कोरोना काल : तबाही के मंज़र-5


विषैली पितृसत्ता
सफ़ूरा ज़रगर, श्रमजीवी महिलाएं और ‘बॉयज़ लॉकर रूम
भाषा सिंह

सिमोन द बुआ ने अपनी बेहद चर्चित किताब, द सेकेंड सेक्स में लिखा था कि औऱत पैदा नहीं होती बनायी जाती है। अपनी इस बात को उन्होंने ऐतिहासिक विकासक्रम के साथ विस्तार में स्थापित भी किया था। उनका यह कथन बहुचर्चित है, इसे ख़ूब कोट किया गया और इससे पितृसत्तात्मक समाज को समझने का एक ऐसा लेंस मिलता है जो बेहद कारगर और अचूक होता है।
तमाम यौन अपराधों, यौन हिंसा और यौन आक्रमण को एक कड़ी में रखकर देखने और समझने का नज़रिया मिलता है। बॉयज़ लॉकर रूम से लेकर दिल्ली की एक्टिविस्ट गर्भवती सफ़ूरा ज़रगर की गिरफ़्तारी के समय से उन पर जिस तरह अश्लील-कुत्सित टिप्पणियां की गयीं। उन सब के पीछे की सोच एक ही है— दक्षिणपंथी पितृसत्तात्मक सोच, जो मनुस्मृति से अपनी वैचारिक ऊर्जा हासिल करती है। आज (23-06-2020) सफ़ूरा ज़रगर को जब ज़मानत मिली, तो यकबयक मुझे सफ़ूरा के ऊपर की गयी वे सारी घिनौनी टिप्पणियां याद आ गयीं, जो उनके चरित्र हनन के मक़सद से की गयी थीं। सफ़ूरा ज़रगर और उनके पेट में पलने वाले बच्चे तथा उनके पति के ऊपर जो गाली-गलौच की गयी, उसकी एक बड़ी वजह उनका औरत होना, औरत होकर सरकार की ग़लत नीतियों का विरोध करना व मुसलमान औरत होना था। सफ़ूरा के जेल से बाहर आने पर सुकून ज़रूर महसूस किया जा सकता है, लेकिन जिस तरह से एकतरफ़ा हमला उन पर हुआ और उसने बेलगाम महिला विरोधी सोच के नुकीले गिरफ़्त का अहसास कराया, वह बहुत चिंताजनक है।
वर्ष 2019-20 के तीन-चार महीने नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चले ऐतिहासिक आंदोलन के नाम रहे। इसकी कमान औरतों और ख़ासतौर से मुस्लिम औरतों ने संभाली और देश भर में इस विभेदकारी क़ानून के ख़िलाफ़ गुस्से को आकार दिया। चूंकि इस आंदोलन का नेतृत्वकारी चेहरा औरतों का था, लिहाज़ उनके प्रति नफ़रत भी जमकर संचालित की गयी। इसके बाद दिल्ली जली, 50 से अधिक लोगों की मौत देश की राजधानी दिल्ली में हुई। इसका ज़िम्मेदार नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन को बताने पर दिल्ली पुलिस आमादा है। चुन-चुन कर इस आंदोलन में शिरकत करने वालों को निशाना बनाया गया। शाहीन बाग़ के साथ-साथ जामिया में यह आंदोलन बहुत तेज़ रहा। जामिया कॉर्डिनेशन कमेटी की मीडिया प्रभारी थीं सफ़ूरा ज़रगर, जो जामिया में पढ़ती हैं। उन्हें दिल्ली हिंसा के मामले में जब आरोपी बनाकर गिरफ़्तार किया गया, तो भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने जिस क़दर अभद्र टिप्पणी की, वह बेहद शर्मनाक नज़ीर है। इसके बाद तो मानो गाली देने वालों, चरित्र हनन करने वाले पागल कुत्तों की फ़ौज ही कूद गयी हो। सोशल मीडिया पर उन दिनों किये गये कमेंट देखकर लगता है, मानो इस बात की होड़ लगी थी कि कौन कितना नीचे गिर सकता है। बात-बात में एफ़आईआर करने वाली दिल्ली पुलिस, आईटी सेल द्वारा सार्वजनिक तौर पर एक एक्टिविस्ट के मान-सम्मान से खुलेआम खेलने और धज्जियां उड़ाने पर ख़ामोश रही। ‘पिंजड़ा तोड़’ की नताशा नरवाल और देवांगना, को भी नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के विरोध में चले आंदोलन की वजह से गिरफ़्तार किया गया। सफ़ूरा को तो इसीलिए निशाने पर लिया गया, क्योंकि वह ‘बेस्ट’ केस थी मुसलमानों और ख़ासतौर से मुसलमान औरतों को देश भर में ‘विलेन’ के रूप में स्थापित करने के लिए। इसमें बहुत हद तक सफलता भी उन्हें मिली। यह एक अहम ‘टैस्ट’ केस है कि किस हद तक देश की राजधानी में मुस्लिम महिला को निशाने पर लेकर तमाम गाली-गलौच खुलेआम देने वालों का बाल भी बांका नहीं होता। स्त्री का अपमान करने वालों को राजनीतिक वरदहस्त प्राप्त होना नया तो नहीं, लेकिन इतना बेशर्म शायद पहले नहीं रहा।
यही बेशर्मी कोरोना काल और लॉकडॉउन काल में नज़र आयी, इस दौरान सबसे बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां हुईं,  ये सारी राजनीतिक गिरफ्तारियां हैं। इसका केंद्र रही देश की राजधानी दिल्ली और इस दौरान सिविल सोसायटी के उन तमाम चेहरों को निशाने पर लिया गया, जो सरकार के ग़लत क़दमों के ख़िलाफ़ बुलंद आवाज़ उठा रहे थे। कोरोना महामारी के दौरान एक तरफ़ जहां सुप्रीम कोर्ट सहित तमाम संस्थाएं जेलों को ख़ाली करने, क़ैदियों को रिहा करने का सुझाव दे रहे थे, वहीं दिल्ली पुलिस दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के मामले में लोगों के नाम चार्जशीट में डालकर गिरफ़्तार कर रही थी। इसके लिए ग़ैर कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम --यूएपीए जैसे ख़ौफ़नाक क़ानून का इस्तेमाल तो ऐसे किया जा रहा था जैसे यह सबसे साधारण सज़ा का प्रावधान है। इसी क़ानून के अंतर्गत सफ़ूरा ज़रगर सहित बाक़ी लोगों को गिरफ़्तार किया गया।
ठीक इसी समय भारत की ग़रीबी देश के नक्शे पर ऐसे पसर गयी। ऐसे दिल दहलाने वाले नज़ारे दिखायी दिये , जो आज़ाद भारत में हमने कभी नहीं देखे थे। करोड़ों की संख्या में भारतीय मज़दूर शहरों से वापस अपने गांव की ओर निकल पड़े, क्योंकि जिन शहरों को उन्होंने बनाया, वे उन्हें कोरोना कैरियर के रूप में देखने लगे। अधिकांश को काम से निकाल दिया और बिना वेतन छुट्टी दे दी। ज़िंदा रखने का कुछ भी इंतज़ाम नहीं किया। लाखों-लाख लोग ज़िंदा रहने के लिए लॉकडॉउन के ख़िलाफ़ अवज्ञा आंदोलन करते हुए पैदल ही सड़कों पर निकल पड़े। इनमें बड़ी तादाद भारतीय श्रमजीवी महिलाओं की थी। वे छोटे-छोटे बच्चों को कंधें पर टांगे हुए, गोद में टिकाये हुए सैंकड़ों किलोमीटर का सफ़र अपने हौसले पर तय करने निकल पड़ीं। अनगिनत गर्भवती महिलाओं ने सड़कों पर ही बच्चा जना। सड़कों पर पैदा होने वाले ये भारतीय नागरिक विश्व विख्यात लेखक मैक्सिम गोर्की की कहानी—‘एक नये इंसान का जन्म’- को सजीव कर रहे थे, भारतीय मेहनतकश महिलाओं के अदम्य साहस और जीवटता को गुंजा रहे थे। लेकिन इनके प्रति हमारी सरकारों की आपराधिक अनदेखी जस की तस क़ायम थी— सुप्रीम न्यायपालिका ख़ामोश रही और सिस्टम को कोई फ़र्क़ न पड़ा। ये औरतें भारत माता का सजीव रूप थीं, प्रतिरोध को विकट परिस्थितियों में कैसे ज़िंदा रखा जा सकता है—इसका उदाहरण पेश कर रही थीं। उनका दुख राष्ट्रीय चर्चा का मुद्दा नहीं बना। इन महिलाओं और पुरुषों की इस स्थिति का सीधा संबंध शोषण पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था से है। किस तरह से इन प्रवासी मज़दूरों का खून चूस कर बड़े-बड़े उद्योग घराने अकूत मुनाफ़े बटोरते रहे हैं, इस हक़ीक़त को झुठलाया नहीं जा सकता। मगर इस सकंट काल में उन्होंने इन करोड़ों भारतीयों को बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया। रोज़गार के अवसर जितने छिने और जितने खत्म होते जा रहे हैं, उसकी सबसे अधिक गाज महिला श्रमिकों पर ही पड़ी है। इस संकटकाल का जो स्त्री पक्ष है, वह पूरी तरह से नदारद है। इसकी वजह है, भारतीय समाज का स्त्री विरोधी नज़रिया। सड़कों पर पैदल-पैदल चलती जीवन के लिए संघर्ष करती भारतीय स्त्री न तो भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को उद्वेलित करती है और न ही सफ़ूरा ज़रगर के ख़िलाफ़ विष वमन अभियान से उन्हें दिक्क़त होती है।
दरअसल यह जो स्त्री पर होने वाले अत्याचारों की अनदेखी का मसला है, वह जुड़ा हुआ है हमारे समाज की बुनियादी बनावट से जो स्त्री-विरोधी है। तभी तो स्त्री विरोधी होना, औरतों पर गाली-गलौच वाली भाषा का इस्तेमाल करना धीरे-धीरे ‘न्यू नॉर्मल’ होता जा रहा है। अक्सर होता यह है कि हम यौन हिंसा या यौन आक्रमण की घटनाओं को अलग-अलग घटनाओं के रूप में देखते हैं। इसकी वजह से एक वृहद तस्वीर और सोच का अभाव सा दिखता है। इसमें भी हम कभी एक घटना पर ज़्यादा उद्वेलित होते हैं और वहीं दूसरी घटना पर कम। इसके पीछे जाति और धर्म का भेद काम करता है और शहर तथा ग्रामीण क्षेत्र  को लेकर हमारा दुराग्रह भी। मिसाल के तौर पर अगर बलात्कार शहर में होता है, तो मीडिया सहित तमाम सिविल सोसायटी में आक्रोश ज़्यादा होता है और अगर लड़की उच्च जाति, अच्छे घर से ताल्लुक़ रखती हो, तो वेदनाएं ज़्यादा प्रकट होती हैं, वहीं अगर ग्रामीण परिवेश में हो, लड़की दलित या आदिवासी या अल्पसंख्यक समुदाय की हो, तो न सड़कों पर वह आक्रोश दिखायी देता है औऱ न ही वेदना। इस तरह अपराधी का वर्ग और वर्ण भी हमारे गुस्से को बहुत हद तक संचालित करता है।
कई बार ख़ासतौर से यौन हिंसा के मामलों में, विशेषकर बाल-वयस्क अपराधियों का अध्ययन करते समय यह ख़याल आता है कि क्या हमारा समाज इन बच्चों और किशोरों को अपराधी बना रहा है। क्या जिस तरह से हम अपने घर के भीतर, बाहर समाज में और अपनी सोच में, हंसी-मज़ाक़ (चुटकुलों) में, महिला विरोधी सोच को परिलक्षित कर रहे हैं, वह लड़कों को बीमार बना रही हैॽ क्या हमारे घरों में कुंडली मार कर बैठी पितृसत्ता ने सबसे पहला शिकार कम उम्र के लड़कों को बनाया हैॽ उनमें इंसान के गुण डालने से पहले, उन्हें मानवता सिखाने से पहले ही हम उन्हें मर्द बनाने लग जाते हैं। इसमें घर की स्त्री-पुरुष सब शामिल होते हैं। हो सकता है कि इसकी शुरुआत एक मासूम से दिखने वाले वाक्य से हो—‘मरद को दर्द नहीं होता, चूडियां पहन रखी हैं, क्या लड़कियों की तरह रोते हो, तुम्हारे हाथ तो बिल्कुल लड़कियों जैसे मुलायम हैं, लड़कियों की तरह घर-घुस्सू हो, हर समय किचन में क्यों जाते हो— खाना ही बनाओगे क्या---।‘ इस तरह के अनगिनत डॉयलॉग कमोबेश हम लोगों के अधिकांश घरों में लड़कों से बोले जाते हैं। ये जो डॉयलॉग मासूम से जान पड़ते हैं, ये दरअसल बेहद गहरी पितृसत्ता पर टिकी सोच से उपजते हैं। ये तय करते हैं एक पुरुष के बारे में अवधारणा। विषैली (toxic) मर्दानगी का लेप लड़के के मासूम कच्चे मन पर लगाना शुरू कर देते हैं। सिर्फ़ घर ही नहीं आसपास का माहौल, हमारा समाज सब मिलकर लड़कों को हिंसक और उग्र मर्द में तब्दील करते हैं।
बाद में निश्चित तौर पर आक्रामक सेक्सुएलिटी में घर के मर्दों की (जाने-अनजाने) छत्रछाया में विषैली बेल बनती है। हालांकि इंटरनेट-पोर्नोग्राफ़ी और भोग और मस्ती को जीवन सिद्धांत मानने वाली जीवनशैली कब 11-12 साल के बाल मन को स्त्री हिंसा के बर्बर दृश्यों को एंज्यॉय करने वाली आपराधिक मन:स्थिति में पहुंचा देती है—इसका पता अक्सर माता-पिता या बाक़ी परिजनों को भी नहीं चल पाता। मैंने ऐसे बहुत से लोगों के इंटरव्यू लिये हैं, जो यौन हिंसा में लिप्त बाबाओं या धार्मिक गुरुओं की भक्ति में लिप्त रहते हैं। जब उनसे मैंने यह जानना चाहा कि क्या वे चाहते हैं कि उनके बेटे भी फलां बाबा या गुरु की तरह से बनें, तो वे बहुत आक्रामक मुद्रा में आकर जवाब देते। दिलचस्प बात यह कि इनमें से किसी का भी जवाब सीधा नहीं होता। जबकि मुझे लगता था कि वे सीधे चिल्लाकर कहेंगे— बिल्कुल भी नहीं, ऐसे बाबाओं की शरण में उनके बच्चे कभी नहीं जायेंगे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि महिलाओं पर अपराध करने वालों के प्रति हमारे दिल में उतनी नफ़रत नहीं पनपती, अगर वह धर्म का चोला पहने होता है। यही कारण है कि हम अपने घरों में बच्चों के सामने जो आदर्श रखते हैं— वे इस तरह से भी सीखते हैं कि चूंकि ये लोग आध्यात्मिक हैं, लिहाज़ इन्हें छूट मिली हुई हैं। हमारे समाज में आसाराम बाबू, नित्यानंद या डेरा सच्चा वाले गुरमीत रामरहीम के भक्तों को इसी तर्क के साथ समझा जा सकता है। निश्चित तौर पर इस श्रेणी में तमाम धर्मों के गुरु या स्वयंभू आते हैं। स्त्री पर यौन हिंसा करने वालों में बाबाओं-साधु-संन्यासियों-मौलवियों-पादरियों की फ़ेहरिस्त बहुत बड़ी है। यहां जो ख़ास बात समझना ज़रूरी है कि इन तमाम आरोपी-अपराधी धार्मिक गुरुओं की राजनीतिक पहुंच-पूछ बहुत रही है। अधिकांश के यहां राज्य स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के नेता शीश नवाते रहे हैं। इससे समाज में उन्हें जो स्वीकार्यता मिलती है, वह इनके स्त्री विरोधी स्वरूप को ढंक लेती है। और, ये कुकृत्य उजागर होने के बाद भी उनकी छवि पर बहुत बड़ा बट्टा नहीं लगता है—क्योंकि राजनीति और अर्थसत्ता साथ खड़ी रही है। राजनीतिक पटल पर यह नयी परिघटना नहीं है, लेकिन हाल के सालों में इसका प्रचार-प्रसार बहुत अधिक बेशर्मी से हो रहा है। इसका ताज़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में तब देखने को मिला जब भाजपा के राज्य में पूर्व मंत्री स्वामी चिन्मयानंद के ऊपर  यौन उत्पीड़न का आरोप उनके कॉलेज में पढ़ने वाली एक छात्रा ने लगाया। इसके साथ में स्टिंग ऑपरेशन करके वीडियो भी जारी किया। इस पूरे मामले का सबसे दुखद पहलू यह है कि चिन्मयानंद के समर्थन में ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती गयी और सारा दोष आरोप लगाने वाली लड़की पर थोपा गया। चिन्मयानंद का राजनीतिक सामाजिक क़द जस का तस बरक़रार रहा।
आइए, अब इस पृष्ठभूमि में बॉयज़ लॉकर रूम से लेकर एक्टिविस्ट सफ़ूरा ज़रगर के बीच पसरी गंधाती पितृसत्तात्मक सोच के विस्तार को समझते हैं। यह कड़ी न तो बॉयज़ लॉकर रूम वाले प्रकरण से शुरू होती है और नहीं सफ़ूरा ज़रगर तक ख़त्म होती है। यह लगातार बढ़ती ही जा रही है और इसका चेहरा दिनों-दिन और ज़्यादा ख़ौफ़नाक होता जा रहा है। बॉयज़ लॉकर रूम एक ऐसी घटना है जिसने यह उघाड़कर रख दिया कि घरों की चारदिवारी में कितनी कम उम्र के लड़कों में बलात्कारी सोच पनपने लगती है। और किस ख़तरनाक ढंग से 14 से 18-19 साल के लड़के बलात्कार—सामूहिक बलात्कार करने की योजना समूह में बनाने लगते हैं—करने लगते हैं। यह घटना देश की राजधानी दिल्ली में सामने आयी, जिसमें इंस्टाग्राम (सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ) पर 14 से 18-19 साल के लड़कों ने अपना एक ग्रुप बनाया- बॉयज़ लॉकर रूम नाम से, जिसमें शुरू में कुछ साथ पढ़ने वाली लड़कियां भी थीं। इसमें वे अश्लील बातें करते, लड़कियों को ब्लैकमेल करने की योजना बनाते. अधिकतर साथ पढ़ने वाली लड़कियों के शरीर पर भीषण आपत्तिजनक भाषा में कमेंट करते, बलात्कार करने, सामूहिक बलात्कार करने की योजना बनाते, और भी न जाने कैसे-कैसे यौन अपराध...। इतने डराने वाले ब्यौरे हैं कि पढ़ कर उनकी बलात्कारी मानसिकता, बलात्कार को एन्जॉय करने वाली उनकी मानसिकता का अट्टहास सुनायी देता है। यह पढ़कर लगता है कि किस सुरक्षित परिवेश में यह बलात्कारी सोच पल्लवित-पुष्पित होती है। यह सवाल ज़हन में गूंजता है कि क्या हर लड़का इसी बलात्कारी वायरस का शिकार है या इस वायरस का पीड़ित। समूह में शामिल कुछ लड़कियों ने जब ये चैट पब्लिक किया, तो हंगामा मच गया। जो परदे के पीछे का कुत्सित दिमाग़ था-अवयस्क लड़कों का, वह सब बाहर आने लगा। अब यहां इस मोड़ पर इनकी आपराधिक सोच और ज़्यादा उजागर होती है। जैसे ही, इस समूह की चैट (बातचीत) लड़कियों ने सोशल मीडिया पर डाली, इन लड़कों ने तुरंत एक दूसरा ग्रुप बनाया औऱ वहां इन लड़कियों के बारे में घिनौनी बातें करने लगे। उन्हें ब्लैकमेल करने, उनका सामूहिक बलात्कार तक करने की योजना बनाने लगे। यह भी पकड़ में आया। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये सारे लड़के दिल्ली के खाते-पीते मध्यम वर्ग-उच्च मध्यम वर्ग से ताल्लुक़ रखते हैं औऱ दिल्ली के नामचीन प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। सोशल मीडिया पर इस घटना के बाद एक अभियान यह भी चला कि ये लड़कियां भी कितनी दोषी हैं—उन पर ज़बर्दस्त हमला बोला गया। लेकिन ये लड़कियां डरीं नहीं, पीछे नहीं हटीं । अंग्रेजी में जिसे कहते हैं पिंडोरा बॉक्स खुल जाना---बंद डिब्बे से कीड़ों का बाहर निकल आना—कमोबेश हमारे घरों और समाज में पनपती, संरक्षण पाती पितृसत्ता का ख़ौफ़नाक चेहरा हमारे सामने बेनक़ाब हुआ। हालांकि इस पूरे मामले को बहुत जल्द रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया, जबकि चैट से यह तक आशंका हो रही थी कि इनमें से कुछ लड़कों ने यौन हिंसा भी की थी।
अब यहां सवाल यह उठता है कि क्या ये जो लड़के हैं और इनका बलात्कार तथा यौन अपराध से दिमाग़ अटा पड़ा है—यह कैसे हुआ। यह सब तो वे मां के गर्भ से सीखकर आये नहीं। यह सब इन्होंने सीखा हमारे घरों से, हमारे समाज से और स्कूल-कॉलेजों से। पूरा का पूरा परिवेश ही दूषित है- स्त्री विरोधी सोच पर टिका हुआ। लिहाज़ हमने अपनी अगली पीढ़ी को स्त्री-विरोधी सोच के दलदल में ढकेल दिया है और उन्हें बलात्कारी-वर्चुअल बलात्कारी और यौन हिंसा को एन्जॉय करने वाला बना दिया है। इसे ही हम विषैली (toxic ) पुरुष सत्ता के रूप में अपने चारों-तरफ़ देखते हैं। राजनीतिक पटल पर इसकी पराकाष्ठा कभी 56 इंच की छाती के रूप में होती है, तो कभी नीतिगत क्षेत्र में स्वच्छ भारत अभियान में औरतों को सुरक्षित रखने, घर की इज्ज़त को बचाने के नाम पर शौचालय के प्रचार अभियान में देखी जा सकती है। बॉयज़ लॉकर रूम एक ख़तरे की घंटी है, जो हमें बस यह समझा रही है कि घर से लेकर बाहर तक बलात्कारी संस्कृति का इतना वर्चस्व हो गया है कि अगली पीढ़ी के लिए हमने विसंगतियों-यौन कुंठाओं और यौन अपराध का पूरा दलदल तैयार कर रखा है। 
कहने की ज़रूरत नहीं, यह स्थिति हम औऱतों के लिए ही ख़तरनाक नहीं है, पुरुषों के लिए ज़्यादा विस्फोटक है क्योंकि वे इनसान बनने और मानवीयता के साथ व्यवहार करने लायक़ नहीं रह जाते हैं। बलात्कारी संस्कृति का शिकार हो जाते हैं, अपराधी मानसिकता के शिकार और विषैली मर्दानगी के क़ैदी।
मो0 9818755922









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