रिपोर्ट

किसान आंदोलन के पक्ष में लेखक-कलाकार

 

यह तेरी रण-तरी

भरी आकांक्षाओं से,

घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर

उर में पृथ्वी के, आशाओं से

नवजीवन की, ऊंचा कर सिर,

ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल!

                                           - निराला,  'बादल-राग-6'

 जिन्हें वेदना का कारण ज्ञात हो वे बचाव की कोशिश करेंगे। जो उस वेदना से संवेदित हैं वे बचाव में साथ देंगे। संघर्ष के सहभागी होंगे। आंदोलन में शरीक रहेंगे। पंजाब से शुरू हुआ किसान आंदोलन आज अखिल भारतीय शक्ल अख़्तियार कर चुका है। दिल्ली की तमाम सरहदों पर बेख़ौफ़ किसान धरना दिये बैठे हैं। उनके वहां होने से सरकार का डर दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। इस आंदोलन से प्रतिबद्ध लेखकों-कलाकारों का जुड़ाव होना स्वाभाविक है। दिल्ली के प्रमुख लेखक संगठनों ने साल 2015 में संयुक्त मोर्चा बनाया था। यह मोर्चा धीरे-धीरे बड़ा होता गया। किसान आंदोलन में अपनी भागीदारी को लेकर इस मोर्चे के संस्कृतिकर्मी-रचनाकार आरंभ से ही सक्रिय-समुत्सुक रहे। इसी का नतीजा था कि विचार-विमर्श के बाद 6 दिसंबर को संगठनों की तरफ़ से आंदोलन के समर्थन में साझा बयान जारी किया गया। योजनानुसार 7 दिसंबर को संस्कृतिकर्मियों (लेखकों-कलाकारों) का एक प्रतिनिधि मंडल दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर गया। रचनाकार अपने-अपने ढंग से दिल्ली से बॉर्डर पर जाते रहे और किसान आंदोलन से जुड़ते रहे। 21 दिसंबर को संगठनों की एक ऑनलाइन बैठक हुई। बैठक में लिए निर्णय के अनुसार 29 दिसंबर को 'फ़ेसबुक लाइव' में देश के प्रमुख रचनाकारों, बुद्धिजीवियों का किसान आंदोलन के समर्थन में बयान आयोजित कराया गया। वक्तव्य देने वालों में के. सच्चिदानंदन (मलयालम कवि, अनुवादक), गीता हरिहरन (अंग्रेज़ी कवि), रवि सिन्हा (भौतिकीविद, सिद्धांतकार), मनोरंजन ब्यापारी (कथाकार, अध्यक्ष, बांग्ला दलित साहित्य अकादमी), नसीरुद्दीन शाह (अभिनेता, रंगकर्मी), ममता कालिया (कथाकार), मृदुला गर्ग (कथाकार), रत्ना पाठक शाह (रंगकर्मी), प्रो. चौथीराम यादव (आलोचक), प्रियंवद (विचारक-गद्यकार), प्रो. शारिब रुदौलवी (उर्दू लेखक), मणिमाला (संपादक-एक्टिविस्ट), रणेंद्र (आदिवासी जीवन के कथाकार), जंसिता केरकेट्टा (आदिवासी विचारक), वंदना टेटे (आदिवासी लेखिका, एक्टिविस्ट) थे। इस कार्यक्रम के अंत में साझा बयान पढ़ा गया। बयान का अविकल पाठ  यों है :

तीन जनद्रोही कृषि-क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन का साथ दें!

केंद्र सरकार के कार्पोरेटपरस्त एजेंडा के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद करें!

देश भर के लेखक, कलाकार, शिक्षक और छात्र दो जनवरी को सिंघु बॉर्डर चलें! 

                       भारत का किसान – जिसके संघर्षों और क़ुर्बानियों का एक लंबा इतिहास रहा है – आज एक ऐतिहासिक मुक़ाम पर खड़ा है। 

 हज़ारों-लाखों की तादाद में उसके नुमाइंदे राजधानी दिल्ली की विभिन्न सरहदों पर धरना दिये हुए हैं और उन तीन जनद्रोही क़ानूनों की वापसी की मांग कर रहे हैं जिनके ज़रिये इस हुकूमत ने एक तरह से उनकी तबाही और बरबादी के वॉरंट पर दस्तख़त किये हैं। 

 सरकार भले ही यह दावा करे कि ये तीनों क़ानून  किसानों की भलाई के लिए हैं, जिन्हें महामारी के दिनों में पहले अध्यादेश के ज़रिये लागू किया गया था और फिर तमाम जनतांत्रिक परंपराओं को ताक़ पर रखते हुए संसद में पास किया गया था, लेकिन यह बात बहुत साफ़ हो चुकी है कि इनके ज़रिये राज्य द्वारा अनाज की ख़रीद की प्रणाली को समाप्त करने और इस तरह बड़े कॉरर्पोरेट घरानों के लिए ठेका आधारित खेती करने तथा आवश्यक खाद्य सामग्री की बड़ी मात्रा में जमाख़ोरी करने की राह हमवार की जा रही है। 

लोगों के सामने यह भी साफ़ है कि यह महज़ किसानों का सवाल नहीं बल्कि मेहनतकश अवाम के लिए अनाज की असुरक्षा का सवाल भी है। अकारण नहीं कि किसानों के इस अभूतपूर्व आंदोलन के साथ खेत-मज़दूरों, औद्योगिक मज़दूरों के संगठनों तथा नागरिक समाज के तमाम लोगों और  संगठनों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित की है।

 जनतंत्र और संवाद हमेशा साथ चलते हैं। लेकिन आज अधिक से अधिक लोग यह महसूस कर रहे हैं कि जनतंत्र के नाम पर अधिनायकवाद की स्थापना का खुला खेल चल रहा है। 

 आज की तारीख़ में सरकार किसान संगठनों के साथ वार्ता करने के लिए मजबूर हुई है, मगर इसे असंभव करने की हर मुमकिन कोशिश सरकार की तरफ़ से अब तक की जाती रही है। उन पर लाठियां बरसायी गयीं, उनके रास्ते में तमाम बाधाएं खड़ी की गयीं, यहां तक कि सड़कें भी काटी गयीं। यह किसानों का अपना साहस और अपनी जिजीविषा ही थी कि उन्होंने इन कोशिशों को नाकाम किया और अपने शांतिपूर्ण संघर्ष के काफ़िलों को लेकर राजधानी की सरहदों तक पहुंच गये।

 किसानों के इस आंदोलन के प्रति मुख्यधारा के मीडिया का रवैया कम विवादास्पद नहीं रहा। न केवल उसने आंदोलन के वाजिब मुद्दों को लेकर चुप्पी साधे रखी बल्कि सरकार तथा उसकी सहमना दक्षिणपंथी ताक़तों द्वारा आंदोलन को बदनाम करने की तमाम कोशिशों का भी जमकर साथ दिया। आंदोलन को विरोधी राजनीतिक पार्टी द्वारा प्रायोजित बताया गया, किसानों को खालिस्तान समर्थक तक बताया गया। 

 यह सकारात्मक है कि इन तमाम बाधाओं के बावजूद किसान शांतिपूर्ण संघर्ष की अपनी राह पर डटे हैं। 

 उनका आंदोलन इस दौर में जनतंत्र की रक्षा के लिए चलने वाला सबसे ज़रूरी और जुझारू आंदोलन बन चुका है । इस देश में जनतंत्र के सुनहरे भविष्य के लिए इस जन-आंदोलन की जीत ज़रूरी है। ऐसे में देश के बौद्धिक वर्ग का ख़ामोश तमाशबीन बने रहना जनविरोधी राजनीति को मज़बूती देता है। इसलिए इस मोड़ पर हमें स्पष्ट रूप से अपना पक्ष चुनना होगा और आंदोलन की जीत के लिए हर मुमकिन शांतिपूर्ण कोशिश करनी होगी। 

 हम देश की तमाम भाषाओं और सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़े हुए  लेखक  और कलाकार देश के समस्त बौद्धिक वर्ग से, लेखकों-कलाकारों-छात्रों और शिक्षकों से, किसानों के साथ अपनी एकजुटता दिखाने दो जनवरी को अपराह्न तीन बजे सिंघु बॉर्डर पहुंचने का आह्वान करते हैं। 

 हम सरकार से यह मांग करते हैं कि वह अपना अड़ियल रवैया छोड़े और तीन जनद्रोही कृषि-क़ानूनों को रद्द करने का ऐलान करे।

 हम आंदोलनरत किसानों से भी अपील करते हैं कि वे शांति के अपने रास्ते पर अडिग रहें।

 जीत न्याय की होगी ! जीत सत्य की होगी !! जीत हमारी होगी !!

  न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव,   दलित लेखक संघ,   अखिल भारतीय दलित लेखिका मंच,   प्रगतिशील लेखक संघ,   जन संस्कृति मंच,   इप्टा,   संगवारी,   प्रतिरोध का सिनेमा,   जनवादी लेखक संघ,   जन नाट्य मंच

 

बैठक में लिये गये निर्णय के अनुरूप 2 जनवरी को शताधिक रचनाकार-कलाकार-विद्यार्थी-अध्यापक सिंघु बॉर्डर पहुंचे। सुबह के वक्त़ तेज़ बारिश हो रही थी। बारह किलोमीटर में फैले इस जमावड़े में हमारे जत्थे तितर-बितर थे। हम ‘जन संघर्ष मंच हरियाणा’ के टेंट में इकट्ठे हुए। जन नाट्य मंच के साथियों ने आंदोलन के गीत गाये। अनेक कवियों ने अपनी कविताएं पढ़ीं। रचनाकारों, कलाकारों ने संक्षिप्त वक्तव्य दिये। बारिश से हर जगह कीचड़ था। कहीं-कहीं पानी इकठ्ठा हो गया था। स्वयंसेवक निरंतर सेवाकार्य में जुटे थे। किसानों का हौसला बुलंदी पर दिखा। अलग-अलग मंचों पर हो रहे भाषणों को सुनते हुए, लोगों से बात करते हुए जो चीज़ समझ में आयी वह यह थी कि किसानों ने अपने फ़ोकस में परिवर्तन किया है। वे संकट के मूल स्रोत अडाणी-अंबानी की कारस्तानियों को समझ गये हैं। वे जान गये हैं कि देश के प्रधानमंत्री इनके ‘प्रधान-सेवक’ हैं। इस प्रधान-सेवक की हद दर्जे की संवेदनहीनता पर आश्चर्य नहीं होता। जो एक अभिनेत्री या खिलाड़ी को मामूली चोट लगने पर ट्वीट करता रहा हो वह इस आंदोलन में दिवंगत हुए इतने सारे किसानों के परिवारों के प्रति संवेदना के दो शब्द भी मुंह से या 'चोंच' (ट्विटर) से नहीं निकाल सकता। वह इन मौतों पर ख़ामोश है। यह ख़ामोशी पूंजी के प्रति समर्पित एक सेवक का ‘धर्म’ है। सरकार ने अब तक जो भी निर्णय लिये हैं वे देश को क्रमिक बर्बादी की तरफ़ ठेलने वाले हैं। नोटबंदी, जीएसटी, सीएए, तालाबंदी और अब कृषि-क़ानून। सरकार को यह भय सता रहा है कि अगर कृषिक़ानून रद्द करने पड़े तो कल ईवीएम हटाने का जो आंदोलन चलने वाला है वह भी सफल होगा। अडाणी-अंबानी-रामदेव के उत्पादों का बहिष्कार इस कॉरपोरेट-परस्त सरकार की बेचैनी बढ़ा रहा है। सरकार के इस्तीफ़े की देशव्यापी मांग अभी सतह पर नहीं आयी है। यह ज़रूर हुआ है कि देश के इस अभूतपूर्व ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने आर एस एस-भाजपा की धर्म-जाति आदि की विभाजनकारी और सांप्रदायिक चालों पर पलीता फेरने और जनवाद के प्रति जागरूकता पैदा करने का काम  किया है।

 

4.1.2021 को लिखी गयी रिपोर्ट

प्रस्तुति : बजरंग बिहारी तिवारी

मो. 9868261895

 

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