कोरोना काल : तबाही के मंज़र-1


कोरोना और किसान : दूबरे के लिए बस आषाढ़ ही आषाढ़

बादल सरोज

युद्ध और महामारी लुटेरे शासकों के लिए हमेशा मुफ़द और फ़ायदेमंद होती है।’

यह सूत्रवाक्य कौटिल्य  के अर्थशास्त्र में मिलता है। कौटिल्य मतलब वही चाणक्य जो आज से 2395  साल पहले, अब पाकिस्तान में रह गये, रावलपिंडी में जन्मे थे और 2303 साल पहले पाटलिपुत्र पटना में मरे थे। मगर मर कर भी वे गये कहीं नहीं हैं, पूंजीवादी दुनिया के धताकर्मों में ज़िंदा हैं।  वे 12 मई को प्रधानमंत्री मोदी के मुंह  से बोल रहे थे जब वे खिलखिलाये चेहरे के साथ गदगद होकर दुनिया के ज्ञात इतिहास की सबसे संक्रामक और अब तक क़ाबू में नहीं आयी कोविद-19 की महामारी को एक अवसर बता रहे थे।  
देशी विदेशी कारपोरेट के 40 चोरों को कारूं के ख़ज़ाने का ‘खुल जा सिमसिम’ पासवर्ड बता रहे थे। कोरोना महामारी मोदी जैसों के लिए देश और जनता की जमा और अर्जित संपत्तियों को कारपोरेट भेड़ियों के महाभोज में परोसने की संभावना भर नहीं है। वह तो है ही। यह  दौलत पैदा करने वालों की लूट को और निर्मम और तीखा और अमानवीय बनाने की साजिश भी है। यह सब करना है तो मूल्य जोड़ने वाले, असल में संपत्ति पैदा करने वाले मज़दूर  किसानो के पैरों में बेड़ियां, हाथों में हथकड़ियां डालना ज़रूरी है - उनकी आवाज़ घोंट  देने के लिए  मुंह को बांधना आवश्यक हो जाता है।  ठीक इसी काम में लगी है महामारी को मौक़ा मानने वाली, आज़ादी के बाद की सबसे बर्बर और असभ्य सरकार। भारत की खेती और उससे जुड़े किसान ख़ासतौर  से नवउदारीकरण के पिछले  तीन दशकों में, खेती को दी जाने मदद के ख़ात्मे और बाज़ार खोलकर कृषि उत्पादों  को असमान प्रतियोगिता में धकेल देने आदि की जिन आफ़तों से गुज़रे हैं उसे  तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है ; बद, बदतर, बदतरीन। ग्रामीण भारत के सबसे प्रामाणिक पत्रकार और एक्टिविस्ट पी साईंनाथ के शब्दों कहें तो ‘खेती का संकट समूची कृषि के संकट (एग्रेरियन क्राइसिस) से होता हुआ अब सभ्यता के संकट (क्राइसिस ऑफ़ सिविलाइज़ेशन) का रूप ले चुका है।’ मतलब यह कि अब किसी भी तरह जीवन बचाने की पहेली सिर्फ़ खेती करने वाले 10 करोड़ पूर्णकालिक किसानो की नहीं रही। यह 6 महीने से कम खेती का काम करने वाले अंशकालिक किसान और खेतमज़दूरों से होती हुई देहाती अर्थव्यवस्था पर निर्भर जुलाहों, मिस्त्री, बढ़ई, दर्जी, पशुपालक, वनोपज संग्राहक, छोटे दुकानदारों को भी अपने दायरे में लेते हुए देश की आधी आबादी को चपेट में ले चुकी है। यह एक असाधारण स्थिति है — सिर्फ़ आज नहीं दूरगामी कल और एक बड़े कालखंड तक असरकारक रहने वाली है। यदि इसे अनकिया करने के लिए तुरंत कुछ नहीं किया गया तो इसके प्रभाव सिर्फ़ आर्थिक नहीं होंगे, सभ्यता, संस्कृति, सोचविचार सहित सामाजिक ढांचे और बुनावट को भी नकारात्मक तरीक़े से बदलने वाले होंगे। कोरोना विपदा - जिसे पेंडेमिक और महामारी कहा जा रहा है —ने इस दिशा में गिरावट और पराभव दोनों ही तीव्र कर दिये हैं।
अब तक के नीतिजनित संहारों से  लहूलुहान खेती और किसानी को तुग़लक़ी तरीक़े से किये गये कोरोना लॉकडाउन ने मृत्युशैया पर पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। रबी की फ़सल काटने के ऐन पहले थोपे लॉकडाउन ने उसकी कटाई और गहाई रुकवा दी। जैसे तैसे फ़सल काट भी ली तो कोविद-19 प्रोटोकॉल की आड़ में सरकारें उसे ख़रीदने से साफ़ मुकर गयीं। बड़े आढ़तिये और कारपोरेट एजेंसियां ख़रीद में कूद पड़ीं। किसान को स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के मुताबिक़ दाम मिलना तो दूर रहा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी नहीं मिला। नकदी फ़सल के हाल तो और भी बुरे हुए। लाखों टन कपास नहीं बिका – ताज़े भविष्य में उसके बिकने के आसार भी नज़र नहीं आ रहे। गन्ना, फल, फूल, सब्ज़ी, डेरी उत्पाद सब किसान की आंखों के सामने पड़े हैं - सड़ गल रहे हैं। आमदनी और मुनाफ़ा छोड़िए लागत भी नहीं निकली - नतीजे में ख़रीफ़ की फ़सल के लिए बीज, खाद, कीटनाशक ख़रीदने के लिए भी गांठ में कुछ नहीं बचा। उस पर महामारी को अवसर मानने की आपराधिक समझदारी के अमल में आवश्यक वस्तु अधिनियम और एपीएमसी में किये गये बदलावों से फ़सल की ख़रीदी में देसी विदेशी कारपोरेट कंपनियों को खुली छूट देने से स्थिति में सुधार की सारी संभावनाएं समाप्त कर दी गयी हैं। सीधे कृषि के अलावा उससे जुड़े समाज में ऐसे अनेक उद्यम और रोज़गार हैं जो कालातीत होने जा रहे हैं।  नाई, मछुआरे, जुलाहे, बुनकर, हैंडलूम और हैंडीक्राफ्ट - सब फ़िलहाल समाप्त हैं। ये छोटे मोटे काम नहीं हैं। खेती के बाद का सबसे बड़ा रोज़गार हैंडीक्राफ्ट और हैंडलूम है जिनके लिए कोई उम्मीद बर नहीं आती - कोई सूरत नज़र नहीं आती। इसके अलावा एक बड़ा रोज़गार शिक्षकों का है जिनकी विलुप्ति का ज़रिया ऑनलाइन शिक्षा के बाज़ार में कूदी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खोजा जा चुका है।
दूसरी बड़ी और गुणात्मक घटना प्रवासी मज़दूरों की वापसी है - असल में इस विषय को प्रवासी मज़दूरों का मानना ही एक ग़लत समझदारी है।  ये प्रवासी मज़दूर नहीं है, इनका विराट बहुमत विस्थापित किसान हैं। वे किसान जो गांव में अपनी ज़मीन पर ज़िंदा नहीं रह पाये और कमाई की आस में बाहर चले गये। इन्हे माइग्रेंट लेबर कहने वाले भारतीय ग्राम समाज के बारे में कुछ नहीं जानते। बिहार, पंजाब, ओड़िसा हो या झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ हो, कहानी एक सी है। परिवार का पिता या बड़ा भाई गांव में खेती देखता है, बाक़ी भाई मज़दूरी करने बाहर जाते हैं।  दोनों की आमदनी से बमुश्किल घर चलते है।  इनकी तादाद हर रोज़ बढ़ रही है। जनगणना रिपोर्ट बताती है कि नवउदार नीतियों के काल में 1991 से 2011 के बीच सरकार की नीतियों से आजिज आकर, खेती किसानी के घाटे के चलते डेढ़ करोड़ वयस्कों ने खेती छोड़ दी।  हर रोज़ 2500 किसान किसानी छोड़ रहे हैं। यों भी इस देश में 85 प्रतिशत किसान लघु या सीमांत किसान हैं - मतलब वे किसान जिनका अपनी खेती से गुज़ारा नहीं चल सकता।  घर में से कुछ को काम करने बाहर जाना ही होता है। आधी ग्रामीण आबादी भूमिहीन या खेतमज़दूर है। यही वजह है कि भारत के मज़दूर की ख़ासियत गांव के साथ उसका रिश्ता है। यह बहस चल रही है कि जो मज़दूर लौटे हैं वे वापस जायेंगे या नहीं, जायेंगे तो कब जायेंगे - जबकि सही आंकलन करना है तो इस सवाल को सिर के बल खड़ा करने की बजाय इसके पांवों पर सीधा खड़ा करना होगा और वह यह होगा कि ये गांव से शहर गये ही क्यों थे ?
2011  जनगणना के अनुसार भारत में कुल प्रवासी - काम की तलाश में अपने राज्य से दूसरे राज्य, अपने ज़िले से बाहर जाने वाली आबादी 45 करोड़ 36 लाख थी। कुल आबादी का करीब 37% - इनमें से अनेक जहां गये वहां बस गये। ज़्यादातर मामलो में अपने ग्रामीण परिवारों की आमदनी का ज़रिया बने रहे। अभी कोविद-19 के हमले के बाद प्रभावित हुए प्रवासी ही गिन लें तो वे कम नहीं हैं। प्रो अमिताभ कुंडू की शोध के मुताबिक़ ये कोई 65 मिलियन हैं - 6 करोड़ 50 लाख।  विश्व बैंक ने अपनी 22 अप्रैल की रिपोर्ट में इसे 40 मिलियन याने 4  करोड़ बताया।  वही सेंटर फ़ॉर डेवलपमेंट स्टडीज़ (सीडीएस) के मुताबिक़ इनकी संख्या 5 करोड़ है।  इनमे से 73% प्रवासी मज़दूर कोरोना लॉकडाउन के बाद अपना रोज़गार खो चुके हैं - यह आंकड़ा बेरोज़गारी के उस अनुमान के साथ पढ़ा जाना चाहिए जिसे सीएमआईई ने दिया और बताया कि कोई 14 करोड़ बेरोज़गार हो चुके हैं। अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सर्वे के हिसाब से शहरी इलाक़ों की आबादी का 29 प्रतिशत रोज़ कमाने खाने वालों का है और उनके सर्वे के अनुसार शहर के 10 लोगों में से 8 का काम छिन चुका है।
भारत के इतिहास का यह सबसे बड़ा मानव पलायन है - 5000 वर्ष की सभ्यता के लिखित इतिहास में पृथ्वी के इस खंड, जिसे भारत कहा जाता है,  में लोग आये और बसे, भारत को बसाया शक, हूण, कुषाण, यवन, तुर्क, मंगोल, गुर्जर, आर्य और न जाने कितने क़बीले और समूह आये और बसे और भारत बनाया। फ़िराक़ गोरखपुरी के शब्दों में ‘सरज़मीने हिंद पर अक़वामे आलम के फ़िराक़/ काफ़िले बसते गये हिंदोस्तां बनता गया।‘।  आगमन का इतिहास है पलायन का नहीं।  इतने कम समय में  इतना बड़ा पलायन तो कभी नहीं हुआ - यह महापलायन है।
एक बार अंग्रेज़ों के राज में यह हुआ था। 18 वीं सदी में शहरी आबादी 50 प्रतिशत थी जो 19 वी सदी  में 15 प्रतिशत रह गयी।  यह अंग्रेज़ों की नीति का असर था। ढाका की आबादी 1880 में 2 लाख थी जो 1890 में 79 हज़ार और 1910 आते आते  20 हज़ार रह गयी। मगर यह 80-90 वर्षों में क्रमशः हुआ था। एक पलायन 1896 में बंबई से तब हुआ था जब वहां प्लेग फैला था - बंबई की तब की कुल आबादी साढ़े आठ लाख थी - जिसमें से 4 लाख लौट आये थे।  मगर यह अस्थायी वापसी थी। इस बार वापसी अस्थायी नहीं है - आधे से ज़्यादा यदि वापस जाना चाहेंगे भी तो नहीं जा पायेंगे क्योंकि मंदी उनका काम हज़म कर चुकी होगी। जो पहुंचेंगे वे श्रम कानूनों की समाप्ति के बाद 12 घंटे काम और घटी आमदनी पर कितना टिक पायेंगे ये अलग कितु ज़रूरी सवाल हैं। यहां इस महापलायन के किसानी और देहाती अर्थव्यवस्था पर होने वाले असर तक ही बात को सीमित रखते हैं।
यह मामला भी अब नक्की हो चुका है कि क्या इसे टाला जा सकता था। चार घंटे के नोटिस की बजाय 4 दिन की पूर्व सूचना से लॉकडाउन होता,  धड़ाधड़ रेलगाड़ियां, बसें चलायी जातीं - लॉकडाउन में रहने, खाने और वेतन देने की गारंटी की जाती - जिन्हे लौटना होता वे आ जाते - ज़्यादातर वहीं रुक जाते। केरल में ऐसा ही हुआ - वहां 25 से 30 लाख केरल के बाहर के कामगार हैं - गेस्ट लेबर, अतिथि श्रमिक ; इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इनमे से सिर्फ़ 3 या 4 प्रतिशत वापस लौटे हैं ।
बड़ा सवाल यह है कि इस वापसी के क्या असर होंगे। मोटे तौर पर इसके तत्काल तीन आर्थिक असर होने वाले हैं।  पहला इनके ज़रिये गांव आने वाली वाली आमदनी बंद हो जायेगी। दूसरा पहले से अपर्याप्त संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा, तीसरा श्रम सस्ता होगा, जो काम मिलेगा उसमे दाम कम मिलेगा।  मैक्रो असर भी होंगे. अनौद्योगीकरण का ख़तरा बढ़ेगा ।  मंदी गहरी और दीर्घायु होगी ।
मनोवैज्ञानिक और सामाजिक असर भी होना तय है, वे तो दिखना शुरू भी हो चुके हैं। वापसी में जो लांछना, प्रताड़ना और अपमान झेला है उसकी कोई मिसाल नहीं। दिल्ली को संवारने वाले जब खदेड़ दिये गये तो रेलवे स्टेशन, बस अड्डों पर हज़ारों की तादाद में खड़ी भीड़ को भाजपा - आम आदमी पार्टी जैसे दलों और खाये अघाये लोगों ने दुत्कारा, बिहारी या जौनपुरिया होना गाली की तरह उपयोग में लाया, उन्हें महामारी का ज़िम्मेदार बताया।  इसने जो वेदना दी है उसे ठीक होने में  कितने वर्ष लगेंगे।  बिहारी, पुरबिये, भइये कहकर विभाजन की राजनीति करने वालों ने इस जनता के श्रम का अनादर ही नहीं अपमान भी किया है।
इसके अलावा वापसी के झमेले और अलग भी है ; उनमे  पारिवारिक कलह ,संपत्ति विवाद, बंटवारे की हायतौबा और ख़ाली दिमाग़ शैतान के घर मार्का घटनाएं शामिल हैं । इनका बड़ा शिकार होने वाली हैं महिलाएं और उनके साथ इसे भुगतेंगे बच्चे, जिनसे पढ़ाई भी छिनेगी कैलोरी भी और चौपट होगा ।
बीस लाख करोड़ के पैकेज में किसानों के लिए कुछ मत ढूंढ़िए - मेहनत व्यर्थ जायेगी।  कृषि के नाम पर जो है भी वह कृषि आधारित उद्योगों (एग्री-बिजनेस) के लिए है।  किसानों के लिए, देहाती आबादी के लिए बस जुमले ही जुमले हैं या फिर हर तरह के निजीकरण, कारपोरेटीकरण और श्रम तथा किसानी के क़ानूनों का बदला जाना है जो महाविनाश का कारण बनेगा। यों भी दरबारी पूंजीवाद में दरबारी मालामाल होते हैं  — देश और उसके वासी तो बदहाल ही होते हैं ।
किसान संगठनों, वाम दलों ने इससे उबरने के  फ़ौरी, मध्यावधि और दीर्घावधि ठोस क़दम सुझाये हैं, जिन्हे दोहराने की बजाय एक वाक्य में कहा जा सकता है कि मौजूदा रास्ता बदलो, सामाजिक आर्थिक न्याय पर आधारित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर वापस लौटो। मगर भारत में इस बार हालात कुछ ज़्यादा ही जटिल हैं, क्योंकि हमला कुछ ज़्यादा ही बुनियादी और सर्वआयामी है। भारत की विशेष परिस्थिति में कोरोना को समझना होगा — कोरोना मतलब कोविद-19 प्रोटीन का एक अणु  है जिसके चारों तरफ़ चर्बी की एक परत है।  ठीक वैसे ही भारत में पोंगापंथ और पिछड़ी चेतना का एक संक्रामक हानिकारण अणु है जिसका नाम मनुस्मृति है - जो कारपोरेट की चर्बी लपेट कर आया है।  वे एक ऐसा समाज लाना चाहते हैं जिसमे उनका युद्ध अपने ही देश के नागरिकों के ख़िलाफ़ है। वे कोरोना को टोपी पहना रहे हैं, उसकी जाति, वर्ण और वर्ग तय कर रहे हैं। अभी मुसलमानों के ख़िलाफ़ हैं, उन भारतीय नागरिकों के जिन्होंने बंटवारा ठुकराया था — हज़ार साल में भारतीय सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, कला और निर्माण से भारत को समृद्ध करने में बहुमूल्य योगदान दिया था. किंतु वे भी सिर्फ़ रैलिंग पॉइंट हैं, असली निशाना 85 प्रतिशत भारतीय हैं जो मनु के श्रेणीक्रम में दलित, शूद्र, पिछड़ी जाति और आदिवासी हैं। वे महिलाएं हैं जिन्हें ये ठग शूद्रातिशूद्र मानते हैं।  लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले कर रहे हैं, असहमति को कुचलने के लिए 1975 की इमरजेंसी से हज़ार गुना अधिक तानाशाही थोप रहे हैं। भारत में कोरोना की समाप्ति के लिए - इस मनु नाम के अणु और कारपोरेट नाम की चर्बी के खोल - दोनों से लड़ना होगा।

और अंत में  :
इस टिप्पणी का अंत शुरुआत में कही गयी बात के पुनरावलोकन के साथ करना ठीक होगा।  और वह यह है कि कौटिल्य अंतिम सत्य नहीं हैं। युद्ध और महामारियां इतिहास की धारा को बदल भी सकती हैं। इसके सिर्फ़ तीन ही उदाहरण काफ़ी हैं। 1346 से 1353 में यूरोप में आयी और उस महाद्वीप की तक़रीबन आधी आबादी को मार डालने वाली ब्लैक डेथ महामारी में  इतने सारे लोग मारे गये कि नतीजे में दास प्रथा पर चोट पडी, मज़दूर कम रह गये तो  मज़दूरियां भी बढ़ीं और मजबूरी में आकर नयी तकनीक खोजने के लिये ख़र्चा, ज़िद और पहलें भी बढ़ीं।
इसी तरह 1914-1918 का पहला विश्वयुद्ध था जिसके बीच साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच तीखे हुए टकरावों का फ़ायदा उठाते हुए 1917 में दुनिया की पहली समाजवादी क्रांति हुई। यही दूसरे विश्वयुद्ध (1939-1945) में हुआ जिसने दुनिया की भू-राजनीतिक दशा ही हमेशा के लिए बदल कर रख दी।  एशिया, अफ्रीका के अनेक देशों की राष्ट्रीय मुक्ति क्रांतियां सफल हुइं, उपनिवेशवाद का वर्चस्व टूटा और पूर्वी यूरोप में कई समाजवादी देश अस्तित्व में आये।
गरज ये कि सब कुछ शोषक वर्गी हुक्मरानों के चाहने से नहीं होता - जनता की शक्ति ही सबसे बड़ा निर्णायक सत्य है। सही समय पर कारगर हस्तक्षेप हो तो युद्ध और महामारियों के बीच चाणक्य और उनके शासकों का टाट उलटा भी जा सकता है।  क्योंकि कठिन से कठिन आशंकाओं से भरे हालात भी बेहतर से बेहतरतम संभावनाओं से भरे होते  हैं।
मो0 9425006716


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