दो
कविताएं
1. आने
वाले ख़तरे
हम जो अपने घरों के भीतर बैठे हैं
साबुन से बार बार अपने हाथ धोते
हम सोच नहीं सकते
कि वे क्यों अपने घरों की ओर लौटना चाहते थे
कोई क्यों अपने घर लौटता है ?
गर इसका कोई सीधा सरल जवाब होता
तो नहीं लिखी जाती दुनिया भर में कविताएं
बहुत आसान है उन्हें ग़ैर ज़िम्मेदार कह देना
एक दृश्य है उन्हें खदेड़ दिये जाने का
हिकारत, गालियां, लानत, घुड़कियां
इनके अर्थ उनके लिए बेमानी
सिर्फ़ एक बिलखना है वहां
बदहवास चेहरे
रुके हुए आंसू
अस्फुट शब्द
तमतमायी हुई मुखाकृतियां
या अगले ही पल कुछ याचनाएं
टूटे हुए वाक्य
घूंघट में आधा मुख ढंके वे स्त्रियां
वे कंधों पर चढ़े मटमैले रूखे बच्चे
उनकी आंखों में है एक अनलिखा यह वर्तमान
किसने कहा था पिछले किसी दौर में
कि
गिड़गिड़ाहट की भी एक हिंसा होती है
तालाबंदी है
वे अपनी भूख के लिए चाबियां खोजते लोग
वे शायद कल फिर कहीं और दिखायी पड़ जायें
हां,
अपनी भूख के लॉक डाउन की चाबियां खोजते
अधबनी इमारतों के बांसों, खप्पचियों
भीमकाय क्रेनों ने
उन्हें दुत्कार दिया
बोरे, तसले, फावड़े अब रहस्य हैं
गारा और ईंटों ने कहा अभी इंतज़ार करो
हाथ गाड़ियां खड़ी गलियों में उदास
बोझे अब सिर पर नहीं कहीं और
ग़ायब सब , सब ग़ायब, सब अदृश्य
ठेकेदार, मुक़ादम, आश्वासन, तारीख़ें
सारी की सारी खिड़कियां
मुट्ठी भर भात के साथ चुटकी भर नमक
और ख़त्म हो जाती है सोशल डिस्टेंसिंग
उन पर बरसती हैं लाठियां
वे लांछित तो बहुत पहले ही थे
दुत्कारे तो बहुत पहले ही गये थे
काल के एक विह्वर से निकल कर आये
और दृश्य में अचानक प्रकट हो गये ये लोग
वे सुर्खियां हैं, ख़बरों का एक नया मसाला
उन पर चीखती हुई दुर्गा का अवतार वह एंकर
जो रोज़ नये नये डिज़ाइन के परिधानों में
हैवी मेकअप में टीवी पर उतरती है
उसका चीखना, उसका भावावेश
उसकी चिंताएं
उसकी लिपिस्टिक, रूज़ और काजल जितने ही प्रोफ़ेशनल
कहीं नहीं है कोई कच्चा चिट्ठा
वे केवल एक संख्या हैं अब
कोई रहस्य नहीं कोई कंदराएं नहीं
अनबूझे दबे ढके रहस्य नहीं
केवल ज़िंदा हैं, अभी तक ज़िंदा
होनी की एक तस्वीर उजागर है जो वहां
उसे हम देख नहीं पायेंगे
उसे कोई देख नहीं पायेगा
वे पूछते हैं सामने खड़ी मृत्यु से
तुम आओगी इस तरफ़
या
हम ही पहले चले आयें तुम्हारी तरफ़ ?
हम जो अपने घरों के भीतर बैठे हैं
साबुन से बार बार अपने हाथ धोते
हम सोच नहीं सकते
कि वे क्यों अपने घरों की ओर लौटना चाहते थे
कोई क्यों अपने घर लौटता है ?
गर इसका कोई सीधा सरल जवाब होता
तो नहीं लिखी जाती दुनिया भर में कविताएं
बहुत आसान है उन्हें ग़ैर ज़िम्मेदार कह देना
एक दृश्य है उन्हें खदेड़ दिये जाने का
हिकारत, गालियां, लानत, घुड़कियां
इनके अर्थ उनके लिए बेमानी
सिर्फ़ एक बिलखना है वहां
बदहवास चेहरे
रुके हुए आंसू
अस्फुट शब्द
तमतमायी हुई मुखाकृतियां
या अगले ही पल कुछ याचनाएं
टूटे हुए वाक्य
घूंघट में आधा मुख ढंके वे स्त्रियां
वे कंधों पर चढ़े मटमैले रूखे बच्चे
उनकी आंखों में है एक अनलिखा यह वर्तमान
किसने कहा था पिछले किसी दौर में
कि
गिड़गिड़ाहट की भी एक हिंसा होती है
तालाबंदी है
वे अपनी भूख के लिए चाबियां खोजते लोग
वे शायद कल फिर कहीं और दिखायी पड़ जायें
हां,
अपनी भूख के लॉक डाउन की चाबियां खोजते
अधबनी इमारतों के बांसों, खप्पचियों
भीमकाय क्रेनों ने
उन्हें दुत्कार दिया
बोरे, तसले, फावड़े अब रहस्य हैं
गारा और ईंटों ने कहा अभी इंतज़ार करो
हाथ गाड़ियां खड़ी गलियों में उदास
बोझे अब सिर पर नहीं कहीं और
ग़ायब सब , सब ग़ायब, सब अदृश्य
ठेकेदार, मुक़ादम, आश्वासन, तारीख़ें
सारी की सारी खिड़कियां
मुट्ठी भर भात के साथ चुटकी भर नमक
और ख़त्म हो जाती है सोशल डिस्टेंसिंग
उन पर बरसती हैं लाठियां
वे लांछित तो बहुत पहले ही थे
दुत्कारे तो बहुत पहले ही गये थे
काल के एक विह्वर से निकल कर आये
और दृश्य में अचानक प्रकट हो गये ये लोग
वे सुर्खियां हैं, ख़बरों का एक नया मसाला
उन पर चीखती हुई दुर्गा का अवतार वह एंकर
जो रोज़ नये नये डिज़ाइन के परिधानों में
हैवी मेकअप में टीवी पर उतरती है
उसका चीखना, उसका भावावेश
उसकी चिंताएं
उसकी लिपिस्टिक, रूज़ और काजल जितने ही प्रोफ़ेशनल
कहीं नहीं है कोई कच्चा चिट्ठा
वे केवल एक संख्या हैं अब
कोई रहस्य नहीं कोई कंदराएं नहीं
अनबूझे दबे ढके रहस्य नहीं
केवल ज़िंदा हैं, अभी तक ज़िंदा
होनी की एक तस्वीर उजागर है जो वहां
उसे हम देख नहीं पायेंगे
उसे कोई देख नहीं पायेगा
वे पूछते हैं सामने खड़ी मृत्यु से
तुम आओगी इस तरफ़
या
हम ही पहले चले आयें तुम्हारी तरफ़ ?
2. तालाबंदी
में किसी अज्ञात की खोज
(लंबी कविता)
(कोरोना
महामारी में संघर्ष करते हुए तमाम अनाम योद्धाओं को समर्पित)
उतरती
धूप और सिहरती हुई पत्तियों ने
कहा
कुछ मद्धम मद्धम
कबूतरों
की शरारती आंखों ने
और
कोयल
की कुहू कुहू ने भी कहा
कि
तुम्हारी
ख़ामोश मृत्यु के शोक गीत
लिखे
जायेंगे इसी तरह से
तुम्हारी
शोरगुल से भरी इस बेतरतीब दुनिया में
वे
सांस लेते हैं बंद कमरों में
एक
ख़ालीपन की ऊब में
मृत्यु
के गलियारे में जमा ज़रूरतों
और
अर्थहीन वस्तुओं के पैम्फ्लेट पलटते
इस
उदित होते अस्त होते सूरज को देखो
भूख
तुम्हें बतायेगी
कुछ
आदिम सच्चाइयों के बारे में
सुनसान
पड़ी सड़कों के कुछ और भी अर्थ हो सकते हैं
जो
तुम्हें समझ में आयेंगे
क्रूरताओं
के घूरे पर
कोई
थकान उतरी पड़ी होगी
और
कुछ
मर्मस्थल बचे हुए होंगे भूले बिसरे
रुई का
एक फाहा उड़ता चला जायेगा
इस
पूरे संसार पर
रिकॉर्ड
रूम से
सेमिनारों
से
वीडियो
कॉन्फ्रेंसों से
परे
धकेले जा सकते हैं
तुम्हारी
उपलब्धियों के बखान और
गला
काट स्पर्धाओं के उद्बोधन
ग़ायब
हो चुके सफल मनुष्यों की खोपड़ियां
एक
तरफ़ रख दी जायेंगी
उनके
भीतर भरे हुए
जानकारियों
के भंडारों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा
प्रेतों
की तरह से खड़े होंगे
बंद
पड़े शीशे के शो रूमों में
वैक्यूम
क्लीनर ,
कारों
के नये मॉडल,
फ्रिज
और
वातानुकूलित यंत्र
कंप्यूटर
के ‘की–बोर्ड’ पर उंगलियां चल रही होंगी
पर
स्क्रीन पर कुछ नहीं आयेगा
कोई
भोलापन
कहेगा कि यक़ीन करो मुझ पर
सुंदरता
अभी भी टहल रही है
अंगडाई
लेते कुत्तों के झुंड में
‘नो पार्किंग’ बोर्डों के नीचे से
लौट
रहा होगा कोई अनाम वक़्त
बाज़ारों
में
बंद
शॉपिंग कॉम्पलेक्सों के व्यर्थ सूचना पट्टों से
कुछ मत
कहो कुछ मत कहो
उदास
रोते हुए विवरण होंगे
एक
लालची दुनिया की चिपचिपाहट
मुरझाये
हुए गुलदस्ते, बर्गर किंग ,
ऑनलाइन
पेमेंट के डेबिट कार्ड
भयभीत
देहों से झर रहा होगा जिये हुए जीवन का पलस्तर
रोबदार
समझी गयी हर आवाज़ में
भरी
होगी अनिश्चय की कोई सड़ांध
और
झुर्रियां सभ्यता की भी हो सकती हैं
इससे
पहले कभी इतनी साफ़ नहीं देखी होंगी ।
बुनियादें
हिल रही हैं
बुनियादें
हिल रही हैं
कौन? कौन?
कोई
नहीं बस एक मौन ।
अवरुद्ध
हरकतों के पीछे जो अदृश्य है
उसे एक
तेज़ चाकू की तरह से पढ़ो
कि
पहले
कब दो फांक खुल गया था इस तरह से समय
- दो –
हर
चेहरे पर एक मास्क
हर
मास्क के पीछे एक चेहरा
छुप
गये सारे हाव भाव
मुस्कुराहटें
क्रोध
और
कातरता
तुमने
धरती को भी तो पहना दिया था एक मास्क
छिप
गये पहाड़ नदियां चरागाह और जंगल
कई
सदियों तक
धूप आई
और गयी
कई
सूर्योदय हुए कई सूर्यास्त
पीढियां
बीतती गयीं
इतिहास
के पन्ने पलटते गये
तुम्हारी
अवैध संतान की तरह से
तुम्हारा
ही एक शत्रु कहीं पल रहा था अनाम
सत्ताधीशो, सेनाध्यक्षो, नगरपिताओ!
धनकुबेरो
अब
युद्ध
की घोषणाएं करो
बिगुल
बजाओ
प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान
बालकनियों
में खड़े दासों से
घंटे
घड़ियाल बजवाओ
भेज दो
सेनाओं को
विजय
अभियान पर
पर
कहां भेजोगे?
किन
दिशाओं में?
आखेट
स्थल कहां
युद्ध
भूमियां कहां
पुलवामा
कहां है
बालाकोट
कहां है
सिनाई
की पहाड़ियां कहां हैं
गाज़ा
पट्टी कहां है
मेक्सिको
की सीमा पर खड़ी
कंटीले
तारों की बाड़ कहां है
कौन सी
है 'लाइन ऑफ़ डिफेंस'
कौन सा
है अतिक्रमण
शत्रु
अदृश्य
निराकार
गति से
अधिक तेज़
तिलस्म
की मानिंद मायावी
सर्वव्यापी
आकार
से अधिक सूक्ष्म
छह फुट
की सोशल डिस्टेंसिंग
हंसती
है एक बेहया हंसी
सारे
भूमंडलीकरण पर
स्पर्श
में छुपी है मृत्यु
स्पर्श
में छिपे हैं अंत
कल
किसने देखा है
एक
गुड़ी मुड़ी
सिकुड़ा
हुआ वर्तमान
घड़ी
की रेंगती सुइयों
सरकती
हुई तारीख़ों पर
भोले
विश्वासों पर , यक़ीनों पर
मेटल
स्क्रीन, सीट बेल्ट, बटन और कमीज़ के
अस्तर पर
और
व्यापार
समझौतों की दुनिया पर
यह
किसका अट्टहास है?
यह
क़ब्र किसके लिए खोदी गयी है
यह शव
पेटिका किसके लिए बन रही है
वह जो
मरेगा कल या परसों या उसके अगले दिन
वह जो
दुनिया का पांच लाख पांच सौ पचपनवा संक्रामक रोगी है
पर जो
अभी ज़िंदा है
तुम्हारे
आंकड़ों में
छिन्न
भिन्नताएं कहती हैं
लिखो
हमारे नये इतिहास
तुम्हारे
स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन उदास
कारख़ाने
बिसूरते हुए
शेयर
बाज़ारों से उड़ती हैं धूल
निवेश
सूचियां
सीली
हुई मिसाइलों की तरह
फुसफुसा
कर कहा उन्होंने कल
कि
कहीं कोई कूड़ेदान ख़ाली नहीं है
इस
दुनिया में
पंख
कटे मेघदूतों जैसे ये सारे डेवेलपमेंट प्लान
तुम्हारी
मूर्खताओं के स्मारक हैं
वातानुकूलित
अधिवेशन कक्षों से उठे
जो
वक्ता
और जाने
कब गली के गटर में गिर पड़े ।
लंच पर
एक
सभासद ने कहा दूसरे से सहसा मुड़कर
सभा
में आप देर तक कुछ बोल रहे थे
क्या
बोल रहे थे
मैं भी
तो कुछ बोलना चाहता था
बहस
में शरीक भी होना चाहता था
पर
राष्ट्रीय संकट की घड़ी है
रात को
नींद ठीक से आती नहीं है
किसी
ने कहा कि दुनिया हो गयी है अनिश्चित
दूसरे
ने कहा यह जीवन संध्या है
तीसरे
ने कुछ और कहा
चौथे
ने कुछ और
बाक़ी
मुंह बाये तबलीगी जमातियों की खोज के भड़कीले क़िस्से सुन रहे थे
दुश्मनों
की शिनाख़्त हुई
विपदाओं
ने रचे नये मुहावरे
कुछ
नये शब्द ईजाद हुए
खौलते
हुए ख़ून के बारे में
कुछ
क़ौमी घृणाओं और लानतों के बारे में
धमकी
देता हुआ दहाड़ता था वाशिंग्टन में कोई बेचारगी में
हंस
पड़ता था बेजिंग में कोई घाघ हंसी
प्रधान
सेवक मांगता था राष्ट्र से माफ़ी हर रोज़ एक नयी मोहक अदा में
पर
कहीं कोई शब्द नहीं था
भूख की
किसी अंधेरी गुफा के बारे में
सैंकड़ो
मील चल पड़े
सिर पर
पोटली उठाये
सड़क पर
चलते चलते हुई किसी मृत्यु के बारे में
एक
ख़ामोश रुदन अभी पड़ा था अलक्षित ।
-तीन-
चिंतकों
ने कहा कि इस संसार के सारे संकट हैं मनुष्य निर्मित
पर हम
पंगु हैं
भाषा
में उनकी पहचान अब संभव नहीं
धर्म
जाति कुल वंश देश भाषा समाज हैसियत
से परे
अब उसकी पहचान
वह
भाषा में समाता ही नहीं
कलाकारों
ने कहा कि
आकार–प्रकार दिखायी नहीं देता
शत्रु
है अगोचर
वह रूप
में अब बंधता नहीं
वह कभी
विचारों से उठता है
कभी
इरादों से
कभी
त्वचा की सूक्ष्म रंध्रों से
कवि ने
कहा कि सारे अतीत राजनीतिक हैं
और
वर्तमान भी राजनीतिक है
ऊपर
आकाश में चमकता चंद्रमा भी राजनीतिक है
राजनीतिक
हैं आकाश, धूप, परछाइयां, नदी, पोखर, पहाड़, हरियाली
और
आदिवासी भी
ख़ामोशियों
में किये गये एकालाप भी राजनीतिक हैं
हम हैं
सिर्फ़ एक कच्चा माल उनके लिए
रोग, जीवाणु, औषधियां, प्रयोगशालाएं
सब
राजनीतिक हैं
चिल्लाता
है कोई ईरान से कोई बल्गारिया से
जो
सेफ़्टी किट भेजा गया वह नक़ली है
त्वचा
की भी इस तरह से एक राजनीति है
सेनिटाइज़र
नहीं बचे थे अब
चिंतको, लेखको, कलाकारो, कवियो,
बौद्धिको!
तुम
अमर रहो
तुम्हारी
जन्म शताब्दियां मनायी जाती रहें
पिछले
युगों की तरह से निर्विघ्न
तुम्हारी
मेज़ों पर
जीवन
और मृत्यु के सवाल
जमा
रहें सारे शब्दकोश पैमाने सूक्ष्मदर्शी यंत्र
ध्वनियां
प्रतिध्वनियां मुहावरे तर्कों के विश्लेषण
और
कल्पनाएं
भी थोड़ी बहुत
इस बीच
लोग जो रोज़ थोड़ा थोड़ा ख़त्म होते जा रहे थे
थोड़े
से भोजन, थोड़ी सी सांसें, थोड़ी सी
नींद
और
दस बाई
दस की खोलियों में आठ-दस ठुंसे हुए लोगों के उदास चेहरों के बीच से
घर की
ओर लौटते नंगे पैर थे, भूख और जिल्लत की रोटी थी
घर पर
छह माह की बच्चियों को छोड़ आयी कुछ नर्सें थीं
एक
सफ़ाई कर्मचारी गली में झाडू लगता हुआ अकेला
इनके
आंसू छिप छिप जाते थे सेफ़्टी मास्कों के पीछे
चैनलों
पर नाच गानों के बग़ल में
सलमान
ख़ान , कैटरीना कैफ़ और कपिल शर्मा के बग़ल में
रोज़
मरने वालों के आंकड़े
मेरे
समय की सबसे बड़ी ख़बर थी
और
मृतकों की संख्याएं
वे
रोज़ पहले से ज़्यादा थीं उत्तेजक
रोज़
एक विकराल शोर शराबे में
मनाया
जाता था मृत्यु का महोत्सव एक अलग तरीक़े से
रोज़
एक नयी दिलचस्पी का सामान
जुटाया
जाता था कितनी मेहनत से
किसी
ने कहा कि बहुत कुछ घट रहा है
और कुछ
सिद्ध नहीं होता
आकाश
अपराध बोध से घिरा है
'इतिहास के अंत और सभ्यताओं के संघर्ष' की घोषणा वाली
वह किताब
धूल
चाट रही है कहीं
और एक
वायरस खोजता फिर रहा है सैमुअल हटिंग्टन की क़ब्र को
वुहान
से मिलान तक
न्यूयॉर्क
से ईरान तक
समय के
इस अज्ञात को कहां पकड़ा जा सकता था?
कहां
था उसका ठिकाना?
कौन से
पते और कौन से पिन कोड पर?
एक
वरिष्ठ कवि कह गया कि
-संसार की सभ्यताएं
अपने
अंतिम दिन गिन रही हैं I
दूसरा
वरिष्ठ कवि जाते जाते कह गया –
मुझे
विश्वास है
यह
पृथ्वी रहेगी
यदि और
कहीं नहीं तो
मेरी
हड्डियों में
मैं
अपने वरिष्ठ कवियों के अस्थि कलशों को स्पर्श करना चाहता हूं
और
संसार
के सारे म्यूज़ियम लॉकडाउन की घेराबंदी में हैं ।
मो0 98203 70825
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