताली और थाली भी बजायी गयी। यह तक कहा गया कि महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीत लिया गया था, कोरोना के विरुद्ध युद्ध को 21 दिन में जीत लिया जायेगा। लेकिन बारबार लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने के बावजूद महामारी का प्रकोप बढ़ता चला गया और जब साफ़ हो गया कि उनके किये यह महामारी क़ाबू में नहीं आयेगी, तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि यह महामारी जल्दी जाने वाली नहीं है, इसलिए जनता को इसके साथ जीने की आदत डालनी होगी। आरएसएस के जिस विभाजनकारी एजेंडे को नरेंद्र मोदी अपने शासन के पहले कार्यकाल में हिचकिचाते हुए लागू कर रहे थे और दूसरे कार्यकाल के पहले साल में जिसने तेज़ रफ़्तार पकड़ ली थी, यह महामारी उसे निर्णायक नतीजों तक पहुंचाने का शुभ अवसर है, इसे समझने में उन्होंने देरी नहीं की।
उन्होंने जान लिया था कि आज़ादी के सत्तर सालों में जो भी जनता के हित में क़दम उठाये गये थे, संविधान के द्वारा भारतीय नागरिकों को जो भी लोकतांत्रिक अधिकार दिये गये थे, किसानों और मज़दूरों को शोषण और उत्पीड़न से बचाने के लिए जो नियम-क़ायदे बनाये गये थे, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और महिलाओं को बराबरी के स्तर पर लाने के लिए जो भी क़दम उठाये गये थे और धार्मिक अल्पसंख्यकों को संविधान के तहत बराबरी का हक़ और सुरक्षा प्रदान की गयी थी, उन सबको कुचलने और ख़त्म करने का जो अभियान पिछले छह सालों से चल रहा था, अब उसे निर्णायक बिंदु तक पहुंचाने का सही समय आ गया है। इसी अर्थ में वे ‘अवसर’ की बात कर रहे थे। अपने वास्तविक इरादों को छुपाने की कोशिश करने के बावजूद उनकी ज़बान पर उनके इरादे यदा-कदा आ ही जाते हैं। अवसर शब्द ने भी उनके वास्तविक इरादों को नंगे रूप में सामने ला दिया है। उन्होंने उद्योगपतियों और व्यापारियों की संस्था को संबोधित करते हुए जब सख़्त फ़ैसले लेने की बात कही, तब उनका इशारा उन फ़ैसलों की तरफ़ ही था, जिसके तहत देशी-विदेशी उद्योगपतियों और निगमों को बिना किसी क़ानूनी अड़चन और जवाबदेही के अपना व्यवसाय करने की छूट हो। उनकी प्रतिद्वंद्विता में कोई भी सार्वजनिक कंपनी और निगम न हो, न कोई क़ानून और न कोई संगठन। निजी क्षेत्र को दी जाने वाली इस छूट का दुष्परिणाम भले ही जनता के बड़े हिस्से को भुखमरी, बदहाली और बेरोज़गारी के रूप में भुगतना पड़े, जैसाकि पिछले छह सालों में भुगत रही है।
आज दुनिया के दो सौ से अधिक देशों में कोरोना वायरस से संक्रमित महामारी फैल चुकी है। महामारी को फैले हुए छह माह हो चुके हैं और अभी इसके समाप्त होने या कमज़ोर पड़ने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। यह एक संक्रमित बीमारी है और एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में आसानी से फैल सकती है। इस महामारी से बचने का सबसे कारगर उपाय यही प्रतीत होता है कि दूसरे व्यक्तियों के नज़दीक संपर्क में न आया जाये। नतीजा यह हुआ कि बहुत से देशों की सरकारों ने व्यापक पैमाने पर लॉकडाउन (तालाबंदी) लागू करने का फ़ैसला लिया। लेकिन लॉकडाउन की प्रकृति सभी देशों में एक सी नहीं थी। कहीं लॉकडाउन को सख़्ती से लागू किया गया और कहीं नरमी से। कुछ ने पूरे देश में लॉकडाउन लागू किया, तो कुछ ने उन क्षेत्रों में, जो महामारी से ज़्यादा प्रभावित थे। इस लॉकडाउन ने महामारी से प्रभावित लगभग सभी देशों की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया। तुलनात्मक रूप से देखने पर साफ़ हो जाता है कि भारत में लॉकडाउन की प्रकृति बहुत अधिक कठोर और सामान्य लोगों के जन-जीवन को तहस-नहस करने वाली साबित हुई।
चीन जिसकी जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक एक अरब 40 करोड़ है और ऐसा माना जाता है कि जहां से महामारी की शुरुआत हुई, वहां शुरू के तीन महीने में ही महामारी तेज़ी से फैली और मरीज़ों की संख्या 81 हज़ार से ऊपर पहुंच गयी और मरने वाले की संख्या भी इस अवधि में 3300 से पार जा चुकी थी, लेकिन बाद के लगभग तीन महीनों में केवल ढाई हज़ार बीमार बढ़े और मरने वालों की संख्या भी 1300 के आसपास ही बढ़ी। दूसरा उदाहरण क्यूबा का लिया जा सकता है, जिसकी जनसंख्या 1.15 करोड़ है, वहां पहला मामला 15 फ़रवरी को आया था और चार महीने में 2300 से कुछ ही ज़्यादा मरीज़ थे और मरने वालों की संख्या केवल 85 थी। इससे कुछ अलग उदाहरण वियतनाम का नहीं है, जिसकी आबादी 9.55 करोड़ है और जिसकी विस्तृत सीमा चीन से लगती है। वियतनाम में भी पहला मामला 15 फ़रवरी को आया था, वहां चार महीने में 352 मरीज़ पाये गये और कोविड-19 से वहां एक भी मौत नहीं हुई।
इसके विपरीत अगर हम अमरीका और यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों के उदाहरण लें, तो स्थिति ज़्यादा भयावह नज़र आती है। अमरीका जिसकी आबादी लगभग 33 करोड़ है, वहां फ़रवरी की शुरुआत से मामले सामने आने शुरू हो गये थे और कुछ ही दिनों में मामले तेज़ी से बढ़ने लगे। 24 जून तक यानी चार महीने में मरीज़ों की संख्या 24 लाख 62 हज़ार को पार कर गयी थी और इसी अवधि में मरने वालों की संख्या एक लाख 24 हज़ार को पार कर चुकी थी। इस तरह दुनिया का सबसे धनी और शक्तिशाली देश इस महामारी के मामले में भी सबसे आगे था। पश्चिमी यूरोप के देश भी अमरीका से बहुत पीछे नहीं थे। स्पेन, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों में मरीज़ों और मरने वालों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात से बहुत ज़्यादा है। जबकि ये सभी देश आर्थिक  दृष्टि से समृद्ध और संसाधनों की दृष्टि से संपन्न हैं। रूस में भी महामारी का प्रकोप तेज़ी से बढ़कर मरीज़ों की संख्या छह लाख को पार कर चुकी है। ब्राज़ील जिसकी जनसंख्या 21.25 करोड़ है, वहां महामारी की शुरुआत मार्च के पहले सप्ताह से होने लगी थी और चार महीने में वहां मरीज़ों की संख्या बढ़कर 11 लाख 90 हज़ार से ज़्यादा और मरने वालों की संख्या भी 53 हज़ार से ज़्यादा हो चुकी थी।
दरअसल, यह महामारी किस देश में किस हद तक फैली है और कितने लोग मारे गये हैं, इसका सीधा संबंध सिर्फ़ इस बात से नहीं है कि वहां जन स्वास्थ्य सेवा किस हद तक इस तरह की महामारी का मुक़ाबला करने में सक्षम है, बल्कि इस बात से ज़्यादा है कि उस देश की शासन व्यवस्था किस हद तक महामारी का मुक़ाबला करने के लिए कटिबद्ध है। क्यूबा और वियतनाम का उदाहरण बताता है कि अपेक्षाकृत ग़रीब देश होने के बावजूद केवल तत्परता, संकल्प और सामूहिक सक्रियता के बल पर दोनों देश इस महामारी से अपने नागरिकों को बचाने में कामयाब रहे। इसके विपरीत अमरीका, ब्राज़ील, रूस, भारत, ब्रिटेन जैसे देश इस महामारी के गहरे शिकार बनते गये। इसमें इन देशों के शासक वर्ग के चरित्र और जनता के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी की भावना के अभाव की अहम भूमिका है। अमरीका, ब्राज़ील, रूस, भारत जिन चार देशों में यह महामारी सबसे ज़्यादा फैल चुकी है, उनकी सामान्य विशेषता यह है कि इन सभी देशों में आज ऐसी पार्टियां और शासक शासन कर रहे हैं जिनका लोकतंत्र में यक़ीन न्यूनतम है। अमरीका में डोनाल्ड ट्रंप, ब्राज़ील में जैर बोल्सेनारो, रूस में व्लादिमिर पुतिन और भारत में नरेंद्र मोदी की नीतियां न केवल अतिदक्षिणपंथीं हैं बल्कि इनका रवैया तानाशाहीपूर्ण और जनता की क़तारों में नस्ल, जातीयता और सांप्रदायिकता के आधार पर फूट डालने का रहा है। अपने-अपने ढंग से ये सभी हिटलर के वंशज हैं। इन सभी ने महामारी की आरंभिक चेतावनियों को जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया और बाद में महामारी के विरुद्ध ऐसे क़दम उठाये जिनसे जनता की मुश्किलें और अधिक बढ़ीं। यह भी संयोग नहीं है कि यूरोप के अधिकतर देशों में अतिदक्षिणपंथी पार्टियां शासन कर रही हैं और यही वजह है कि इन देशों को महामारी पर नियंत्रण रखने में काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
अगर हम अपने देश भारत का उदाहरण लें, जहां 30 जनवरी को पहला मामला सामने आया था और जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया था कि यह महामारी उन लोगों के द्वारा भारत में प्रवेश कर रही है, जो विदेश से भारत आ रहे हैं। इसके बावजूद 22 मार्च तक जब हवाई सेवाएं पूरी तरह से बंद कर दी गयी थीं, सरकारी आंकड़ों के अनुसार 15 लाख से अधिक लोग विदेशों से भारत आ चुके थे। भारत में कुल 22 अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं। इन पर विदेश से आने वाले यात्रियों की न केवल पूरी जांच की जा सकती थी बल्कि ज़रूरत के अनुसार उन्हें क्वारंटीन भी किया जा सकता था। लेकिन मार्च के प्रथम सप्ताह तक तो विदेश से आने वाले किसी भी यात्री की किसी तरह की जांच नहीं की गयी।  लॉकडाउन का पहला चरण लागू होने से महज़ दस दिन पहले हवाई अड्डों पर यात्रियों का तापमान लिया जाने लगा और उसके बाद उनको अपने गंतव्य की ओर जाने दिया गया। उन्हें परामर्श दिया गया कि वे 14 दिन क्वांरटीन में रहें, जिसे किसी ने गंभीरता से लेना ज़रूरी नहीं समझा। इस तरह इन विदेश से आने वाले लोगों को जानबूझकर शेष जनता के बीच जाने और उनके बीच संक्रमण फैलाने का अवसर दिया गया। कारण यह था कि फ़रवरी के अंतिम सप्ताह में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लाव लश्कर के साथ भारत यात्रा पर आने वाले थे और उनके वापस लौटने तक सरकार ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना चाहती थी, जो अमरीका जैसे शक्तिशाली देश को नाराज़ करने वाला हो। ट्रंप के स्वागत में अहमदाबाद में भव्य समारोह किया गया जिसमें  लाख-दो लाख से अधिक लोग शामिल हुए। ट्रंप इसके बाद आगरा भी गये और बाद में दिल्ली भी। ट्रंप के लौटने के बाद भी सरकार जनता को भुलावे में रखे रही। 13 मार्च को केंद्र सरकार द्वारा जारी एक बयान में कहा गया कि कोरोना महामारी से चिंता की बात नहीं है और इसके भारत में फैलने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन एक सप्ताह बाद ही जब मामले बढ़ने लगे तो रेल सेवा, हवाई सेवा और यातायात के सभी छोटे-बड़े साधन बिना किसी चेतावनी के बंद कर दिये गये। 24 मार्च को रात आठ बजे प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संदेश देते हुए चार घंटे बाद से यानी 25 मार्च को रात 12 बजे से 21 दिन के लिए लॉकडाउन लागू कर दिया। इस लॉकडाउन के लिए उन्होंने किसी तरह की तैयारी करना ज़रूरी नहीं समझा। न तो इस पर विचार करना ज़रूरी समझा कि इस अचानक थोपे गये लॉकडाउन से जनता को किस तरह की परेशानियां आ सकती हैं और न ही महामारी का इलाज और बचाव करने की कोई तैयारी करना आवश्यक समझा गया। यह मान लिया गया कि लॉकडाउन बचाव भी है और रोकथाम भी।
25 मार्च से तालाबंदी का पहला चरण आरंभ हुआ, उस समय पूरे देश में इस महामारी से संक्रमित सिर्फ़ 571 लोग थे, लेकिन तालाबंदी के हर चरण में यह संख्या लगातार बढ़ती गयी। 31 मई को जब चौथा चरण समाप्त हुआ तब देश में महामारी से संक्रमित मरीज़ों की संख्या एक लाख 90 हज़ार से ज़्यादा हो चुकी थी और मरने वालों  की संख्या 5400 को पार कर गयी थी। भारत में कोविड-19 का पहला मरीज़ केरल में आया था। केरल में कुछ दिन तेज़ी से मरीज़ बढ़े लेकिन धीरे-धीरे मरीज़ों की संख्या के बढ़ने की रफ़्तार कम होती गयी और 24 जून तक केवल 3604 मरीज़ थे और मरने वालों की संख्या भी केवल 23 थी। केरल की कुल जनसंख्या लगभग 3.50 करोड़ है। अगर केरल की तुलना हम दिल्ली से करें जो भारत की राजधानी है और जहां की आबादी 1.90 करोड़ है, लेकिन वहां 24 जून तक मरीज़ों की संख्या 70390  और मरने वालों की संख्या 2365 हो चुकी थी। इसी तरह गुजरात जिसके मॉडल का उदाहरण बार बार दिया जाता है और जिसकी कुल आबादी 6.27 करोड़ है, वहां मरीज़ों की संख्या 29000 और मरने वालों की संख्या 1736 थीं। अकेले महाराष्ट्र में 24 जून तक 142900 मरीज़ थे और 6739 लोग मर चुके थे। यानी लगातार 68 दिन के लॉकडाउन और उसके बाद के 25 दिन के कुछ-कुछ खुलेपन के बावजूद केरल को छोड़कर अधिकतर बड़े राज्यों में संक्रमित मरीज़ों की संख्या में न केवल लगातार बढ़ोतरी होती गयी बल्कि मरने वालों की संख्या में भी चिंतनीय वृद्धि हुई। 25 जून तक पूरे देश में संक्रमित मरीज़ों की संख्या बढ़कर लगभग चार लाख 75 हज़ार से अधिक और मरने वालों की संख्या लगभग 15000 हो गयी है।
कोरोना वायरस एक संक्रमित बीमारी है और इससे बचने का सर्वाधिक कारगर उपाय यही था कि सबसे पहले उन लोगों की पहचान की जाये जिनमें कोरोना के लक्षण दिखायी देते हैं, फिर टेस्टिंग के द्वारा उन लोगों को अलग किया जाये जो इससे संक्रमित हो चुके हैं। इसके बाद उन्हें शेष लोगों से अलग रखकर उनका उचित उपचार किया जाये। चीन ने लगभग यही विधि अपनायी। जिस शहर वुहान में संक्रमण तेज़ी से फैला उसे चीन के दूसरे इलाक़ों से अलग-थलग किया गया। वहां जांच की तीव्र मुहिम चलायी और संक्रमित लोगों के इलाज के लिए ज़रूरी क़दम उठाये। साथ ही, दूसरे इलाक़ों में महामारी के लक्षण वाले लोगों का पता लगाकर उनकी टेस्टिंग की गयी और उनका दूसरों से अलग कर उपचार किया गया। इस तरह महामारी को पूरे देश में फैलने से रोका गया। यही काम वियतनाम और क्यूबा ने किया। कुछ भिन्न ढंग से जनता को कम से कम परेशानी में डालकर न्यूज़ीलैंड और दक्षिण कोरिया ने भी महामारी की रोकथाम के ठोस क़दम उठाये। केरल ने भी अपने पूर्व अनुभवों का लाभ उठाया। पहले केस का पता लगने के साथ ही उसने अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को पूरे राज्य के पैमाने पर सक्रिय किया। टेस्टिंग द्वारा संक्रमित लोगों का पता लगाया गया और अगले 14 दिन तक उनकी निगरानी और उपचार किया गया। केरल ने विदेश से आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की न केवल पूरी जांच की, बल्कि उन्हें क्वांरटीन में भी भेजा गया। जो केरल ने किया वह पूरे देश के लिए भी किया जा सकता था। यानी कि विदेश से आने वाले यात्रियों की पूरी जांच और उन्हें अनिवार्यत: क्वारंटीन किया जाता तो पूरा देश आसानी से महामारी से बच सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके विपरीत केंद्र सरकार ने पहले तो महामारी को फैलने दिया और उसके प्रति लापरवाही बरती और जब महामारी ने ख़तरनाक रूप धारण कर लिया तो भय का ऐसा माहौल पैदा किया कि उसका लाभ उठाकर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिये। जांच और इलाज की समुचित व्यवस्था करने के बजाय लोगों में भय का संचार करके उन्हें अपने घरों में क़ैद रहने और थोपे गये प्रतिबंधों का सख़्ती से पालन करने को मजबूर किया।
लॉकडाउन के कारण सब कुछ बंद हो जाने ने ग़रीब लोगों के लिए अकल्पनीय मुसीबतें खड़ी कर दीं। वे बेरोज़गार हो गये। आय के स्रोत समाप्त हो गये और दो जून की रोटी के लाले पड़ने लगे। पहले चरण के तीन सप्ताह लोगों ने किसी तरह निकाले लेकिन जब एक बार फिर लॉकडाउन 19 दिन के लिए बढ़ा दिया गया, तो उन लोगों का धैर्य टूट गया जो रोज़गार के बिना अपने घरों से सैकड़ों-हज़ारों मील दूर रह रहे थे। इस दौरान मिलने वाली सरकारी मदद इतनी कम और इतनी अनियमित थी कि उसके भरोसे वे बिना आमदानी और बिना रोज़गार के नहीं रह सकते थे। जहां वे काम करते थे, उन मालिकों ने उनकी तरफ़ से मुंह मोड़ लिया, जिन टूटी-फूटी कोठरियों में भेड़-बकरियों की तरह रह रहे थे, उनके मालिकों ने उन घरों से निकाल बाहर किया क्योंकि उनके पास देने को किराया नहीं था। उनकी व्यथा कोई सुनने वाला नहीं था। दूर अपने गांव के अलावा उन्हें कोई आसरा नज़र नहीं आया। यातायात के साधनों के अभाव में, मजबूर होकर वे सैकड़ों मील पैदल अपने घर-गांव के लिए निकल पड़े। गोद में बच्चा, सिर पर गठरी, साथ में चलते छोटे-छोटे बच्चे, उनमें से भी कुछ के सिर पर भी बोझ, आदमी-औरतों के रैलों के ह्र्दय विदारक दृश्य शहरों से निकलने वाली हर सड़क पर देखे जा सकते थे। किसी को उत्तर प्रदेश पहुंचना था, किसी को बिहार, किसी को उड़ीसा, तो किसी को बंगाल। इन पैदल जाने वाले ग़रीब मेहनतकश लोगों को पूरे रास्ते पुलिस के डंडों को भी झेलना पड़ा। दुर्घटनाओं का शिकार होना पड़ा, कुछ भूख और प्यास से रास्ते में ही दम तोड़ बैठे। आठ सौ से अधिक मज़दूर अपने पर जबरन थोपे गये विस्थापन के कारण मारे गये, मार दिये गये।
25 मार्च से आरंभ हुआ लॉकडाउन लगातार बढ़ता रहा। पहले 21 दिन के लिए, दूसरी बार 19 दिन के लिए, तीसरी बार 14 दिन के लिए और चौथी बार फिर 14 दिन के लिए। यानी 25 मार्च का लॉकडाउन 31 मई तक लगातार चलता रहा और ढीले-ढाले ढंग से आज भी जारी है। इन 68 दिन में हुई तालाबंदी ने पूरे देश को निष्क्रिय कर दिया था। छोटे बड़े सभी तरह के उद्योग-धंधे बंद होने से लगभग 12 करोड़ लोगों का रोज़गार छीन लिया गया। समय पर फ़सल न बिकने से किसानों को भी भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा। भारत की कुल श्रम शक्ति का 90 प्रतिशत से अधिक असंगठित क्षेत्र से है, जो सामान्य परिस्थितियों में भी शोषण और उत्पीड़न का शिकार होता रहा है, इस लंबे चले लॉकडाउन ने उन्हें पूरी तरह से तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है। इन सभी को और उनके परिवारों को लॉकडाउन के पहले दिन से ही आर्थिक मदद की ज़रूरत थी, जिससे कि वे अपना और अपने परिवार का जीवनयापन आसानी से कर सकें। जहां वे रह रहे हैं, वहां से उन्हें भागना न पड़े और जब महामारी का प्रकोप ख़त्म हो, तो वे वापस रोज़गार हासिल कर सकें। लेकिन सरकार ने कुछ किलो अनाज और 500 या 1000 रुपये की मदद देकर अपने कर्त्तव्य को पूरा हुआ मान लिया। सरकारों ने यह तक पता लगाने की कोशिश नहीं की थी कि वह मदद कितने लोगों तक पहुंच रही है और क्या वह पर्याप्त है। लॉकडाउन के पहले चरण में मोदी सरकार ने 1.76 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की, वह शीघ्र ही नाकाफ़ी साबित हुई। लॉकडाउन के 49 वें दिन 12 मई को प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की, जो जीडीपी का 10 प्रतिशत बताया गया। प्रधानमंत्री ने दावा किया कि इस आर्थिक पैकेज से देश की अर्थव्यवस्था न केवल पटरी पर आ जायेगी वरन देश को आत्मनिर्भर बनाने में भी मदद मिलेगी। प्रधानमंत्री ने देशवासियों का आह्वान किया कि वे महामारी को संकट की तरह नहीं बल्कि अवसर की तरह देखें।
इसी लॉकडाउन की अवधि में सरकार ने लगातार जनविरोधी क़दम उठाये। श्रमिकों को क़ानून से मिलने वाले संरक्षण और सुरक्षा को पूरी तरह से समाप्त करना, किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलवाने की बजाय उन्हें पूरी तरह बाज़ार के हवाले कर देना, अनिवार्य वस्तु अधिनियम से उन सभी खाद्य पदार्थों को निकाल बाहर करना जो आम हिंदुस्तानी के भोजन का अनिवार्य हिस्सा हैं और हर रोज़ पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ाना जबकि विश्व बाज़ार में क़ीमतें लगातार कम हो रही हैं, इसी दौर में उठाये गये क्रूर क़दम हैं। इसी लॉकडाउन के दौरान सरकार ने उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया है। नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी, जीएसटी और अब तालाबंदी जैसे आत्मघाती क़दम उठाये। उनके हर क़दम ने अर्थव्यवस्था को लगातार संकट की ओर धकेला। स्वयं सरकार के आंकड़ों के अनुसार 2020 की प्रथम तिमाही में जो लॉकडाउन से पहले की अवधि है, जीडीपी की दर गिरकर 3.1 हो गयी है। यानी 2014 में सत्ता में आने के इन छह सालों में जीडीपी घटकर आधी से कम रह गयी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अप्रैल से जून की तिमाही में जब सबकुछ बंद कर दिया गया था, विकास की दर कितनी गिरेगी और उसका नतीजा कितना भयावह होगा।
लेकिन जो कुछ हुआ है और हो रहा है, वह अचानक नहीं हुआ है और इसके लिए अकेले महामारी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। देश की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी हो या समाजवादी उसकी सबसे पहली ज़िम्मेदारी अपनी जनता के प्रति है। आज़ादी के बाद के लगभग चार दशकों तक सरकारें कुछ हद तक शिक्षा, स्वास्थ्य और नागरिक सेवाओं में प्रत्यक्ष निवेश करती रही हैं। लेकिन 1990 के दशक के बाद सरकार ने इन क्षेत्रों में निवेश से हाथ खींचना और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना शुरू किया। पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप की नीति के तहत निजी कंपनियों के साथ साझेदारी को विकास के लिए ज़रूरी बताया गया जबकि व्यवहार में यह साझेदारी सार्वजनिक संपदा को निजी क्षेत्र की सेवा में लगाने का भ्रष्ट तरीक़ा ही साबित हुआ। वैसे भी भाजपा की सरकारों के एजेंडे में शिक्षा, स्वस्थ्य और नागरिक सेवाएं कभी नहीं रहीं। इस दौरान सरकार के प्रयासों से न नये स्कूल-कालेज खुले और न नये अस्पताल बने। भाजपा के शासन के दौरान निजी क्षेत्र ने भी इनमें दिलचस्पी नहीं दिखायी। निजी क्षेत्र में कुकुरमुत्ते की तरह पहले जो स्कूल-कालेज खुले थे और नये अस्पताल बने थे, वे ज़्यादातर ग़ैर भाजपा शासन के दौरान ही। लेकिन क्या ये निजी अस्पताल जो सस्ती सरकारी ज़मीन पर बनाये गये और जिन्हें सरकार से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद भी मिलती रही है, कोरोना महामारी से लड़ने में कोई भूमिका निभा पा रहे हैंॽ
कोरोना महामारी का मुक़ाबला करने में सरकार की नाकामयाबी का सीधा संबंध हमारी जन चिकित्सा सेवाओं की व्यापक बर्बादी से जुड़ा है। तीन दशक पहले जब आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू की गयीं तब उन क्षेत्रों को भी निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया जिनका सीधा संबंध स्वास्थ्य, शिक्षा और नागरिक सुविधाओं से जुड़ा था। इन तीस सालों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विशाल प्रायवेट अस्पताल खुले जहां देश-विदेश से आकर मरीज़ अपना इलाज कराने लगे। लेकिन इसके समानांतर ही पहले से चल रहे सरकारी अस्पताल सरकारों की उपेक्षा के चलते और पर्याप्त मदद के अभाव में बर्बादी की ओर बढ़ते चले गये। हालांकि यह भी सही है कि इसके बावजूद ये सरकारी अस्पताल ही ग़रीब जनता के लिए सहारा बने हुए हैं। देश की नब्बे फ़ीसद आबादी के लिए तो निजी अस्पतालों के दरवाजे पहले से ही बंद थे क्योंकि वहां का महंगा इलाज आम आदमी की हैसियत के बाहर था। 1970-80 तक गांव-गांव में प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोलने की मुहिम और तहसील तथा ज़िला स्तर पर हर तरह के साधनों और उपकरणों से संपन्न सरकारी अस्पतालों का विशाल जाल, निजीकरण को प्रोत्साहित करने के कारण उपेक्षा का शिकार हो गये। आज जब इस महामारी से निपटने के लिए अस्पतालों, चिकित्सा केंद्रों, डॉक्टरों, नर्सों के साथ-साथ परीक्षण और इलाज के लिए ज़रूरी आधुनिकतम उपकरणों की बहुतायत में आवश्यकता है, तब सरकार पूरी तरह से सरकारी संसाधनों पर ही निर्भर है। निजी क्षेत्र के लिए तो यह जनधन की लूट का एक और अवसर है। चीन और दक्षिण कोरिया से मंगायी गयी टेस्टिंग किट और गुजरात के फ़र्जी वेंटिलेटर का उदाहरण यह बताने के लिए पर्याप्त है कि इस संकट के दौर में भी किस तरह निजी कंपनियां सत्ता के उच्च पदों पर बैठे लोगों के साथ मिलकर लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। निजी अस्पतालों के लिए भी यह महामारी कमाई का एक और बड़ा अवसर है जहां वे टेस्टिंग और उपचार के नाम पर मरीज़ों को लूट सकें। सरकारों को इस महामारी की टेस्टिंग और इलाज दोनों ही पूरी तरह नि:शुल्क उपलब्ध कराना चाहिए था। लेकिन न केवल ऐसा नहीं किया जा रहा है, बल्कि निजी अस्पताल टेस्टिंग और इलाज दोनों के लिए अनाप-शनाप लूट में लगे हैं। निजी अस्पतालों में कोविड-19 का इलाज कराना औसत मध्यवर्ग की हैसियत से भी बाहर है।
सार्वजनिक चिकित्सा क्षेत्र की उपेक्षा का परिणाम है कि इस महामारी से निपटने के लिए अस्पतालों में पर्याप्त वेंटिलेटर नहीं है, प्रयोगशालाएं नहीं हैं और क्वारंटीन के लिए आवश्यक स्वच्छ और संक्रमण मुक्त वार्ड उपलब्ध नहीं हैं। दिल्ली जैसे शहर में इलाज के लिए लोगों को दर-दर भटकना पड़ रहा है और कई मरीज़ तो समय पर इलाज न मिल पाने के कारण मर रहे हैं। यहां इस बात को रेखांकित करने की ज़रूरत है कि केरल की वामपंथी सरकार अगर महामारी का अच्छे से मुक़ाबला कर सकी, तो इसीलिए कि किसी भी अन्य राज्य की अपेक्षा वहां की जन चिकित्सा सेवाएं महामारी का मुक़ाबला करने में ज़्यादा सक्षम हैं और उन पर सरकार का पूरी तरह से नियंत्रण हैं, ताकि वे उनका बेहतरीन तरीक़े से इस्तेमाल कर सकें।
जिस बीस लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की गयी, उसका दस प्रतिशत भी ग़रीब किसानों और मज़दूरों को राहत पहुंचाने के लिए नहीं है और न ही जन स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार करने के लिए है। यह पैकेज दरअसल छोटे-बड़े उद्योगपतियों को क़र्ज़ देकर उन्हें इस आर्थिक दुरवस्था के दौर में मदद करने के लिए है जबकि उद्योगपतियों पर पहले से ही 10 से 15 लाख करोड़ का ऐसा क़र्ज़ है, जिसके वापस लौटने की उम्मीद बैंक छोड़ चुके हैं और उन्हें बट्टे खाते में डाल दिया गया है। इस क़र्ज़ योजना से बैंकों के लिए और मुसीबत खड़ी होने वाली है। बैंकों की बदतर स्थिति का मतलब है, बैंकों में जमा जनता के पैसे का ख़तरे में पड़ना। इस पैकेज को आत्मनिर्भर भारत बनाने वाला पैकेज कहा गया है, लेकिन इसमें विदेशी निवेश को आकृष्ट करने के लिए नियमों को और ढीला किया गया है। यहां तक कि रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढ़ाकर 74 फ़ीसद कर दिया गया है। लेकिन इसमें रोज़गार सृजित करने की न कोई योजना है और न ही शर्त।
दुखद यह है कि जनता के हित में क़दम उठाने के लिए किसी तरह का दबाव सरकार पर नहीं है। वह इस दौर में भी अपने विभाजनकारी एजेंडे को लागू करने में सक्रिय नज़र आ रही है। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका सब कुछ उसकी मुट्ठी में है। संविधान के रक्षक ही संविधान के भक्षक बने हुए हैं। जनता को संगठित कर उन्हें जनांदोलनों में उतारने के लिए प्रेरित करने वाले संगठन केवल बयान जारी करने से ज़्यादा कुछ करने के लिए तैयार नहीं हैं। विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के लिए लॉकडाउन उनकी सोची-समझी निष्क्रियता के लिए आड़ का काम कर रहा है। आज़ादी के सात दशकों में इससे भयावह स्थितियां कभी पैदा नहीं हुई थीं, लेकिन ऐसा प्रतीत ही नहीं हो रहा है कि जनता में इन स्थितियो को लेकर कोई आक्रोश या गुस्सा है, बल्कि एक तरह की लाचारी और बेचारगी ही नज़र आ रही है। सीएए और एनआरसी विरोधी शांतिपूर्ण चलने वाले जनआंदोलनों में भाग लेने वाले छात्र-छात्राओं को पुलिस इस महामारी के दौरान न केवल गिरफ़्तार करती रही है, बल्कि उन पर तरह-तरह की धाराएं लगाकर उनके लिए ज़मानत हासिल करना भी नामुमिकन किया जा रहा है। इसी तरह दिल्ली के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के दंगों में सबसे ज़्यादा जान-माल का नुक़सान झेलने वाला मुस्लिम समुदाय ही पुलिस के अत्याचारों का शिकार बन रहा है। इस महामारी के लिए भी कभी चीन को, कभी तबलीग़ी जमात को और कभी अपने घर-गांव की ओर लौटने को विवश कर दिये गये ग़रीब मज़दूरों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।
आज भी रोज़ाना दलित, आदिवासी, मुसलमान पुलिस के हाथों मारे-पीटे जाते हैं, उन्हें अपमानित किया जाता है और कई बार तो पुलिस के हाथों मारपीट से उन्हें अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है। लेकिन कोई उनके पक्ष में सड़कों पर उतरने के लिए तैयार नहीं है। अमरीका के अफ्रीकी मूल के नागरिक जॉर्ज फ़्लायड के एक गोरे पुलिस अधिकारी के हाथों मारे जाने पर पूरी दुनिया में प्रदर्शन हुए, मगर भारत में, केरल में हाथी की हत्या पर आंसू बहाने वाले भारत के शिक्षित मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा कभी भूल से भी, दलितों और मुसलमानों के उत्पीड़न पर अपना मुंह नहीं खोलता। वैसे भी हिंदुस्तान का मध्यवर्ग ख़ासतौर पर सवर्ण शिक्षित मध्यवर्ग ग़रीब और मेहनतकश वर्ग को अपने से अलग और निम्न’ मानता रहा है। वह उस पर कभी-कभार दया तो कर सकता है, लेकिन उन्हें अपने बराबर कभी नहीं मानता। बिना बराबर माने न तो उनके लिए और न उनके साथ कोई आंदोलन किया जा सकता है। यही मध्यवर्ग शासन तंत्र के हर हिस्से में मौजूद है और वही इस तंत्र को चलाता है। वही राजनीतिक पार्टियों की शक्ति बनता है, शासकों की भक्ति भी करता है। 1970 के दौर में मध्यवर्ग का एक हिस्सा जनता के जन आंदोलनों के साथ खड़ा था, लेकिन आज ऐसा नहीं है। जबकि सरकार की आर्थिक नीतियों का नकारात्मक असर मध्यवर्ग पर भी दिखायी देने लगा है। सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों का महंगाई भत्ता रोका जा रहा है, उसकी सालाना बढ़ोतरी स्थगित की जा रही है, उनकी बचत पर ब्याज दर कम की जा रही है। ख़ाली पदों को भरा नहीं जा रहा है। निजी क्षेत्र की तो और भी बुरी हालत है, जहां वेतन में कटौती और बड़े पैमाने पर छंटनी का सामना मध्यवर्ग को करना पड़ रहा है। छोटा-मोटा व्यवसाय करने वाले ज़्यादातर लोगों का व्यवसाय पूरी तरह ठप हो चुका है। आय के स्रोत अवरुद्ध हो चुके हैं और भविष्य के लिए अनिश्चितता हद से ज़्यादा बढ़ गयी है। लगातार घर में बंद रहने के कारण कई तरह की पारिवारिक और मानसिक परेशानियां बढ़ गयी हैं। मध्यवर्ग के युवा लोगों में अवसाद बढ़ता जा रहा है और इसके दुष्परिणाम निकल रहे हैं। पूंजीवादी लोकतंत्र में ही अपने लिए बेहतर अवसर की संभावना और उज्ज्वल भविष्य का सपना देखने वाले मध्यवर्ग को आगे आने वाले दिनों में और भी भयावह स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।
पूंजीवादी व्यवस्था में लोकतंत्र को जनता भले ही उसकी बुनियाद मानती हो, लेकिन स्वयं पूंजीपति वर्ग के लिए वह कई परतों वाले मुखौटे से अधिक कुछ नहीं है। अपने वर्गीय वर्चस्व को बनाये रखने के लिए जिस तंत्र को विकसित किया गया है उसका मक़सद एक ओर इस वर्चस्व को बनाये रखना होता है, तो दूसरी ओर, जनता को इस भुलावे में रखना भी होता है कि राजसत्ता पर वास्तविक अधिकार उनका ही है। वे वोट द्वारा सत्ताओं को जब चाहें बदल सकते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था का पूरा तंत्र पूंजीवाद की रक्षा और सेवा के लिए है। जब-जब पूंजीवाद अपने को संकट में पाता है, वह लोकतंत्र के इस मुखौटे की परतों को हटाने लगता है। वह जनता के अधिकारों को छीनने लगता है और उन पर तानाशाही थोपने लगता है। इस महामारी ने उसे यह अवसर भी दिया है कि वह इस पर नज़र के नाम पर लोगों की हर तरह की गतिविधियों पर नज़र रखे और जब चाहे तब किसी को भी जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दे। जिस वोट को लोकतंत्र की शक्ति माना जाता है, उसे जाति, धर्म, नस्ल, राष्ट्र आदि के नाम पर गुमराह करते हुए अपने पक्ष में वोट डालने के लिए लोगों को आसानी से प्रेरित किया जा सकता है और उसके बाद अगले पांच साल के लिए उनके पास हाथ मलने के कोई विकल्प नहीं बचता। जाति, धर्म, नस्ल, राष्ट्र की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर अपने सामूहिक हितों के आधार पर संगठित होकर संघर्ष करने की बात जनता के दिमाग़ में न आये, उसके लिए हर तरह के प्रपंच किये जाते हैं। यह महज़ संयोग नहीं है कि महामारी के इस गंभीर संकट के दौर में भारत का अपने पड़ोसी देशों चीन और नेपाल से गंभीर सीमा विवाद चल रहा है और चीन से तो हिंसक झड़पें भी हुई हैं। ये झड़पें कभी भी छोटे-मोटे युद्ध का रूप ले सकती हैं। पाकिस्तान से संघर्ष तो इन छह सालों में स्थायी चीज़ बन चुका है। यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले ने 2019 की जीत में अहम भूमिका निभायी थी।
पारिवारिक ढांचा, मीडिया, शिक्षा, धर्म, परिवार सहित सभी सामाजिक संस्थाएं हर क्षण और हर घड़ी इसी प्रयत्न में लगी हैं कि लोगों में सामूहिक वर्गचेतना का हल्का सा आभास तक पैदा न हो। यही वजह है कि पूंजीवादी व्यवस्था बारबार हर तरह के संकट से गुज़रते हुए भी अपने लिए ऐसी कोई चुनौती पैदा नहीं होने देती, जो उसके वजूद के लिए ख़तरनाक साबित हो। एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच जनता की क़तारों में फूट डालने, उन्हें आपस में लड़ाने-भिड़ाने और इसका फ़ायदा उठाते हुए, उनको लूटते-खसोटते हुए अपनी सत्ता को मज़बूत करती जाती है। जब वह अपने वर्चस्व को ख़तरे में देखती है, तो वह राष्ट्रवादी युद्धोन्माद और फ़ासीवाद की ओर क़दम बढ़ाने से भी नहीं हिचकिचाती।
मध्यवर्ग का वह छोटा-सा हिस्सा जो इस व्यवस्था को बनाये रखने में लगा हुआ है और बदले में जिसे सत्ता में भागीदारी करने का अवसर मिल रहा है, उसका अपना हित इस व्यवस्था के बने रहने में है और इसके लिए वह पूंजीवाद के हाथ का हथियार बनने के लिए भी न केवल तैयार रहता है बल्कि इसमें गर्व भी महसूस करता है। लेकिन जनता का बड़ा हिस्सा अपनी भयावह दुर्दशा के लिए या तो अपने भाग्य को कोसता है, या वह इस दुष्प्रचार का शिकार हो जाता है कि इस भयावह महामारी के आगे तो सरकारें भी विवश हैं, उन्हें दोष देना व्यर्थ है या अपने उन पड़ोसी देशों को जिन्हें शत्रु मानने की शिक्षा उसे राष्ट्रवाद के नाम पर दी जाती रही है या अपने ही देश के उन पड़ोसियों को जिनकी जाति, धर्म, रंग,नस्ल और जातीयता उससे अलग है और जिनके प्रति नफ़रत उसके खून में घोल दी गयी है, ज़िम्मेदार ठहराता है।
इस महामारी ने पूंजीवाद के लिए संकट भी पैदा किया है और अवसर भी पैदा किया है। संकट इसलिए कि इसने पूंजीवादी व्यवस्था के असली जनविरोधी चरित्र को पूरी तरह से उघाड़कर सामने रख दिया है। इसने बता दिया है कि ऐसे कष्टों से बचाने के लिए जनता के पक्ष में साहसपूर्ण फ़ैसले लेने की उसमें इच्छाशक्ति का अभाव होता है। जिस मुक्त अर्थव्यवस्था को विकल्पहीन बताया जाता है, उसे जनता के हितों की ओर मोड़ना लगभग असंभव होता है।
पूंजीवाद कोरोना महामारी से ज़्यादा भयावह और जानलेवा महामारी है जिसका इतिहास लोभ, लालच, नफ़रत और घृणा से भरा है। सामंतवाद और पूंजीवाद से लड़ते हुए मनुष्य की प्रगतिशील चेतना ने जहां एक ओर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के महान आदर्शों को जन्म दिया था और हर तरह के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त दुनिया बनाने का सपना भी दिया था, उसी दौर में पूंजीवाद ने नस्लवाद, फ़ासीवाद और उपनिवेशवाद के दु:स्वप्न भी दिये और जिनके कारण देशों और समुदायों को ग़ुलाम बनाने, अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक भयावह जातीय और नस्लीय नरसंहारों को अंजाम देने, दुनिया को बारबार युद्धों में झोंकने और विकास के नाम पर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने के मानवता विरोधी अपराध भी किये। कोरोना महामारी भी इसी पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा प्रकृति के विरुद्ध किये गये आपराधिक कारनामों का परिणाम है। दरअसल, यह बीमारी नहीं बल्कि पहले से जड़ जमाये हुए एक महामारी का लक्षण है।
मो0 9810606751



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