विशेष स्मरण

डॉ. महादेव साहा : चलते-फिरते विश्वकोश

श्रीनारायण पांडेय

 डॉ. महादेव साहा जी (जन्म : अज्ञात, मृत्यु : 14 अप्रैल 2002) हिंदी जन-समाज में ‘दादा’ नाम से परिचित थे। विचारों में मार्क्सवादी, जीवन शैली में गांधीवादी। वे चलते फिरते विश्वकोश थे। कोई भौतिक संपदा उनके पास नहीं थी। न घर, न द्वार। अगर कुछ था तो बस किताबें। कहते थे कि किताबें इतनी होनी चाहिए कि उसी से शव जला दिया जाये। हम जब  बनारस से बी.. पास कर कलकत्ता (तब वह कलकत्ता ही था, कोलकाता नहीं) आ रहे थे, उस समय नामवर सिंह ने कहा था कि कलकत्ता जा रहे हैं तो डॉ. दादा से ज़रूर मिलिएगा। कलकत्ता आने पर मैं अलीमुद्दीन स्ट्रीट में स्थित स्वाधीनता कार्यालय में उनसे मिलने गया। वहीं पर अयोध्या सिंह, सूर्यदेव उपाध्याय, महावीर सिंह, बाद में इसराइल और अरुण माहेश्वरी से भी परिचय हुआ। उन दिनों साहा जी चीनी स्कूल के एक कमरे में रहते थे। कमरा किताबों से भरा, सोने की चौकी पर भी किताबें। वहां से दिलकुशा रोड, राय मेंसन, लेक रोड, फिर कुछ दिनों अरुण माहेश्वरी के यहां भी रहे। अंतिम दिनों में दिल्ली चले गये।

साहा जी अपने बारे में बहुत कम बात करते थे। कब कम्युनिस्ट पार्टी में आये, कहां शिक्षा दीक्षा हुई, कुछ नहीं। गांव गिराव की चर्चा तो बहुत दिनों बाद अपने एक पत्र में की। मगर देश दुनिया के बारे में जानकारी का कोई अंत नहीं। उनके नाम के साथ ‘साहा’ देखकर बंगाली तो उन्हें बंगाली ही समझते थे, क्योंकि बांग्ला पर बांग्लाभाषी जैसा अधिकार था। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेज़ी में उनकी ख़ासी पैठ थी। हिंदी वाले भी उन्हें बंगाली ही समझते थे, इसीलिए उनके नाम के साथ ‘दादा’ चल पड़ा। उन्होंने इस भ्रम को कभी तोड़ा भी नहीं। जब वे कलकत्ता से दिल्ली चले गये, तब उन्हें घर की याद आयी, बचपन याद आया। याद आये बचपन के संगी-साथी। मुझे लगता है, इसे उन्होंने प्रचारित भी न किया होगा। हमें पत्र में यह सब लिखने का कारण यह था कि हम उनके गांव-भाई थे। मुझे भी बाद ही में पता लगा कि इनका घर तो हमारे घर से महज़ दो कोस यानी छह किलोमीटर दूर, गांव अमोली, ज़िला भदोही, उत्तर प्रदेश में है। परिवार बचपन में ही कलकत्ता आ बसा, फिर यहीं के हो गये। परिवार की जाति बनिया रही है। यहां एक पत्र उद्धृत कर रहा हूं। मैं उन दिनों वर्धमान विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होकर इलाहाबाद आ गया था। वे उन दिनों दिल्ली चले गये थे और 12 विंडसर  प्लेस में रह रहे थे।

 प्रिय श्रीनारायण जी,

आशा है, सपरिवार सकुशल हो।... मैंने अपने गांव वालों से संपर्क करना चाहा, कई चिट्ठियां लिखीं, उत्तर नदारद। अमोली स्कूल के शिक्षक श्री रामेश्वर प्रसाद ने सब लिख भेजा। गांव वाले अब डेढ़ सौ गज़ की दूरी पर जंघई गोपीगंज की सड़क पर बस गये हैं। यहां से वे कुछ व्यापार आदि भी कर सकते हैं। कुछ दुर्गागंज और सुरियावां चले गये हैं।

गांव के जमींदार ठाकुर भगवती सिंह 95 के हैं। वे और गांव वाले [बुलाना] चाहते हैं। वहां जाने पर तुम्हें  लिखूंगा।

तुम्हारा

महादेव साहा

29/10/2000

शायद ही कोई ऐसा हो जिसे अपनी जन्मभूमि की याद भावविह्वल न कर देती हो। ऊपर ऊपर से देखने पर साहा जी बड़े कठोर लगते थे। यहां उनकी सहृदयता के परिचायक एक पत्र से कुछ अंश उद्धृत कर रहा हूं :

(डॉ. कैलाशनाभ पांडेय [हमारे भतीजे]) की चिट्ठी बराबर मिलती है। वह घर आते जाते बीच से ही निकल आते हैं, अब एक बार इधर होकर गये तो उनके संग ही गांव घर की ओर जाने का विचार है।

अमोली स्कूल के प्रधान शिक्षक बड़े सज्जन हैं। उन्हीं से पता चला है, ठाकुर रघुराज सिंह ज़मींदार के जिस पुत्र को मैं शैशव में छकौड़ी सिंह के नाम से जानता था, वह रघुराज सिंह के पुत्र भगौती सिंह हैं। 100 वर्ष के हो गये हैं। चाहते हैं कि मैं एक बार उधर जाऊं।

अमोली स्कूल के प्रधान शिक्षक  दुर्गागंज में रहते हैं, दोनों बेटे दवा का काम करते हैं। कहा है कि आने पर उन्हीं के यहां टिकूं। जाने आने में सुविधा होगी।

अमोली का जो हिस्सा बाज़ार कहलाता था, वह अब टूट फूट गया है। मेरे दरवाज़े का सुविशाल नीम का पेड़ सबकी याद कर रहा है।

बाजार अब पुरानी जगह से कुछेक गज़ पर सड़क के किनारे बस गया है। अमोली के ‘सोनार’ दुर्गागंज और सुरियावां में बस गये हैं। दो हलवाई कहां बसे नहीं जानता।

एक ज़रूरी काम है। ऊंट में लदनी करके जो अनाज आदि का काम करते हैं, उनमें कुछ एक प्रकार का गाना गाते हैं जो ‘पितया’ कहलाता है। एक टुकड़ा याद है, 'दुर्गा के चढ़ै मुर्गा और माई (काली) के चढ़ै बलिदान'। कई गाने लंबे लंबे भी हैं। मुट्ठीगंज में जहां अनाज का बाज़ार है, वहां किसी से परिचय करने से वे पितया गानेवालों से परिचय करा देंगे। गोपीगंज, जंघई आदि में भी वे मिलेंगे।

मेरा स्नेह और शुभकामनाएं लेना

तुम्हारा

महादेव

14/12/2001

12, Windser Place

New Delhi-110001

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इसके पूर्व का सन् 2000 का पत्र भी इसी से मिलता जुलता है। मैंने दोनों को इसलिए उद्धृत किया कि एक बार गांव जाने की इच्छा और दरवाज़े के सुविशाल नीम की याद उन्हें भीतर ही भीतर साल रही थी। काश, देख पाये होते! बिना देखे ही चले गये। गांव और गांव की संस्कृति से उनका अगाध प्रेम था। कई पत्रों में उन्होंने लिखा है कि गांव की संस्कृति का अध्ययन करना चाहिए।

गांव घर का पता तो उनके पत्रों से लग जाता है मगर कलकत्ता का ठौर ठिकाना अज्ञात ही है। हां, इतना देखा था कि बंगाल के विद्वत समाज में वे समादृत थे। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ. शशि भूषण दासगुप्त, गोपाल हालदार आदि उनकी इज़्ज़त करते थे। डॉ. शशि भूषण दासगुप्त की पुस्तक राधार क्रम विकास का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया था।

उनका राजनीतिक गुरु कौन था, नहीं मालूम, मगर साहा जी विवेकानंद के छोटे भाई भूपेंद्र नाथ से बहुत प्रभावित थे। उनके ही टेदुआ तालाब के पास वाले मकान में साहा जी के साथ मैं भी गया हूं। वे कम्युनिस्ट पार्टी के साथ कब जुड़े, इसकी जानकारी मुझे नहीं, किंतु अलीमुद्दीन स्ट्रीट वाले पार्टी ऑफ़िस में जो लोग उनसे मिलते-जुलते थे, उनसे लगता था कि साहा जी बहुत पुराने कार्यकर्ताओं में से थे। पहले संयुक्त पार्टी में थे, विभाजन होने पर 'कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी' के सदस्य बने, और आमरण उसी में बने रहे।

बंगाल के बुद्धिजीवियों और राजनीतिक सहकर्मियों के साथ उनका संबंध कैसा था, यह नीचे उद्धृत पत्र में देखा जा सकता है। सीपीआइ  ने अपनी बांग्ला पत्रिका परिचय का एक अंक गोपाल हालदार पर निकाला था। हमने साहा जी को उसके बारे में लिखा था। उसी संदर्भ में उन्होंने 24.11.94 को यह पत्र लिखा :

12, Windser Place

New Delhi-110001

 

प्रियवर, पत्र के लिए धन्यवाद। 18.10 का लिखा पत्र देर से पहुंचा।

गोपाल हालदार पुराने मित्र थे। मृत्यु के कुछ ही दिन पहले अंतिम बार भेंट हुई थी। पुराने जातीयतावादी आंदोलन से 1942 के समय पार्टी में आये थे। पार्टी के विभाजन के समय पुरानी पार्टी में ही रहे।

उनमें कट्टरता नहीं थी। सार्थक साहित्य भी काफ़ी मात्रा में सृजन कर गये हैं। संस्कृति पर किताबें और निबंध संग्रह हैं। अच्छे उपन्यासकार और निबंध लेखक थे।

कुछ वर्ष सुनीति कुमार के Research Associate रहे। Comparative Grammer of Eastern Bengal Dialects थीसिस है जिसे पेश कर डॉक्टर नहीं बने। अंग्रेज़ी साहित्य के विद्यार्थी थे। अपने ज़िले नोआखाली में कुछ दिन पढ़ाया भी था।

  मित्रों परिचितों की सहायता के लिए तैयार रहते थे। यह काम आजीवन किया। परिचय से पुराना संबंध था। अंक निकाल कर अच्छा किया। अंक हमने देखा नहीं है, तुम अच्छी तरह पढ़ो, जो पूछना हो पूछो। इसके बाद लिखो।

 

गोपाल बाबू जाने-माने मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। सुनीति बाबू के शिष्य थे। सुनीति बाबू साहा जी को भी मानते थे। इसी पत्र में साहा जी ने इसका भी उल्लेख किया है कि '(सुनीति बाबू ने) अपने शिष्य और सहकर्मी सुकुमार सेन और गोपाल हालदार को एक एक पुस्तकें समर्पित कर  गये हैं। एक मुझे भी समर्पित की थी। कुछ लोगों को अचरज हुआ। मैंने मना किया था लेकिन  सुनवाई नहीं हुई।' और भी बहुतेरे बांग्ला बुद्धिजीवियों के साथ उनके संबंध थे। हमने डॉ. शशि भूषण दासगुप्त का उल्लेख किया है, जिनकी पुस्तक राधार क्रम विकास का अनुवाद साहा जी ने राधा का क्रम विकास नाम से हिंदी में किया था। जब शशि बाबू चर्या गीति पर काम कर रहे थे, तब डॉ. साहा ने राहुल जी द्वारा संग्रहीत सामग्री देकर उनकी मदद की थी।

हिंदी बुद्धिजीवियों में तमाम मार्क्सवादी और 'ग़ैरमार्क्सवादी बुद्धिजीवी उनकी ज्ञान संपदा से उपकृत हुए हैं। मैं विशेष रूप से राहुल जी और उनके संबंधों की चर्चा करूंगा। राहुल जी कलकत्ता आये थे तो मैं भी साहा जी के साथ उनसे मिलने गया। पश्चिम बंगाल में प्रेमचंद और राहुल जी पर बड़े धूमधाम से आयोजन किये गये थे। वर्धमान विश्वविद्यालय में राहुल पर हुए आयोजन में साहा जी गये थे। उसके बाद उनसे जो ख़तो-किताबत हुई थी, उसके कुछ अंश दे रहा हूं।

दिल्ली से 4.3.91 के एक पोस्ट कार्ड में लिखा है कि

केदार भाई [राहुल सांकृत्यायन] 8 अप्रैल 1992 को 99 पूरा करेंगे। पटना के मित्रों ने सुझाव मांगा था। दे दिया है। अभी से 100 वीं वर्षगांठ का उत्सव शुरू करें। पिछले साल 9 अप्रैल को वहां के गणमान्य लोगों ने बड़ी एक सभा की थी। जीवन यात्रा के दो ही खंड कुछ परिश्रम से लिखे गये हैं। यूं उसके 5 खंड हैं। केदार भाई सैगर (अधिक) लिखने में विश्वास करते थे। प्रतिक्रियाशील चीज़ें भी लिख गये हैं। पी०पी०एच० से ‘विविध प्रसंग’ मंगाकर पढ़ना।

भारत के मुसलमानों की भाषा, खाना और लिबास वही हो जो बहुमत का है - ऐसी बातों के लिए पार्टी से निकाले गये थे। माफ़ी मांग कर फिर पार्टी में आये। कम्युनिस्ट की हैसियत से केदार भाई मेरे शिष्य थे। मेरा स्नेह बना हुआ है।

 दिल्ली से ही 15.2.92 को पोस्ट कार्ड लिखा:

20, R.P.Road.

New Delhi-110001

प्रियवर,

पत्र के लिए धन्यवाद।

केदार भाई [राहुल सांकृत्यायन] की जन्मशती मनाने के लिए बांग्ला अकेडमी, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कलकत्ते के बांग्ला के प्रकाशक जितने आग्रही हैं, वह बात अभी तक हिंदी में कहीं नहीं दिखायी पड़ रही है। निश्चित है कि आगे आग्रह पैदा होगा। ... दो वर्ष पहले] राहुल स्मृति नामक एक बड़ी पुस्तक निकली है। कई दर्जन लोगों ने उनके बारे में लिखा है। ग़लतियों की कमी नहीं है। बेवकूफ़ियां भी हैं।

तुम्हारा

महादेव साहा

और भी कई ऐसे पत्र हैं, जिनमें राहुल जी की चर्चा है। ज़ुबानी संस्मरण तो कई बताया करते थे।

हिंदी के और भी लेखकों के लेखन से उनका परिचय था। इस ज्ञान अर्जन के लिए उन्होंने कितने पुस्तकालयों और पुस्तक की दुकानों की खाक छानी रही होगी, इसका अनुमान उनके पत्रों से लगाया जा सकता है। बाबू हरिश्चंद्र ने हंटर एजुकेशन कमीशन को जो स्मारक पत्र दिया था, उसकी ज़रूरत थी। मैंने साहा जी को लिखा। उन्होंने 16.7.87 के अपने पत्र में लिखा :

     प्रियवर,

ने. ला. [नेशनल लाइब्रेरी] के  एनेक्सी बिल्डिंग के दोतल्ले पर सुभाष मजूमदार से मिलना। वे Education Commission  की रिपोर्ट ढूंढ़ने में सहायता करेंगे, … लिखित जीवन चरित्र (W.W. Hunter का) मेन बिल्डिंग में मिलेगा।

रीडिंग रूम में दक्षिण की ओर Dictionary of National Biography में भी Hunter देख लेना। Report के Evidence वाले खंडों में हरिश्चंद्र बनारसी के अलावा औरों ने भी हिंदी का समर्थन किया था, देख लेना।

1917-18 की सरस्वती में महावीर द्विवेदी ने युद्ध के बारे में क्या लिखा था, यह लिखना।

बाल मुकुंद गुप्त ग्रंथावली अपने मित्र लाइब्रेरियन से प्राप्त करना कुछ दिनों के लिए।

स्नेह लेना-

तुम्हारा, महादेव साहा

 

हमने साहा जी के बताये अनुसार हरिश्चंद्र द्वारा प्रेषित रिपोर्ट नेशनल लाइब्रेरी से प्राप्त की जो हमारी पुस्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र: नये संदर्भ की तलाश में शामिल है।

हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद द्विवेदी की ही तरह पत्रों में आचार्य शुक्ल जी का भी उल्लेख है।15.7.85 को दिल्ली से लिखे गये एक पत्र का अंश उद्धृत कर रहा हूं,जिससे पता लगेगा कि हिंदी लेखकों में उनकी कैसी रुचि थी :

12, Windser Place

New Delhi-110001

प्रियवर श्रीनारायण,

18.4 की चिट्ठी यहां पर समय से पहुंच गयी थी। जहां मैं रहता हूं, वहीं हमारा संसदीय कार्यालय है, रोज़ दर्जनों चिट्ठियां आती हैं ... तुम्हारी चिट्ठी भी ग़लती से संसदीय चिट्ठियों में चली गयी, और अब तक वहीं पड़ी रही। अब मुझे मिली है और उत्तर लिख रहा हूं।

अवधेश नारायण सिंह का ‘राहुल का अपराध’ निबंध है। 1938 में किसान आंदोलन के सिलसिले में राहुल की गिरफ़्तारी, ज़मींदारों द्वारा मारपीट, जेल में अनशन आदि का ब्यौरा इसमें है। पुस्तक नेशनल लाइब्रेरी में है। पढ़ते जा रहे हो, यह प्रसन्नता की बात है। काम की चीज़ों को नोट करते जाओ, पुस्तकादि के नाम, संस्करण, प्रकाशन तिथि, इत्यादि के साथ।

शुक्ल जी की रचनाएं पढ़ डालो। किस भाषा से क्या लिया है, उसे भी देखो। राखालदास बनर्जी ने क्या लिखा था (उपन्यास) और उसकी जगह पर शुक्ल जी ने क्या बनाया, यह ध्यान से नोट करना, एक लेख लिखो।-

अर्नस्ट हेकल (1834-1919) ने 1899 में डाइवेल्ट ट्राइट सेल (The Riddle of the Universe) लिखी। शुक्ल ने अनुवाद में डट कर जोड़ा घटाया है। मूल से अनुवाद को अच्छी तरह मिलाना चाहिए। जो जोड़ा है, उस पर लिखना चाहिए। पुस्तक का दुनिया की कई भाषाओं में तर्जुमा हुआ था। प्रतिगामियों ने हेकल का विरोध किया था। प्रगतिगामियों के लिए पुस्तक ‘वर्ग संघर्ष’ का हथियार बन गयी थी। लेनिन ने हेकल का पक्ष लिया था। बाद में हेकल कुछ बदल गया था।

शुक्लाइन के अनुवादों और शुक्ल की भूमिका पर भी लिखना। मूल को भी मिलाना, अनुवाद से। बांग्ला साहित्य में उन उपन्यासों के विषयों में क्या लिखा गया है जिसका अनुवाद शुक्लाइन ने किया है, यह भी देखना। (आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने इस पर एक लेख लिखा है।)

हेकल की जिस जर्मन पुस्तक डाइबेल्ट ट्राइट सेल के अंग्रेज़ी अनुवाद The Riddle of the Universe का अनुवाद शुक्ल जी ने विश्व प्रपंच नाम से किया था, और जो नागरी प्रचारिणी सभा से छपी थी, उस पर साहा जी अधिक गंभीर थे। हमें लग रहा है कि जिस पुस्तक की प्रशंसा लेनिन ने की थी, और जिसे उस समय के प्रगतिगामियों ने वर्गसंघर्ष का हथियार बनाया था, उसकी धार को शुक्ल जी ने गोठिल कर दिया है। इसलिए उन्होंने साल भर बाद, 29.7.86 के पत्र में फिर याद दिलाया कि ‘भौतिकवादी पुस्तक को शुक्ल ने चौपट करके रख दिया था। दोनों को मिला कर पढ़ना होगा। इसके बाद लिखने की बारी आयेगी।’

हमने प्रयत्न किया था, तब भी और आज भी, कि मार्क्सवादी या 'ग़ैरमार्क्सवादी किसी आलोचक ने इस पर कुछ लिखा है या नहीं। यों रामविलास जी ने शुक्ल जी पर पूरी किताब ही लिखी है और नामवर सिंह ने शुक्ल जी की रचनाओं का संकलन कर चिन्तामणि भाग 3 निकाली है। विश्व प्रपंच की भूमिका तो उसमें है, मगर अनुवाद प्रसंग पर ख़ामोश हैं।

जिस तरह हिंदी साहित्य का उनका ज्ञान था, उसी तरह अन्य विषयों का भी था। जिस हंटर की चर्चा हमने ऊपर की है, उसके बारे में उन्होंने दिल्ली से 16.7.87 के एक पत्र में लिखा कि ‘William Wilson Hunter (1840-1900) अपने दृष्टिकोण से बहुत बड़े-बड़े काम कर गये हैं। 1882-83 के Education Commission के चेयरमैन थे। कठुमुल्ला सिविलियन नहीं थे। उनकी Brief History of the Indian Peoples (1883) पढ़ लेना।’

अंतिम दिनों तक स्वयं ज्ञान अर्जित करना और दूसरों को ज्ञानार्जन करने के लिए प्रेरित करते रहना उनका  सहज धर्म था। पत्रों में ऐसे बहुतेरे प्रमाण हैं। 10.1.97 का एक पत्र है। मैं उन दिनों वर्धमान विश्वविद्यालय में था। उन्हें जिन पुस्तकों की ज़रूरत थी, उनके बारे में लिखा था: William Bolts - Considerations on Indian Affairs (3 Vol-1772-75) और Report of Indigo Commission वि०वि० की  लाइब्रेरी में है क्या?

हरीनाथ दे नेशनल लाइब्रेरी के ख्यातनाम पुस्तकालयाध्यक्ष थे। कई भाषाओं के ज्ञाता थे। नेशनल लाइब्रेरी कलकत्ता में उनका चित्र लगा है। उनके बारे में 29.12. 94 की एक चिट्ठी में लिखा था : ‘बर्दवान के महाराज इस शताब्दी के पहले दशक में पोप से मिले थे। हरिनाथ दे को संग ले गये थे। दे ने लैटिन में ही पोप से बात की थी। पोप प्रसन्न हुए और कहा कि दे को इटालियन भी पढ़ लेनी चाहिए। दे ने उन्हें इटालियन में भी एक भाषण सुना दिया था। विवरण मिले तो भेजना।’

अपनी बैठकी में भी इस तरह की बहुत सी बातें बताया करते थे। उन्होंने बांग्ला, हिंदी, तथा अंग्रेज़ी के कुछ ग्रंथों का अनुवाद और संपादन भी किया था। प्रेमचंद उनके प्रिय लेखक थे। प्रेमचंद के परिवार में पत्नी शिवरानी देवी और पुत्र अमृत राय से उनका घनिष्ठ संबंध था। उन्होंने राय मेंसन्स, बेहला, कलकत्ता-700034 से 19.8.89 को लिखे एक पत्र में बताया है कि ‘मैंने प्रेमचंद के कुछ निबंधों और टिप्पणियों आदि का बांग्ला में तर्जुमा किया है। नेशनल बुक एजेंसी ने इसे प्रेस में दे दिया है। दो फ़र्मे छप भी गये हैं, किताब 6-7 फ़र्मे की होगी। एक भूमिका भी लिख देना होगा। किताब अक्टूबर तक निकल जायगी।’

अमृत राय ने प्रेमचंद के अप्राप्य साहित्य का जो संकलन विविध प्रसंग नाम से निकाला है, उसमें साहा जी ने स्वयं भी सहयोग किया था और हमारे द्वारा संकलित सामग्री भी उन्हें दिलवा दी थी।

बात बात में साहा जी इतनी बातें बताते थे कि हम जैसों को आश्चर्य होता था, इतना कुछ उन्होंने कैसे अर्जित किया। एक बार की बात है, हमने डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय द्वारा अनूदित गार्सा द तासी के हिंदी साहित्य के इतिहास चर्चा की। उसमें वार्ष्णेय जी ने लिखा था कि यह भारतीय भाषा में पहली बार अनूदित इतिहास है। साहा जी ने कहा कि यह ठीक नहीं है, फ़ैलन और करीमुद्दीन ने इसका अनुवाद बहुत पहले उर्दू में कर दिया था। साहा जी ने बताया कि किताब नेशनल लाइब्रेरी में है। हमने नेशनल लाइब्रेरी में किताब पढ़ कर एक लेख तैयार किया, जो संभवत: 1956 में कल्पना के किसी अंक में दोनों जनों के नाम से छपा। विद्वानों द्वारा तथ्य स्वीकृत भी हुआ। कई अप्राप्य पुस्तकें उन्होंने ब्रिटिश इंडियन लाइब्रेरी से मंगवायी थीं। मेधा और स्मृति दोनों के धनी थे। बिना पढ़े कुछ लिखने में विश्वास नहीं था। कहते थे, जर्मन विद्वान 10 पुस्तक पढ़ कर एक पुस्तक लिखते हैं और हमारे यहां एक पढ़कर 10 लिखते हैं, कुछ विद्वान तो बिना पढ़े ही लिखते हैं। पढ़ाई एक नशा है, आज के लोगों का नशा कुछ और है। साहा जी को एक ही नशा था, पढ़ने लिखने का।

एक बार द्वितीय महायुद्ध में चर्चिल की भूमिका पर बात हो रही थी। उन्होंने चर्चिल के मेम्वायर्स की बात करते हुए बताया कि चर्चिल ने युद्ध के समय एक समिति बनायी थी, उसमें जे.डी. बर्नल को भी रखा था। बर्नल जाने-माने मार्क्सवादी वैज्ञानिक थे। लोगों ने इसका विरोध किया कि वे कम्युनिस्ट (रेड) हैं। चर्चिल ने कहा बर्नल फ़्लेम (लौ) से भी ज़्यादा लाल क्यों न हों, हमें उनकी आवश्यकता है।

डॉ. साहा अपनी उपलब्धियों के प्रति उदासीन थे। उन्होंने क्या लिखा, कहां लिखा, कितनी पुस्तकों का संपादन किया, अनुवाद किया, इसका कहीं ज़िक्र नहीं किया। यह उनके पत्रों में थोड़ा बहुत मिलता है। उन्होंने 7.9.91 के एक पत्र में लिखा कि ‘तुम तो पांच छ महीने में पोस्ट कार्ड लिखते हो। छह सौ लेता हूं, 50-60 रुपये मासिक पत्राचार में ख़र्च करता हूं।’ किंतु उन्होंने किस-किसको पत्र लिखे, इसका भी अता-पता नहीं। इतना जानता हूं कि प्रसिद्ध रूसी अकादमीशियन याकोब से लेकर बांग्लादेशी विद्वान डॉ. शहीदुल्ला तक से उनके पत्राचार हुए हैं। उन्हें जो पत्र मिले, उनका भी पता नहीं। मालूम नहीं, उनकी किताबों का अमूल्य संग्रह किसके पास है। अभी भी उनके संपर्क में आने वाले लोग हैं। मगर कौन किसकी ख़बर रखता है।

कौन याद रखता है, बुरे दिन के दोस्तों को।

सुबह होते ही चिराग़ बुझा बुझा देते हैं।                                                                                                              

मो. 8004040576

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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