देश के किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को चार महीने से ऊपर हो गये हैं। यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में एक अदभुत और बेमिसाल घटना के रूप में दर्ज होगा। हिटलर-मुसोलिनी की विचारधारा से लैस आर एस एस और उसी की राजनीतिक संरचना यानी बीजेपी के नेतृत्व में सत्ता पर क़ाबिज़ मोदी सरकार इतनी अमानवीय, बर्बर और संवेदनशून्य हो सकती है, यह देश के अवाम ने कभी सोचा भी नहीं था। देश के अवाम ने यह भी नहीं सोचा था कि हर रोज़ एक नया जुमला परोसने वाली मोदी सरकार सारी संवैधानिक परंपराओं, संविधान प्रदत्त जनवादी अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं को तरह तरह से नष्टभ्रष्ट कर डालेगी। संविधान क्षतविक्षत है, भारत माता के शरीर पर सुशोभित 'नवरत्न' और जनता के ख़ून पसीने से बने पब्लिक सेक्टर, चहेते कारपोरेट मालिकों को जल्दी जल्दी कौड़ियों के भाव बेचे जा रहे हैं जिसकी वजह से आज कुछ तो उनमें से दुनिया के अमीरों की सूची में आनन फ़ानन में शीर्ष स्थान हासिल कर चुके हैं। ये चहेते ही बीजेपी को 'चुनावी बांड' की शक्ल में करोड़ों का इनाम दे कर दुनिया की सबसे अमीर पार्टी बना रहे हैं, उन्हीं को किसानों की गाढ़ी कमाई लूटने की छूट देने के लिए सारी तिकड़में अपनाकर, महाआपदा के बीच ही फटाफट संसद में बिना बहस,बिना मतसंग्रह किये काले कृषि क़ानून पारित कर लिये। भारत के जागरूक किसान संगठनों ने केंद्र सरकार के इन नापाक इरादों को एकदम पहचान लिया और इन क़ानूनों को वापस लेने तथा एम एस पी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को क़ानूनी जामा पहनाने आदि मांगों को ले कर पूरी दृढ़ता के साथ आंदोलन पर उतरे। हर तरह के दमन, अत्याचार और अमानवीय सलूक को झेलते हुए लाखों किसान दिल्ली की सीमाओं पर चारों ओर इस ऐतिहासिक आंदोलन को तब तक पूरी दृढ़ता से चलाने का संकल्प ले चुके हैं जब तक केंद्र की संवेदनहीन सरकार उनकी मांगों को मानने के लिए विवश न हो जाये। 'क़ानून वापसी नहीं, तो घर वापसी नहीं।'
मोदी सरकार छलबल से 2019 में बहुमत से दुबारा सत्ता में आयी तभी से उसने सारे जनविरोधी और संविधान विरोधी क़दम उठाने में बेहद तेज़ी दिखायी। उसने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के इरादे से मुस्लिम अल्पसंख्यकों को रौंद डालने, उन्हें बदनाम करने और उनका बेवजह दमन उत्पीड़न करने के लगातार क़दम उठाये। 'तीन तलाक़' के ख़िलाफ़ क़ानून, नागरिकता क़ानून संशोधन, अनुच्छेद 370 को ग़ैरलोकतांत्रिक तरीक़े से निरस्त करके जम्मू-कश्मीर को तबाह कर देने वाला संशोधन आदि को इसी प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखना होगा। चूंकि 'हिंदू राष्ट्र' बनाने की जो प्रतिज्ञा हर रोज़ आर एस एस की शाखाओं में दुहरायी जाती है, उसे सांप्रदायिक और मनुवादी सोच को बढ़ावा दिये बग़ैर अस्तित्व में लाया ही नहीं जा सकता। इसीलिए अल्पसंख्याकों के अलावा, दलितों और महिलाओं पर भी लगातार अत्याचार किये जा रहे हैं, उनके आंदोलनों को कुचलने और उनके स्वतंत्र वजूद को मिटा देने की, उन्हें लांछित व बदनाम करने की कोशिशें लगातार देखी जा सकती हैं। दलितों के लिए संविधानप्रदत्त आरक्षण की व्यवस्था कई तरह से ख़त्म की जा रही है, भाजपा द्वारा निजीकरण से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक से इस तरह के फ़ैसले करवाने के प्रयास इसी की एक कड़ी हैं।
यह सब जानते हैं कि फ़ासीवादी विचारधारा जनतांत्रिक असहमति और आलोचना क़तई बरदाश्त नहीं करती। यही आज देश में हो रहा है। बिहार विधानसभा में पिछले दिनों इन्हीं तत्वों द्वारा जो अशोभनीय गुंडागर्दी करके असहमति के स्वर को दबाने की कोशिश हुई, वह हर तरह निंदनीय है। इसी तरह अभिव्यक्ति की आज़ादी में यक़ीन रखने वाले कोई भी बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक या प्रोफ़ेसर कहीं मोदी सरकार के जनविरोधी कारनामों या उनके द्वारा हर रोज़ उगले जा रहे झूठ को उजागर कर दें तो उन्हें फ़ौरन दंड दिलवाने जैसे उन्हें नौकरी से निकलवाने, या उन पर देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल में सड़ा देने की साज़िश रचने में फ़ासीवादी तत्व देर नहीं लगाते। इस तरह एक भय का वातावरण बनाया जा रहा है। पूरी कोशिश चल रही है कि उन तमाम राजनीतिक दलों के हाथों से प्रशासन किसी भी तरह छीन लिया जाये जहां असमहमति के स्वर उठते हैं या जिनका काम भाजपा शासित केंद्र या राज्य सरकारों के कामों से कहीं बेहतर है जिनसे आमजन वहां भाजपा के पक्ष में नहीं हो पा रहा। मसलन, दिल्ली विधानसभा के लिए संविधान में दी गयी व्यवस्थाओं और सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये दिशानिर्देशों की अवहेलना करते हुए हाल ही में एक क़ानून पारित करवा लिया जिसमें चुनी हुई सरकार की जगह केंद्र के पिट्ठू उपराज्यपाल को ही 'सरकार' बना देने की जनतंत्रविरोधी साज़िश रच दी।
विपक्षी दलों के नेतृत्व में चल रही राज्य सरकारों को हर तरह से ध्वस्त करने की साज़िश रचने में केंद्र की भाजपा सरकार लगी रहती है। जहां संभव होता है, विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करके भाजपा अपनी सरकार बना लेती है, कहीं केंद्र की मशीनरी जैसे सीबीआइ, ईडी आदि के माध्यम से उन राज्यों के नेतृत्व को किसी आपराधिक केस में फंसा देने की घिनौनी चाल चलती है। आम आदमी पार्टी के अनेक विधायकों को और यहां तक कि केरल के मुख्यमंत्री तक को इसी तरह से लांछित करने की तिकड़म में केंद्र सरकार लिप्त रहती है। देश की अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी से पहले ही चौपट कर रखी थी, महाआपदा ने उसे और भी तहसनहस कर दिया। बुरी तरह से बेरोज़गारी बढ़ी है। लाखों ख़ाली पदों पर नयी भर्ती हो ही नहीं रही है। उन पदों पर दिहाड़ी पर काम करवा लिया जाता है, आइ एम एफ़-विश्वबैंक आदि से संचालित नवउदारवादी एजेंडे के दासानुदास सरकारी नेतृत्व के चलते स्थायी नौकरियां युवाओं को अब शायद ही उपलब्ध हों। उन्हीं नीतियों के दबाव में आम जन पर परोक्ष या अपरोक्ष नित नये कर लगाकर देश की विशाल आबादी को तबाह किया जा रहा है, वहीं सत्तासीन नेताओं के ऐशो आराम पर, क़ीमती सूटबूट और निजी सैर सपाटे के लिए 'पुष्पक विमान' पर करोड़ों रुपये पूरी बेशर्मी के साथ ख़र्च किये जा रहे हैं। चहेते पूंजीपतियों के करोड़ों के क़र्ज़ माफ़ किये जा रहे हैं, किसान मज़दूरों की राहत के लिए सरकारी ख़ज़ाने में पैसा ही नहीं, उनके लिए हर बजट में कटौती की जाती है। सरकारी कर्मचारियों का मंहगाई भत्ता समय पर देने के लिए धन के अभाव का रोना रोया जाता है, जबकि 'सेंट्रल विस्टा' जैसे अनुत्पादक निर्माण और इंडिया गेट के आसपास के ख़ूबसूरत क्षेत्र को कंकरीट के जंगल में तब्दील करने के पागलपन पर करोड़ों रुपये बरबाद करने की परियोजना शुरू हो चुकी है। मोदी सरकार किसी की सुनती नहीं, किसी से संवाद करने में यक़ीन नहीं रखती, इसीलिए भाजपा के भक्त कई जानेमाने अर्थशास्त्री, जैसे अरविंद पनगड़िया, अरविंद सुब्रमनियन भी सलाहकार पद छोड़कर भाग गये क्योंकि सर्वज्ञ प्रधानसेवक के 'ज्ञान' के आगे उन्हें कोई गिनता ही नहीं था। वे दुखी थे क्योंकि प्रधानसेवक के मुंह से हमेशा 'झूठ' ही निकलता था। यह सिलसिला जारी है। अभी हाल ही में 26 मार्च 2021 को बांग्लादेश में कह दिया कि वे बांग्लादेश के लिए 21 बरस की उम्र में 'सत्याग्रह' में जेल गये थे, उनके इस ताज़ातरीन झूठ का सोशल मीडिया और अख़बारों ने भी मज़े लेकर पर्दाफ़ाश किया।
इस बरस सर्वहारावर्ग की सबसे पहली क्रांति, पेरिस कम्यून की 150वीं वार्षिकी दुनियाभर में मनायी जा रही है। नवोदित सर्वहारावर्ग ने 18 मार्च 1871 को पेरिस का प्रशासन अपने हाथों में लेकर एक मॉडल व्यवस्था क़ायम की थी, जिसे फ्रांस के पूंजीपतिवर्ग ने पूरी बर्बरता और क्रूरता से कुचल दिया था और 28 मई 1871 को फिर से पूंजीवादी आधिपत्य क़ायम कर लिया था। इस प्रयोग में, लेनिन के आकलन के मुताबिक़ तक़रीबन एक लाख कामरेड या तो मारे गये या घायल या दरबदर हो गये। हम लेखक जो आम जन और विश्वसर्वहारा के स्वप्न से प्रतिबद्ध हैं, उन शहीदों को सलाम करते हैं।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
चंचल चौहान
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