कथेतर गद्य : जीवनी साहित्य विमर्श

  जगमगाती रोशनियां

(सफ़दर हाश्मी, नागार्जुन, रघुवीर सहाय)

रविभूषण

 एक साहित्य-रूप में ‘जीवनी’ को स्वीकृति और मान्यता 18वीं सदी के अंत में जेम्स वास्वेल (29.10.1740-19.5.1795) लिखित सैमुअल जॉनसन (18.9.1709-13.12.1784) की जीवनी, द लाइफ़ ऑफ़ सैमुअल जॉनसन (1791) के बाद मिली। पश्चिम में जीवनी-लेखन की प्राचीन परंपरा है। सुकरात (469-70 ईसा पूर्व - 399 ईसा पूर्व) के छात्र जेनोफ़ोन (430-40 ईसा पूर्व - 354 ईसा पूर्व) ने चार ‘बुक्स’ के 39 अध्यायों में सुकरात पर मेमोरैबिलीआ लिखा और प्लूटार्क (46 ईसवी -120 ईसवी) ने 48 प्रसिद्ध व्यक्तियों की जीवनी लिखी, पैरेलल लाइव्स। हिंदी में जीवनी-लेखन  की अधिक पुरानी परंपरा नहीं है। आज भी, निराला की साहित्य-साधना (रामविलास शर्मा), कलम का सिपाही (अमृत राय) और आवारा मसीहा (विष्णु प्रभाकर) जैसी जीवनियों का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है। विष्णु चंद्र शर्मा ने काज़ी नज़रुल इस्लाम, राहुल सांकृत्यायन और मुक्तिबोध की जीवनी लिखी। 

हिंदी में विगत दो दशकों से हाशिये पर रहने वाला कथेतर साहित्य आज हाशिये पर नहीं है। आज बड़े कवियों-लेखकों, संस्कृतिकर्मियों के जीवन और कर्म से सुपरिचित होने का महत्व पहले की तुलना में इसलिए अधिक है कि हमारे समय में ऐसे अनुकरणीय, प्रेरक व्यक्तित्व लगातार कम हो रहे हैं। हिंदी में सद्य:प्रकाशित तीन जीवनियां (नागार्जुन, रघुवीर सहाय और सफ़दर हाश्मी की) इस दृष्टि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। तारानंद वियोगी ने नागार्जुन की जीवनी, युगों का सारथी (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली 2019) के पहले राजकमल चौधरी की भी जीवनी लिखी - जीवन क्या जिया। विष्णु नागर ने रघुवीर सहाय की जीवनी, असहमति में उठा एक हाथ (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019) और सुधन्वा देशपांडे ने सफ़दर हाश्मी की जीवनी, हल्ला बोल (वाम प्रकाशन, नयी दिल्ली, जनवरी 2020) के पहले अन्य किसी की जीवनी नहीं लिखी है। इन तीनों जीवनीकारों में सुधन्वा देशपांडे का सफ़दर (12.4.1954 - 2.1.1989) से जैसा घनिष्ठ एवं सक्रिय संबंध था, वैसा अन्य दो जीवनी लेखकों का नागार्जुन (30.6.1911 – 5.11.1998) और रघुवीर सहाय (9.12.1929 – 30.12.1990) से नहीं था। आकार की दृष्टि से नागार्जुन की जीवनी 430 पृष्ठों, रघुवीर सहाय की 398 पृष्ठों और सफ़दर की 273 पृष्ठों की है। असहमति में उठा एक हाथ, में जीवनी लेखक ने पुस्तक के अंत में रघुवीर सहाय के जीवन और उनकी रचनाओं की सामग्री सुरेश शर्मा की पुस्तक से साभार ग्रहण की है। नागार्जुन और सफ़दर की जीवनी में यह जीवन और रचना वर्षवार रूप में एक स्थान पर नहीं है। इन दो कवियों और एक नाटककार, रंगकर्मी, अभिनेता का अपने सृजनात्मक कर्म से जैसा लगाव था वैसा अब दुर्लभ है। तीनों की जीवन-यात्रा संघर्ष-यात्रा है। यह संघर्ष-यात्रा रघुवीर सहाय और सफ़दर की तुलना में नागर्जुन में सर्वाधिक है। कविता हो या पत्रकारिता, रंगकर्म हो या संस्कृति कर्म, अब पहले की तरह ठोस, बेलौस आवाज़ें कम हैं। नागार्जुन बिहार के थे, पर सारा देश उनके लिए अपना ही घर और परिवार था। हिंदी में ही नहीं, संभवतः किसी भी भारतीय भाषा में आधुनिक समय में उनके जैसा व्यक्तित्व अन्य किसी कवि-लेखक का नहीं है। तारानंद वियोगी ने उनके जीवन से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति और कवि के प्रत्येक पक्ष पर जिस वस्तुपरक ढंग से जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह इस जीवनी को कहीं अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय बनाता है। नागार्जुन और सफ़दर कम्युनिस्ट थे, मार्क्सवादी थे और रघुवीर सहाय समाजवादी। नागार्जुन आज़ाद भारत में भी जेल गये और सफ़दर की हत्या हुई। सफ़दर और रघुवीर सहाय का जीवन नगर केंद्रित रहा। रघुवीर सहाय पहले लखनऊ में रहे, फिर दिल्ली में। सफ़दर दिल्लीवासी होने के बाद भी उस सामान्य जन से अपने रंग-कर्म के ज़रिये जुड़े रहे, जो सामान्य जन आज भी बेहतर दशा में नहीं है। शब्द और कर्म की अनन्यता जैसी नागार्जुन और सफ़दर में थी, आज संभवतः किसी भी कवि-लेखक में नहीं है। इन तीनों में नागार्जुन सबसे अधिक जिये- 87 वर्ष। रघुवीर सहाय का 61 वर्ष की उम्र में निधन हुआ और सफ़दर की हत्या 35 वर्ष की उम्र में हो गयी।

आज सांप्रदायिता और हिंदू दक्षिण पंथ कहीं अधिक हिंसक और आक्रामक भूमिका में है। सफ़दर को याद करना इसलिए अधिक आवश्यक है क्योंकि उन्होंने सांप्रदायिकता तथा दक्षिण पंथ के विरुद्ध कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों को एकजुट करने में एक बड़ी सक्रिय भूमिका अदा की थी। वे ‘सदा लौह’ इंसान थे - ज़िंदादिल, जुनूनी, आंदोलनकारी, संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी, अभिनेता, नाट्य-लेखक, निदेशक, संगठनकर्ता, संघर्षशील, प्रतिबद्ध, जुझारू, आदर्शवादी, साहसी, निर्भीक, कॉमरेड, शायर, प्रतिभावान, एक्टिविस्ट, सक्रिय मार्क्सवादी, परफ़ॉर्मर। सुधन्वा देशपांडे ने उनकी जीवनी लिखने में पर्याप्त शोध किया है। सफ़दर से जुड़े सभी व्यक्तियों से बातचीत की है। नुक्कड़ नाटक और ‘जनम’ के पर्याय-से हैं सफ़दर। वे 1976 में माकपा के सदस्य बने। उन्होंने ‘जनम’ (जन नाट्य मंच) का गठन किया। वे पहले ‘इप्टा’ से जुड़े थे। फिर एक थियेटर ग्रुप ‘मुक्ति’ के साथ कुछ समय तक कार्य किया। रघुवीर सहाय ने लखनऊ विश्वविद्यालय से और सफ़दर ने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया था। सफ़दर को छात्र-जीवन में ही ‘कॉलेज के एलीट अंग्रेज़ीपरस्त माहौल से नफ़रत थी।’ रघुवीर सहाय ने विश्वविद्यालयों में कभी अध्यापन नहीं किया था। सफ़दर ने किया था। सुधन्वा देशपांडे ने उनकी जीवनी में उनके पूरे समय पर भी ध्यान दिया है। 1970 से 1989 का समय आपातकाल, तानाशाही, सिखविरोधी हिंसा, सांप्रदायिक द्वेष और उन्माद का समय था, जो आज कहीं अधिक व्यापक रूप में, भिन्न रूप में मौजूद है। उस समय भाईचारे और बंधुत्व का ह्रास आरंभ हो चुका था। अपहरण भाईचारे का नाटक उसी समय का है। सुधन्वा ने इस जीवनी-लेखन में आज के समय को ओझल नहीं रखा है। ‘आज हिंदू दक्षिणपंथी ताक़तें फिर उभार पर हैं। तमाम धर्मनिरपेक्ष व प्रगतिशील लोग इस दैत्य से जूझने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं, ताकि भारत के संवैधानिक और सामाजिक ताने-बाने को ज़िंदा रख सकें।’ सफ़दर की हत्या के समय कांग्रेस की सरकार थी। आज भाजपा की सरकार है। दिल्ली को सांस्कृतिक रूप से सफ़दर ने काफ़ी सक्रिय किया। रघुवीर सहाय के लिए ‘दिल्ली मेरा परदेस’ थी - ‘दिल्ली मेरा देस नहीं है और दिल्ली किसी का भी देस नहीं हो सकती। उसकी अपनी संस्कृति नहीं है।’ रघुवीर सहाय का निधन दिल्ली में हुआ। सफ़दर की हत्या भी दिल्ली में हुई - 1 जनवरी 1989 को झंडापुर में। हल्ला बोल नाटक के मंचन के समय। यह हमला कांग्रेसी गुंडों द्वारा किया गया था। राजनीति में गुंडई सत्तर के दशक से आरंभ हो चुकी थी। नुक्कड़ नाटक ‘सामाजिक बदलाव का थियेटर’ माना गया है। थियेटर, कविता, साहित्य समाज को नहीं बदलता, पर वे व्यक्तियों के निर्माण, उनकी चेतना के विकास और उनके बदलाव में एक बड़ा कार्य करते हैं। और फिर ये बदले हुए लोग समाज को बदलते हैं। कविता, नाटक, थियेटर, साहित्य का यह प्रभाव कभी समाप्त नहीं होता। आज का भारत कल के भारत की तुलना में कहीं अधिक बदहाल है, जिसे बदलने की दिशा में ये पुस्तकें हमें प्रेरित-सक्रिय भी करती हैं। बदलने के लिए समझना ज़रूरी है और समझने के लिए पढ़ना। सफ़दर की कविता, ‘किताबें’ केवल बच्चों के लिए नहीं है। ‘किताबें करती हैं बातें/बीते ज़माने की/दुनिया की इंसानों की/आज की, कल की/एक-एक पल की!ख़ुशियों की, ग़मों की! फूलों की, बमों की/जीत की, हार की...’।

सफ़दर को सुधन्वा ने ‘भविष्य का निष्कासित, थियेटर का स्पार्टाकस’ कहा है। सफ़दर के जीवन की उनके रंग-कर्म की कोई भी घटना जीवनी-लेखक की निगाह से नहीं छूटी है। सफ़दर-माला का संग-साथ, सफ़दर की पाकिस्तान-यात्रा आदि। सुधन्वा देशपांडे के अलावा शायद सफ़दर की ऐसी मुकम्मल जीवनी और कोई नहीं लिख पाता। इस जीवनी से हम सफ़दर के साथ-साथ उनके समय से पूरी तरह परिचित होते हैं। सफ़दर का परिवार वामपंथी-मार्क्सवादी परिवार था। सुधन्वा देशपांडे का परिवार भी समर्पित मार्क्सवादी परिवार था। हल्ला बोल, ‘कॉमरेड आई और प्रोफ़ेसर बाबा’ को समर्पित है। पुस्तक का अनुवाद योगेंद्र दत्त ने किया है। तीन भागों में विभाजित इस जीवनी का पहला भाग 1 जनवरी 1989 से आरंभ होता है, जब सफ़दर की हत्या हुई थी। दूसरे भाग में सफ़दर के जन्म, उनके परिवार, उनकी शिक्षा, उनके शुरुआती साल, जनम का जन्म, इमरजेंसी से लेकर 1988 की पाकिस्तान-यात्रा आदि है। तीसरे भाग में कई नुक्कड़ नाटकों की चर्चा, ऐक्टिंग, दिल्ली के मज़दूर वर्ग और दिसंबर 1988 का वह ‘आख़िरी महीना’ है जब हल्ला बोल के शो आरंभ हुए थे। 1978 से 1988 का दशक ‘जनम’ का गौरवशाली दशक था। ‘इप्टा’ के बाद का यह ‘जनकेंद्रित, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, जन सांस्कृतिक आंदोलन’ था। इस जीवनी में पचास के दशक की महंगाई, मुद्रास्फीति, दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र-संगठन, कैंपस में माकपा का प्रवेश, वामपंथी विद्यार्थी आंदोलन, आपातकाल, मज़दूर आंदोलन, हड़ताल सब पर जीवनी लेखक का ध्यान है, उस पूरे समय पर, जिसमें व्यक्ति निर्मित-विकसित होता है।

जीवनी विशुद्ध साहित्य-रूप नहीं है। इसमें कई साहित्य-रूप घुले-मिले होते हैं। हल्ला बोल एक प्रतिबद्ध लेखक, संस्कृतिकर्मी, एक्टिविस्ट द्वारा लिखित एक प्रतिबद्ध व्यक्ति, रंगकर्मी, संस्कृति कर्मी, सक्रियतावादी की जीवनी है। सफ़दर और सुधन्वा देशपांडे दोनों प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हैं- एक दल विशेष माकपा से जुड़े। इस जीवनी में जनम का संक्षिप्त इतिहास है, कई नयी, प्रामाणिक जानकारियां हैं। सफ़दर से जुड़ी प्रकाशित-अप्रकाशित सारी सामग्रियों के गहन अध्ययन के बाद जीवनीकार ने सफ़दर के विचार-पक्ष पर विचार किया है। सफ़दर ने केवल नुक्कड़ नाटक नहीं लिखे और न केवल उनका मंचन, निर्देशन और उनमें अभिनय ही किया था, उन्होंने नुक्कड़ नाटक के स्वरूप, विधा, सियासत आदि पर भी विचार किया। नुक्कड़ नाटक की भाषा और उसके व्याकरण पर भी चिंतन किया। सफ़दर के जीवन-व्यक्तित्व के सभी पक्षों- लेखक, रंगकर्मी, कलाकार, संस्कृतिकर्मी पर लेखक का ध्यान रहा है। चर्चा-परिचर्चा, बहस, लेखन, सेमिनार आदि पर। नुक्कड़ नाटक की रचना से उसकी प्रस्तुति तक। सफ़दर की शोहरत के पीछे उनका सृजनात्मक कर्म था। वे बड़े ‘आर्गनाइज़र’ थे। निरंतर गतिवान। ‘उसके पैरों में स्प्रिंग लगी हुई थी।’ जीवनी-लेखन में स्रोतों सामग्रियों की बड़ी भूमिका है। सुधन्वा देशपांडे ने दो पृष्ठों में पुस्तक के अंत में ‘स्रोतों के बारे में’ जानकारियां दी हैं। निजी, पारिवारकि जीवन से कहीं अधिक महत्व सफ़दर के लिए सांस्कृतिक जीवन था। एक बड़े उद्देश्य के लिए समर्पित जीवन। सफ़दर की मृत्यु के मात्र अड़तालीस घंटे के बाद झंडापुर में पहले के स्थान पर ही हल्ला बोल का मंचन एक उदाहरण है। माला हाश्मी ने मत्यु के अगले दिन ही रिहर्सल किया। पुस्तक के अंत में हल्ला बोल नाटक है। आठ पृष्ठों में चित्र हैं। यह जीवनी सफ़दर और उनके समय को जानने-समझने के साथ राज्यसत्ता और व्यवस्था को समझने के लिए भी प्रेरित करती है। सफ़दर को श्रद्धांजलि देने कौन नहीं आया था। ‘नहीं आये तो सिर्फ़ कांग्रेस और भाजपा के नेता नहीं आये।'

अब नागार्जुन पर कुछ भी लिखने के लिए, उनके जीवन, व्यक्तित्व और कवि-कर्म को पूर्णतः समझने के लिए तारानंद वियोगी द्वारा लिखित उनकी जीवनी, युगों का यात्री का अध्ययन आवश्यक है। जीवनी लिखने से पहले तारानंद वियोगी तरौनी में बाबा की समाधि पर गये थे। उन्होंने पूछा कि ‘उनकी जीवनी को कैसा होना चाहिए’? प्रत्येक जीवनी-लेखक की अपनी एक समझ-दृष्टि होती है, जो उसके चरित-नायक से भी थोड़ी बहुत मेल खाती है। एक ‘ज़िद्दी कुम्हार की तरह’ तारानंद वियोगी ने नागार्जुन का जीवनी-लेखन आरंभ किया। 'बाबा एक ज़रूरी आदमी थे। हमें उनसे ज़्यादा से ज़्यादा परिचित होना चाहिए।' युगों का यात्री में नागार्जुन से जुड़ा कुछ भी नहीं छूटा है। स्रोत-सामग्री का उल्लेख नहीं है, पर नागार्जुन से जुड़े व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में यहां उपस्थित हैं। अनेक नयी जानकारियां इस जनकवि के संबंध में इस जीवनी से मिलती हैं। मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने उनके प्रधान संपादकत्व में, सीमांत नाम से पत्रिका निकाली। नागार्जुन ने आरंभ में, उदयन (हिंदी में) और मैथिली में किरण पत्रिका निकाली थी। 1955 के आसपास रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘बाबा’ और ‘नागा बाबा’ का संबोधन दिया, बड़े बेटे शोभाकांत को स्वयं सिगरेट जलाना सिखाया, 1946 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थायी सदस्यता ली और 1962 में चीन के ख़िलाफ़ कविता लिखकर पार्टी की सदस्यता छोड़ दी। दादा के पास साठ बीघा ज़मीन थी, पिता के पास बीस बीघा ‘पर विरासत में मिली मात्र तीन कट्ठे।’ मां ‘बड़े घर की बेटी’ थीं- ‘बारह सौ बीघा ज़मीन, चालीस बैल, बीस हल, अठारह भैंसें, सड़सठ प्राणियों का संयुक्त परिवार’ था। छात्र-जीवन में काशी से प्रयाग की पैदल यात्रा की, पहला प्रेम गनौली की एक लड़की से हुआ, मिथिला के जातीय पर्व ‘विद्यपति पर्व’ के शुभारंभ में उनकी बड़ी भूमिका थी, तरौनी के पंडित अनिरुद्ध मिश्र ने कविता बनाना सिखाया, समस्यापूर्ति से काव्याभ्यास किया। दो गुरु प्रमुख रहे - काशी के गवर्नमेंट कॉलेज के संस्कृत अध्यापक मधुसूदन शास्त्री और बनगांव के निवासी ज्योतिषाचार्य बलदेव मिश्र। बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह और उनके मंत्रियों को लेकर श्री कृष्ण चालीसा लिखा और बेटे शोभाकांत को कंधे पर बिठाकर झाल बजा-बजा कर श्री कृष्ण चालीसा गाया, जेलख़ाना को उन्होंने ‘कृष्ण मंदिर’ कहा, प्रगतिशील लेखक संघ को ‘बुढ़ापे का तरल वीर्य, शुक्र मोचनी संस्था’ बताया, कम्युनिस्ट नेताओं को बाद में ‘जनता छाप महाप्रभु’ कहा, ‘36 प्रकार के पशु-पक्षी, जंतु-प्राणी खाये, मास्को में ‘लेनिन स्तोत्रम’ कविता लिखी और यह बताया कि '1956 के बाद कम्युनिस्टों की क्रांतिकारी राजनीति किताब में रह गयी, लोकतांत्रिक रणनीति के व्यवहार में उन्होंने शासक दल का साथ देने की रणनीति अब तक चला रखी है।'

विद्यार्थी वैद्यनाथ मिश्र की पहली कविता 1929 में महामहोपाध्याय मुरलीधर झा के निधन पर प्रकाशित हुई थी। इसी वर्ष कांग्रेस ने 19 दिसंबर को लाहौर में ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव पारित किया था। सहजानंद सरस्वती नागार्जुन के ‘राजनीतिक गुरु’ थे। उन्होंने नागार्जुन को राहुल की तरह मुरदों की खोज में न लग कर ‘ज़िंदा मुरदों की ख़बर लेने को कहा।’ युगों का यात्री नागार्जुन की आधिकारिक, प्रामाणिक जीवनी है। लेखक ने इसमें नागार्जुन से जुड़ी प्रत्येक घटना का वर्णन किया है। 1929 की लाहौर कांग्रेस से 1947 तक का भारत अंग्रेज़ों के शासन में था। स्वतंत्र भारत की सत्ता-राजनीति पर नागार्जुन ने सर्वाधिक लिखा। नागार्जुन के जीवन के, उनके सृजन के एक-एक पक्ष का सजीव, जीवंत चित्रण पुस्तक में है। एक जनकवि की निर्मिति’ के जितने कारक तत्व होते हैं, उनमें से किसी को ओझल नहीं किया गया है। नागार्जुन जितना अनुभव-समृद्ध जीवन हिंदी में ही नहीं, भारतीय भाषाओं में भी शायद ही किसी कवि का हो। वे प्रसाद, प्रेमचंद से बनारस में मिलते थे, नागार्जुन का रचना-समय लगभग सत्तर वर्ष का है। तारानंद वियोगी ने उनके कवि-कर्म, रचना-कर्म पर क्रमवार रूप से विचार किया है। नागार्जुन को किसी भी सांचे में फ़िट नहीं किया जा सकता। 'जहां से वे आगे बढ़ गये, फिर उसी मक़सद से उस जगह दुबारा नहीं लौटे।' समय-समय पर अपना अखाड़ा बदलने को उन्होंने ‘काल धर्म’ कहा है। उनकी निर्मिति में, जिन व्यक्तियों की भूमिका थी, 'उनमें स्वामी केशवानंद प्रथम स्थानीय थे।' कवि-रूप में उन्होंने किसी कवि से प्रेरणा ग्रहण नहीं की। जीवन और समय ने उन्हें सिखाया। उनका व्यक्तित्व ‘जनजीवन से एकाकार’ था। रहन-सहन की शैली पर तिब्बती संस्कृति का प्रभाव था। वे धार्मिक कट्टरतावाद और जनता की धार्मिक भावना में फ़र्क़ करते थे। जीवनी में1938 के ‘समर स्कूल ऑफ़ पालिटिक्स’ की विस्तारपूर्वक चर्चा है। तीस दिन तक बौद्ध भिक्षु के रूप में नागार्जुन इसमें शामिल हुए थे। उनके जीवनांतरण में तारानंद वियोगी ने ठीक ही राहुल की अनूदित किताब, मज्झिम निकाय की बड़ी भूमिका मानी है। बौद्ध साहित्य के गहन अध्ययन की इच्छा से वे अबोहर से काशी, फिर मद्रास, रामेश्वरम् होते हुए लंका पहुंचे थे। यहीं उन्होंने ‘उनको प्रणाम’ कविता लिखी, जो मिथिला मोद में छपी। 'रातों रात एक समर्थ कवि के रूप में मान्यता मिली।' लंका में कल्याणपुरी मठ में ठौर, वहां से विघालकार परिवेण जावा, जहां रहने के लिए काशी प्रसाद जायसवाल और राहुल सांकृत्यायन में से किसी की संस्तुति आवश्यक थी। संस्कृत के छंदों में उन्होंने काशी प्रसाद जायसवाल को पत्र भेजा और प्रबंधन को यह टेलीग्राम मिला। ‘एडमिट दिस संस्कृत पंडित फ्रॉम मिथिला’। परिवेण के भिक्षुओं को संस्कृत पढ़ायी। त्रिपिटकों का अध्ययन किया। बौद्ध भिक्षु बने। अपना नाम ‘नागार्जुन’ रखा। नायकवाद धम्मानंद से दीक्षा ली।

युगों का यात्री नागार्जुन की एक स्थायी, प्रामाणिक एवं पूर्ण जीवनी है। चार अध्यायों में विभाजित इस जीवनी में नागार्जुन की घुमक्कड़ी, उनका विस्तृत-व्यापक परिवार, आत्मीय जनों के ‘किचेन’ में निस्संकोच प्रवेश, मनपसंद भोजन की फ़रमाइश, बच्चों से अमित स्नेह, अनेक कविताओं-काव्य-संग्रहों का प्रकाशनादि सब कुछ है। नागार्जुन के जीवन से संबंधित प्रत्येक घटना-प्रसंग यहां दर्ज है। पत्नी अपराजिता के प्रति गहन प्रेम-भाव से जुड़े कई प्रसंग भी हैं। इस कवि ने मैथिली कविताओं की लघु पुस्तिका छपवा कर रेल गाड़ी में गा-गाकर बेची थी, चनाजोर गरम वाले की तरह। जीवन में आयी तमाम बाधाओं और परिवर्तनों को नागार्जुन ने झेला, सहा। कई प्रसिद्ध कविताओं के रचना-समय पर भी विचार इस पुस्तक में है। नागार्जुन ने ‘शब्द’ को ‘बड़ा तेजस्वी’ मानकर इसका सही उपयोग करने की बात कही है। हिंदी में नागार्जुन के प्रशंसक कवि कम नहीं है, पर उनके काव्य-मार्ग, संघर्ष मार्ग पर चलने वाले कवि बहुत-बहुत कम हैं। नागार्जुन का खरापन किसी कवि में नहीं है।

हिंदी के समकालीन कवियों पर रघुवीर सहाय का प्रभाव अधिक है। विष्णु नागर चर्चित कवि हैं। रघुवीर सहाय के साथ उनका लगभग दो दशकों का संबंध भी रहा है। असहमति में उठा एक हाथ उनके द्वारा लिखी गयी रघुवीर सहाय की जीवनी है। पुस्तक में 'रघुवीर सहाय के साथ दो दशक' एक अध्याय भी है। इस जीवनी में वस्तुपरकता पर्याप्त मात्रा में नहीं है। जीवनी-लेखक को स्वयं यह लगा था 'कि किताब रघुवीर जी के बारे में कुछ अधिक प्रशंसात्मक हो गयी है।' वे इसका दोष ‘कुछ हद तक ‘रघुवीर जी के व्यक्तित्व में’ देखते हैं, ‘कुछ उनके बारे में अच्छी-अच्छी बातें करने वाले पत्रकारों में और अंत में सबसे अधिक' अपने में। यह एक ईमानदार स्वीकारोक्ति है। रघुवीर सहाय में 'अतिरिक्त सतर्कता’ थी। यह जीवनी 49 छोटे-छोटे अध्यायों में लिखी गयी है। नागार्जुन और रघुवीर सहाय दोनों हिंदी के प्रमुख कवि हैं। रघुवीर सहाय के जीवन की अस्थिरता नागार्जुन के जीवन की अस्थिरता के सामने छोटी है। एक कवि-पत्रकार के रूप में ही नहीं, कहानीकार के रूप में भी विष्णु नागर ने उन पर अधिक ध्यान दिया है। विष्णु नागर स्वीकारते हैं, 'उनका आत्यंतिक-आत्मीय परिचय देने वाली सामग्री कम उपलब्ध है।'

रघुवीर सहाय ने पंद्रह वर्ष की आयु में लिखना-छपना आरंभ किया। 19 वर्ष की अवस्था में 1948 में वे प्रतीक में छपे। आरंभ में मार्क्सवादी विचारधारा से लगाव था। बाद में समाजवादी विचारधारा से जुड़े। गांधी की हत्या पर उन्होंने ‘महाप्रयाण’ कविता लिखी। नागार्जुन की गांधी पर लिखित कविताओं और उनकी इस कविता में अंतर है। विष्णु नागर को उनके जीवनी-लेखन में रघुवीर सहाय रचनावली से प्रचुर सामग्री मिली है। कुंवरनारायण, कृष्णनारायण कक्कड़ और मनोहर श्याम जोशी सहाय जी के घनिष्ठ मित्र थे, ये जीवित रहते तो कुछ और निजी जानकारियां उपलब्ध हो सकती थीं। डेढ़ वर्ष की उम्र में रघुवीर सहाय की मां का निधन हुआ था। लखनऊ उनका वतन था। दिल्ली परदेस थी। उनके मित्र और साथी गिने-चुने थे। आकाशवाणी से उनका संबंध पुराना था। 1947 से कविता लिखना और 1950 से उन्हें रेडियो पर पढ़ना आरंभ किया। 1946 से 1950 तक लखनऊ रेडियो स्टेशन से उनकी रचनाएं प्रसारित हुईं। आकाशवाणी में वे संवाददाता रहे। संसद कवर किया। रघुवीर सहाय के जीवन के जिन कुछ पक्षों से हम अभी तक अपरिचित एवं अल्प परिचित थे, वे सब इस जीवनी में मौजूद हैं। दूरदर्शन के लिए गांधी, टैगोर और राजेंद्र प्रसाद पर उन्होंने कार्यक्रम बनाये। वे ‘एक सशक्त ब्रॉडकास्टर’ भी रहे। आकाशवाणी के उनके वर्ष ‘सर्जनात्मक’ नहीं थे। प्रतीक से वे पचास के दशक के आरंभ में जुड़े, सहायक संपादक बने। बीस वर्ष की अवस्था में ही उनकी कविताएं अज्ञेय ने प्रतीक के लिए ली थीं। आकाशवाणी में रुक-रुक कर कई वर्ष उन्होंने कार्य किया। उनकी ‘हमारी हिंदी’ कविता युगचेतना में प्रकाशित हुई थी, जिस पर काफ़ी हंगामा हुआ था। लखनऊ से उनका लेखन आरंभ हुआ था। ‘लखनऊ ने अगर उनके लेखन की बुनियाद रखी, तो उसकी इमारत दिल्ली में बनी।' 1951 से 1990 के अंत तक - चालीस वर्ष वे दिल्ली में रहे। आरंभ में उन्होंने ‘फ्रीलांसिंग’ की थी। रघुवीर सहाय की प्रसिद्धि कवि के बाद दिनमान के संपादक रूप में है। 1968 में वे दिनमान के स्थानापन्न संपादक बने, बाद में कार्यकारी संपादक और 1970 में संपादक। 1970 से 1983 तक वे दिनमान के संपादक थे। कवि पत्रकार, संपादक के रूप में उनका बड़ा योगदान है। वे वात्स्यायन को नहीं, लोहिया और ओम प्रकाश दीपक को अपना शिक्षक मानते थे। सफ़दर जिस तरह 'जनम’ के पर्याय-से हैं, उसी तरह रघुवीर सहाय दिनमान के। उनकी विचार-यात्रा मार्क्सवाद से लोहियावाद की है। नागार्जुन ने वामपंथी दलों की सीमाओं पर विचार किया, रघुवीर सहाय ने लोहिया की सीमाओं पर ध्यान नहीं दिया। 'रघुवीर सहाय की समाजवादी निष्ठा और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा आपातकाल के बाद भी लगभग अक्षुण्ण रही। लेखक-कवि के रूप में उनकी विश्वसनीयता पर कोई आंच नहीं आयी।' वे बड़े कवि थे, पर उनमें नागार्जुन और सफ़दर जैसा संघर्ष नहीं था। मंगलेश डबराल ने ठीक कहा है, 'वे तीसरी दुनिया के और बड़े कवियों की तरह योद्धावृत्ति के नहीं थे। वे उस दौर (आपातकाल) में जिलाधीशों से डर गये थे।'

नागार्जुन, रघुवीर सहाय और सफ़दर की पारिवारिक पृष्ठभूमि भिन्न है। नागार्जुन ने स्वयं अपने को निर्मित किया और अंत-अंत तक उस भारत की निर्मिति के लिए अपनी रचनाओं के जरिये निरंतर संघर्ष किया, जिसका स्वप्न प्रेमचंद ने देखा था। वे ‘आबद्ध, प्रतिबद्ध और संबद्ध थे। सफ़दर में यह गुण था। रघुवीर सहाय में ऐसी आबद्धता, प्रतिबद्धता, संबद्धता नहीं है। नागार्जुन के लिए ‘मातृभूमि’ सर्वोपरि थी। जीवन के अंतिम दिनों में वे दिल्ली न रहकर दरभंगा चले गये। रघुवीर सहाय और सफ़दर नगरवासी थे। मातृभूमि के महत्व से अल्प परिचित। आज़ाद भारत में 1947 से जीवन के अंत तक नागार्जुन ने भारतीय राज्य-सत्ता और व्यवस्था का सदैव विरोध किया। कांग्रेस और नेहरू-इंदिरा का ऐसा विरोध किसी भारतीय कवि ने नहीं किया है। सफ़दर अंत तक पार्टी विशेष से जुड़े थे। नागार्जुन कुछ समय तक ही पार्टी से जुड़े रहे और रघुवीर सहाय किसी पार्टी विशेष से नहीं जुड़े थे। नागार्जुन अंत-अंत तक मार्क्सवादी रहे। नागार्जुन बिहार के थे, रघुवीर सहाय और सफ़दर दोनों दिल्लीवासी थे।

हिंदी प्रदेश में आज सांप्रदायिकता सर्वाधिक है। नागार्जुन ने गांधी की हत्या के तुरंत बाद फ़ासीवादी ताक़तों की पहचान कर ली थी। नागार्जुन, रघुवीर सहाय और सफ़दर की चिंता में भारत का सामान्य जन था। सफ़दर के यहां श्रमिक वर्ग में मज़दूर अधिक है, नागार्जुन के यहां किसान-मज़दूर दोनों। नागार्जुन आंदोलनों के साथ रहे। वे आंदोलनधर्मी कवि हैं। उनमें समय और समाज की पहचान सर्वाधिक है। जनपक्षधरता नागार्जुन एवं सफ़दर में रघुवीर सहाय की तुलना में अधिक है। रघुवीर सहाय के लिए लोहिया और जयप्रकाश जिस प्रकार प्रमुख थे उसी प्रकार नागार्जुन और सफ़दर के यहां कोई राजनेता प्रमुख नहीं था। वहां विचार प्रमुख था। आज के भारत में न तो भारतीय स्तर पर कोई प्रमुख नेता है और जहां तक मार्क्सवादी विचारधारा का प्रश्न है, नागार्जुन ने कहा है - 'जब तक फटी बनियान पहन कर रिक्शावाला चलेगा, तब तक साम्यवाद रहेगा।' नागार्जुन के भीतर गांव रचा-बसा था। सादतपुर को उन्होंने अपना ‘गांव’ बना डाला।

नागार्जुन और रघुवीर सहाय की जीवनी ‘रज़ा फाउंडेशन की रज़ा फ़ेलोशिप के अंतर्गत लिखी गयी’ है। सफ़दर की जीवनी सुधन्वा देशपांडे ने आज के समय में अधिक ज़रूरी समझ कर लिखी है। आज हल्ला बोलने के साथ कहीं अधिक आगे बढ़कर प्रतिरोध सहित सृजन और संस्कृतिकर्म की ज़रूरत है। जीवनियां हमारे समय में जगमगाती रोशनियों की तरह हैं।      

मो. 9431103960

पुस्तक संदर्भ

1. युगों का सारथी : तारानंद वियोगी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली 2019

2. हल्ला बोल : सुधन्वा देशपांडे, वाम प्रकाशन, नयी दिल्ली, जनवरी 2020

3. असहमति में उठा एक हाथ : विष्णु नागर, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019

 

  

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