वैचारिक विमर्श

                                 जाति का विनाश’ हिंदू धर्म से मुक्ति के बिना संभव नहीं है

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

 

अरुंधति रॉय की दृष्टि में जाति व्यवस्था ‘एक क्रूर संस्थागत सामाजिक अन्याय‘ है, जिस पर अनेक ‘विद्वानों’ ने चाहे तो आलेख लिखे हैं या पुस्तकें लिखी हैं। जाति व्यवस्था पर इस लेख में मूलतः सात पुस्तकों की चर्चा की गयी है। स्वाभाविक रूप से पहली पुस्तक डॉ. भीमराव आंबेडकर का भाषण है, जो कभी दिया नहीं गया, परंतु इस भाषण को पुस्तक रूप में डॉ. आंबेडकर ने जाति का विनाश नाम से प्रकाशित करवा दिया। यह पुस्तक मुख्य रूप में एक भाषण है जिसे ‘जात-पात तोड़क मंडल’ के आग्रह पर डॉ. आंबेडकर ने तैयार किया था। 2018 में इसका अधिकृत अनुवाद राजकिशोर जी ने किया जिसे फ़ारवर्ड प्रेस ने प्रकाशित किया है। यह वस्तुतः हिंदी अनुवादों की शृंखला में तीसरी कड़ी है जो तीसरे संस्करण के रूप में छपी है।

दूसरी पुस्तक, कल्चरल रिवोल्ट इन ए कॉलोनियल सोसाइटी- द नॉन-ब्राह्मण मूवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया है, जिसका प्रकाशन 1976 में हो गया था। इसकी लेखिका हैं गेल आमवेट। यह कैलीफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले (अमेरिका) के समाजशास्त्र विभाग से स्वीकृत शोधप्रबंध है। इस पुस्तक में 1873 से 1930 तक का लेखा-जोखा है।

तीसरी पुस्तक, कास्ट चैलेंज़ इन इंडिया जगजीवन राम द्वारा लिखित है। यह पुस्तक विजन बुक्स, नयी दिल्ली ने सन् 1980 में प्रकाशित की थी।

चौथी पुस्तक सी.पी.आई. के चिंतक और लेखक एस.जी. सरदेसाई द्वारा लिखित, ग्रामीण इलाक़ों में वर्गसंघर्ष और जातिगत टकराव के नाम से 1979 में प्रकाशित हुई थी। सी.पी.आई. ने इसे प्रकाशित किया था।

पांचवीं पुस्तक है, जाति और वर्ग जिसके लेखक हैं बी.टी. रणदिवे और इसे 1981 में नेशनल बुक सेंटर, नयी दिल्ली ने प्रकाशित किया था।

छठी पुस्तक अरुंधति रॉय ने लिखी। इस पुस्तक का नाम है, एक था डॉक्टर, एक था संत और यह 2019 में प्रकाशित हुई है। इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है।

सातवीं पुस्तक है, जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता जिसके लेखक हैं तमिलनाडु के ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व विरोध के प्रतीक पेरियार ई.वी. रामासामी। इसका संपादन प्रमोद रंजन ने किया है। यह पुस्तक अभी-अभी 2020 में प्रकाशित हुई है। इसे राधाकृष्ण प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इनके अलावा भी पर्याप्त पुस्तकें जाति-व्यवस्था पर हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई हैं।

 फ़िलहाल इन सात पुस्तकों की चर्चा तक ही यह लेख सीमित है।

पहली पुस्तक का नाम तो है, जाति का विनाश, पर इसमें दिये न जा सके भाषण के अलावा मानव विज्ञान के सेमिनार में डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत आलेख जो कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ा गया था, उसे भी सम्मिलित कर लिया गया है। आलेख का नाम है, 'भारत में जातियां, उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास।'

    अनुवादक राजकिशोर ने पुस्तक के बारे में लिखते हुए यह बताया है कि मूल रूप से यह पुस्तक नहीं, एक व्याख्यान है, जिसे ‘जातपात तोड़क मंडल’, लाहौर के वार्षिक अधिवेशन, 1936 के अध्यक्ष पद से पढ़ने के लिए डॉ. आंबेडकर ने तैयार किया था। लेकिन कार्यक्रमों के आयोजकों ने जब व्याख्यान का प्रारूप देखा, तब वे इसकी विषयवस्तु और प्रतिपादन से तो बहुत प्रभावित हुए, लेकिन इसके कुछ अंशों पर उन्हें गंभीर आपत्ति थी। ख़ासकर व्याख्यान में की गयी इस घोषणा पर कि एक हिंदू रूप में यह डॉ. आंबेडकर का आख़िरी भाषण है, क्योंकि तब तक वे धर्मपरिवर्तन करने का निर्णय कर चुके थे। आयोजकों ने व्याख्यान के कुछ अंशों को हटा देने का अनुरोध किया, लेकिन डॉक्टर साहब को यह स्वीकार्य नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि वह अधिवेशन ही स्थगित कर दिया गया, जिसमें यह व्याख्यान पढ़ा जाना था। पुस्तक के दूसरे संस्करण की भूमिका में डॉ. आंबेडकर ने 1937 में लिखा था, 'अगर मैं हिंदुओं को महसूस करा पाता हूं कि वे भारत के बीमार लोग हैं, और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और ख़ुशी के लिए ख़तरे पैदा कर रही है, तो मेरी संतुष्टि के लिए इतना काफ़ी होगा।'

       जातपात तोड़क मंडल’ की तरफ़ से भेजे गये विशेष दूत श्री हरभगवान ने 22/4/1936 को जो पत्र डॉ. आंबेडकर के पास भेजा था, उसमें व्याख्यान के आपत्तिजनक अंशों का उल्लेख करते हुए श्री हरभगवान ने लिखा था, 'व्याख्यान का आख़िरी भाग, जिसमें हिंदू धर्म के संपूर्ण विनाश और हिंदुओं की पवित्र पुस्तकों की नैतिकता पर संदेह की चर्चा है, साथ ही हिंदुत्व के दायरे से बाहर आने की आपकी इच्छा के बारे में संकेत है, मुझे प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता है।’ इसके साथ ही उक्त पत्र में ही श्री हरभगवान ने यह भी लिखा था, 'इस व्याख्यान को अनावश्यक रूप से उत्तेजक और चुभनदार बनाने की बुद्धिमत्ता पर हमें संदेह है।' जाति का विनाश पुस्तक में डॉ. आंबेडकर ने यह स्पष्ट कहा है, 'अगर आप इस व्यवस्था को कहीं से भी भंग करना चाहते हैं, तो आपको वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगा देना होगा जो तर्कसंगतता की किसी भी भूमिका का निषेध करते हैं; वेदों और शास्त्रों को, जो नैतिकता की किसी भी भूमिका का निषेध करते हैं। आपको श्रुतियों और स्मृतियों के धर्म को नष्ट कर देना होगा और कोई भी उपाय काम नहीं करेगा। इस विषय पर मेरा यह सुचिंतित विचार है। (पृ.113) इसके अलावा इस पुस्तक में खुले तौर पर यह माना गया है कि 'सरल शब्दों में कहा जाये, तो हिंदू जिसे धर्म कहते हैं, वह वस्तुतः क़ानून है, सर्वोत्तमतः एक वर्ग नैतिकता का क़ानूनी रूप है। (पृ.115) इसके अतिरिक्त डॉ. आंबेडकर यह स्वीकार करते हैं, 'अतः यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि इस तरह के धर्म को अवश्य नष्ट कर देना चाहिए और मैं कहता हूं कि इस प्रकार के धर्म को नष्ट कर देने में कुछ भी अधार्मिक नहीं है। (पृ.116)

जाति के विनाश’ की आवश्यकता के क्रम में इस प्रकार के धर्म को नष्ट करने की आवश्यकता से जोड़ कर रखने की वजह से यह पुस्तक बुद्धि और तर्क की एक निधि बन गयी है। पर ‘जातपात तोड़क मंडल’ के पदाधिकारियों को यह मान्यता बहुत बुरी लगी, अतः इस व्याख्यान पर पाबंदी लगाने के उद्देश्य से अधिवेशन ही 1936 में स्थगित कर दिया गया। इस पुस्तक में सामाजिक सुधार को प्राथमिकता देने पर ज़ोर दिया गया है। इसके अतिरिक्त जाति के प्रश्न को समाज और इतिहास के विभिन्न संदर्भों में व्याख्यायित और परिभाषित किया गया है।

दूसरी पुस्तक गेल आमवेट की है। इस पुस्तक का नाम है, कल्चरल रिवोल्ट इन ए कॉलोनियल सोसाइटी-द नन-ब्राह्मण मूवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया। 'द साइंटिफ़िक सोशलिस्ट एजुकेशन ट्रस्ट' ने इसे 1976 में प्रकाशित किया था। समूचे महाराष्ट्र पर अपनी विचारधारात्मक छाप अंकित करने वाले ब्राह्मणविरोधी आंदोलन को भी लेखिका ने अपने शोधप्रबंध में समाहित किया है। लेखिका के विवेचन के केंद्र में ज्योतिबा को भी रखा गया है। ज्योतिबा एक महान जनवादी आंदोलन के प्रवर्तक थे। वे ग़रीबों और उत्पीड़ितों से गहरी हमदर्दी रखते थे। किसी भी प्रकार के जातिवादी पूर्वग्रह से वे मुक्त थे। विधवा विवाह, शिक्षा, शराब की दूकानें, जातिगत शोषण, अफ़सरशाही द्वारा दमन, बेदख़ली, भारत की आर्थिक लूट, जनता के पैसे से वायसराय का स्वागत - इन सभी मुद्दों पर अत्यंत निर्भीक ढंग से वे लड़ते रहे। उनका सत्यशोधक आंदोलन ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध था। इससे यह ज़ाहिर होता है कि ज्योतिबा का आंदोलन ब्राह्मणविरोधी था। इसलिए कि उस समय हिंदू व्यवस्था में ब्राह्मण ही सर्वोपरि थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय के शासन की खरी-खरी आलोचना करने में ज्योतिबा ने कभी कोताही नहीं की। ज्योतिबा के आंदोलन के दौरान तमाम तरह की रपटें लोकहितवादी में छपीं जो जनता के उत्पीड़न को व्यक्त करती थीं।

गेल आमवेट ने महाराष्ट्र के ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन के व्यापक प्रसार पर लिखने के क्रम में ज्योतिबा के अतिरिक्त शाहू महाराज पर लिखा है जो स्वयं तो सामंती राजकुमार थे किंतु ब्रिटिश राज के प्रति वफ़ादार थे। शाहू महाराज का जनता के आर्थिक शोषण को लेकर जनवादी रवैया नहीं था। ज्योतिबा और शाहू महाराज के दृष्टिकोणों के अंतर को लेखिका ने अच्छी तरह स्पष्ट किया है। लेखिका ने सही टिप्पणी की है, 'दरअसल शाहू महराज रुढ़िवादी थे। उन्हें इस बात की चिंता अधिक थी कि उनका वंश अशुद्ध न माना जाये।' लेखिका ने शाहू महाराज के नेतृत्व में चले शुरुआती आंदोलन और परवर्ती आंदोलन का भेद स्पष्ट किया है :

होस्टलों में छात्र जीवन को इस तरह और इस आधार पर प्रेरित किया जाता था कि उनका विकास अलग-अलग जाति के रूप में हो और उनकी आत्मा उदार हो। शाहू जी महाराज विभिन्न समुदायों के बीच के भेदभाव को सीधे-सीधे समाप्त किये बिना ही सामाजिक उत्थान चाहते थे। समस्या यह थी कि अलग-अलग जातिगत स्वाभिमान का यह रूप दक़ियानूसी था क्योंकि यह स्वाभिमान जातियों की असली एकता के रास्ते में बाधा पहुंचाता था। यद्यपि शाहू जी महाराज को शिक्षाप्रसार के लिए आर्यसमाज पर आश्रित होना पड़ा। फिर भी अछूतों के मामले में वे प्रगतिशील दृष्टिकोण का परिचय देते रहे।

ज्योतिबा की मृत्यु 1890 में हुई। उनकी मृत्यु के बाद सत्यशोधक सिद्धांतो का क्रांतिकारी सार धीरे-धीरे समाप्त होता गया। चूंकि गेल आमवेट की पुस्तक राष्ट्रीय आंदोलन और सम्राज्यवाद-विरोधी संदर्भों से कटकर लिखी गयी है, अतः इसमें काफ़ी त्रुटियां हैं। ‘जाति के विनाश’ का दृष्टिकोण इस किताब में कहीं-कहीं हल्के ढंग से व्यक्त हुआ है।

कांग्रेसी मंत्रिमंडल में लंबे अरसे तक मंत्री रह चुके दलित नेता जगजीवन राम ने अपनी पुस्तक, कास्ट चैलेंज इन इंडिया में अछूतों के बारे में बड़े भावावेश के साथ लिखा है। यह पुस्तक समय-समय पर उनके दिये गये व्याख्यानों का संकलन है। वे बार-बार यह घोषित करते हैं कि जातिवाद जनतंत्र और समान नागरिक अधिकारों का शत्रु है। उन्होंने यह स्वीकार किया है :

जातिवादी व्यवस्था का प्रभाव इतना घातक और साथ ही सर्वव्यापी है कि पिछड़े हुए समुदाय जो कि हमारी आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा हैं, इन जंज़ीरों को तोड़ने के बजाय ऊंची जातियों के रीतिरिवाजों की नक़ल करने की ही कोशिश करते हैं - यदि खुद अछूत समुदाय के भीतर छुआछूत का इतना बोलबाला है तो इसे ब्राह्मणों की ईमानदार किंतु भोंड़ी नक़ल के रूप में ही समझा जा सकता है। (पृ.21)

यह एक सर्वविदित हक़ीक़त है कि जातिवाद ऊंची जातियों तक सीमित नहीं है। निचली जातियों, यहां तक कि अछूतों के भी कुछ हिस्से दूसरों को अपने से नीचा मानकर उनसे छुआछूत का व्यवहार करते हैं। इस समस्या की गहरी जड़ें हमारी सड़ी-गली खेतिहर व्यवस्था में जमी हुई हैं जो हमें विरासत में मिली हैं। पृ.20 पर जगजीवन राम ने गांधी को अछूतों के उद्धारकर्ता के रूप में देखा है। वे लिखते हैं, 'जिस व्यापक एकता और मेलमिलाप को गांधी जी देखना चाहते थे उसका दूसरा ज़रिया यह था कि छुआछूत का ख़ात्मा हो और अपने ही पूरे पवित्र रूप में चातुर्वर्ण व्यवस्था का पुनरुत्थान हो। महीने-दर-महीने, हफ्त़े-दर-हफ्त़े, ‘यंग इंडिया’ और बाद में ‘हरिजन’ में गांधी जी के लेखों की विषयवस्तु यही रही थी। (पृ.24)

इसके बावजूद जगजीवन राम कहते हैं कि ‘गांधी ने जाति व्यवस्था की जड़ों को हिला दिया।’यह अंतर्विरोधपूर्ण वक्तव्य है। पूरी पुस्तक में कांग्रेसी मंत्रिमंडल को लेकर जगजीवन राम चुप हैं। ऐसी कोई भी टिप्पणी नहीं करते कि कांग्रेस ने जातिवाद के विनाश के संदर्भ में कोई क़दम क्यों नहीं उठाया।

चौथी महत्त्वपूर्ण पुस्तक, एस.जी. सरदेसाई ने 1979 में लिखी और इसका नाम है, ग्रामीण इलाक़ों में वर्गसंघर्ष और जातिगत टकराव

ग्रामीण क्षेत्र की ग़रीब जनता (भूमिहीन तथा ग़रीब किसान) के संघर्ष के साथ जातिगत प्रभुत्व और असमानता के विरुद्ध संघर्ष को संयुक्त करना एक अनिवार्य और ज्वलंत आवश्यकता है। सरदेसाई यह मानते हैं कि खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब किसानों द्वारा भूमि के लिए, उच्चतर मज़दूरियों के लिए और ऋण-दासता के उन्मूलन के लिए किया जाने वाला संघर्ष जातिगत अन्यायों, भेदभावों तथा विद्वेष के विरुद्ध साथ ही साथ युद्ध किये बग़ैर कोई महत्त्वपूर्ण प्रगति नहीं कर सकता। श्रमिक जनता के वर्गसंघर्ष पर दृढ़ता से आधारित, जातिवाद और उसकी बुराइयों के विरुद्ध निरंतर चलाया जाने वाला सैद्धांतिक और व्यावहारिक संघर्ष ही समय की प्रक्रिया के दौरान जातिवाद की समस्या के समाधान की ओर हमें ले जा सकता है। यह भी याद रखने की ज़रूरत है कि गहराते आर्थिक संकट तथा जन-असंतोष का सामना करने वाला पूंजीपति वर्ग, श्रमिक जनता में फूट डालने तथा उस पर आक्रमण करने हेतु जाति के अस्त्र का इस्तेमाल करने के लिए हमेशा से तत्पर है।

पांचवीं महत्त्वपूर्ण पुस्तक बी.टी. रणदिवे की जाति और वर्ग है। इस पुस्तक की भूमिका में बी.टी.आर. ने कहा है : 'जातिवाद की समस्या का समाधान कृषि संबंधों के सामंती तथा अर्द्ध-सामंती ढांचे को ख़त्म करने में निहित था, किंतु नेतागण इसके लिए क़तई तैयार नहीं थे।'

केवल कम्युनिस्ट पार्टी ही वह पार्टी है जिसने अपने उद्भव काल से ही लगातार अस्पृश्यता और जातिवाद के विरुद्ध सही समझदारी का परिचय दिया है। रणदिवे की मान्यता है कि क्योंकि 'उसने इस समस्या को कृषि क्रांति के सवाल से जोड़ा है।' भूमिका में यह भी कहा गया है, 'इसके अलावा जनसंगठनों के लिए भी यह लाज़मी है कि वे अस्पृश्यों, आदिवासियों तथा दलित जातियों की समस्या पर विशेष ध्यान दें और इस काम को भी दबे-कुचले तबक़ों को एकजुट करने के कार्य का ही एक हिस्सा समझें। इसके बाद ही एकजुट मेहनतकशों की शक्तिशाली वाहिनी निर्णायक रूप से कृषिक्रांति के लिए जूझ सकेगी और जातिगत भेदभाव तथा अस्पृश्यों की भूदासता के आधार को ध्वस्त कर सकेगी।'

यह भी ध्यान रखने की ज़रूरत है कि अंग्रेज़, जहां तक संभव हो सका, ग्रामीण भूमि संबंधों को ज्यों का त्यों सुरक्ष्ति करते रहे। अंग्रेज़ी शासन सामंतों पर निर्भर करता था। निर्भर करने का अर्थ था जातिप्रथा तथा चले आते हुए संपत्ति संबंधों को समर्थन देना। सिर्फ़ अंग्रेज़ ही नहीं, हिंदू उच्च जातियों से आने वाले राष्ट्रीय नेता भी जातिप्रथा के साथ समझौता करना चाहते थे। इसी सिलसिले में राष्ट्रीय नेता और बुद्धिजीवी समुदाय पुनरुत्थानवादी सोच और विचारधारा की ओर मुड़ गये। प्राचीन परंपरा की हर चीज़, यहां तक कि बुराइयों, विशेषाधिकारों और पोंगापंथी विचारों तक को आदर और सम्मान दिया गया। 1921 में ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यह घोषणा कर दी थी कि वे सनातनी हिंदू हैं।

उन्होंने कहा था :

मैं स्वयं को सनातनी हिंदू मानता हूं क्योंकि (1) मैं वेद, उपनिषद, पुराण तथा सारे हिंदू धर्म ग्रंथों में और इसीलिए अवतारों तथा पुनर्जन्म में विश्वास करता हूँ। (2) मैं वर्णाश्रम धर्म में विश्वास रखता हूं। उसके मौजूदा आमफ़हम तथा भद्दे रूप में नहीं बल्कि उसे वैदिक रूप में। (3) मैं गौरक्षा में विश्वास रखता हूं-आमतौर पर इससे लिये जाने वाले अर्थ से भी कहीं व्यापक अर्थ में और (4) मैं मूर्तिपूजा में अविश्वास नहीं करता।

इन उद्घोषणाओं के प्रति भद्दे से भद्दे अर्थ में भी भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गहरा विश्वास है। डॉ. आंबेडकर के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करने के बावजूद। भीमा-कोरेगांव से संबंधित मुक़दमे और उसके तहत भाजपा-शासन के तहत गिरफ़्तारियां इसका पक्का सबूत पेश करती हैं। भाजपा-शासन नयी पेशवाई कर रहा है। दलितों को नियंत्रित करने के संसाधनों में हिंदू धर्मशास्त्र के साथ हिंदू-राष्ट्रवाद को भी आज शामिल कर लिया गया है।

हिंदू समाज के अन्यायों से मुक्त होने के लिए आंबेडकर द्वारा अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने और हिंदू धर्म का परित्याग करने का कोई परिणाम नहीं निकला। यहां तक कि आंबेडकर हमारे संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से हैं। यह वही संविधान है जिसके अंतर्गत अछूतों के घर जलाये जाते हैं, उनके घर लूटे जाते हैं, उनकी औरतों के साथ बलात्कार किया जाता है, उनकी हत्याएं होती हैं, अचरज की बात नहीं है अगर आंबेडकर को महसूस हुआ हो कि उन्हें धोखा दिया गया है।

छठी पुस्तक, अरुंधति रॉय द्वारा लिखी गयी है। इसका नाम है, एक था डॉक्टर, एक था संत

अरुंधति रॉय ने अछूतों पर किये जा रहे अन्याय और अत्याचार की पूरी दास्तान प्रस्तुत की है। वे कहती हैं :

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार प्रति सोलह मिनट में, एक दलित के विरुद्ध किसी ग़ैर-दलित द्वारा अपराध किया जाता है। प्रतिदिन चार से अधिक अछूत महिलाओं का ग़ैर-अछूत द्वारा बलात्कार किया जाता है। प्रत्येक सप्ताह तेरह दलितों की हत्या होती है और छह दलितों का अपहरण होता है। (पृ.17) 

ऊंची जातियों के लोग जाति-व्यवस्था की भर्त्सना और निषेध नहीं करते। अरुंधति ने खुलेआम यह स्पष्ट किया है कि 'जाति के पिरामिड की चोटी पर बैठे लोगों को पवित्र माना जाता है और उनके बहुत सारे विशेषाधिकार हैं। पिरामिड के तल पर बैठे लोगों को मलिन, प्रदूषित माना जाता है, उन्हें कोई अधिकार तो नहीं है लेकिन ढेरों कर्तव्य ज़रूर हैं। मलिनता-पवित्रता का फ़ार्मूला, असल में पैतृक व्यवसाय और एक विस्तृत जाति-आधारित व्यवस्था से जुड़ा हुआ है।' (पृ.19)

वर्ष1916 में मद्रास के एक मिशनरी सम्मेलन में दिये गये एक भाषण में महात्मा गांधी ने कहा था, 'एक राष्ट्र जो जाति-व्यवस्था उत्पन्न करने में सक्षम हो उसकी अद्भुत सांगठनिक क्षमता को नकार पाना संभव नहीं।'

अनुसूचित जाति एवं जनजाति के राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय न्यायिक सेवाओं में दलित और आदिवासी के प्रतिनिधित्व के आंकड़े बहुत ही चिंताजनक हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के 20 जजों में एक भी अनुसूचित जाति से नहीं है और बाक़ी न्यायिक पदों पर आंकड़ा 1.2 प्रतिशत है।

अरुंधति रॉय ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का हवाला देकर बताया है कि दलित और आदिवासी अब भी आर्थिक पिरामिड के सबसे निचले तल्ले पर रहते हैं, जहां वे हमेशा से थे, मुस्लिम समुदाय के ठीक नीचे। जिन्हें सफ़ाईकर्मी कहा जाता है, जो गटर की गहराई में उतरते हैं और सीवेज व्यवस्था की सफ़ाई करते हैं, जो शौचालय साफ़ करते हैं और जिन्हें नीच घटिया काम करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है - ऐसे सभी लोग दलित हैं। पुस्तक की भूमिका में डॉ. आंबेडकर की तुलना में गांधी की भूमिका पर उठाये गये प्रश्नों का समाहार करते हुए अरुंधति रॉय कहती हैं :

 

आधुनिक दुनिया, विषेशकर पश्चिमी दुनिया की स्मृति में गांधी को जो असाधारण, लगभग दैवीय स्थान दिया गया है, उसकी वजह से मैंने महसूस किया कि जबतक गांधी के प्रभावशाली वक्तव्य के अंश को ठीक से नहीं देखा जाता, तब तक डॉ. आंबेडकर के रोष को पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता। परिणाम यह है कि इस क्रूर संस्थागत सामाजिक अन्याय को अनदेखा करने की और छिपाने की परियोजना, अबाध गति से और बिना किसी अड़चन के जारी रहेगी।

 

सातवीं महत्त्वपूर्ण पुस्तक है, जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता। इसके लेखक पेरियार ई.वी. रामासामी हैं। इस पुस्तक में पांच लेख जाति-व्यवस्था पर केंद्रित हैं : (1) जाति-व्यवस्था, (2) जाति के बारे में, (3) जाति-व्यवस्था की कार्यपद्धति, (4) जाति और चरित्र तथा (5) जाति-व्यवस्था का क्षय हो।

ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अनथक संघर्ष करने वाले पेरियार दलित जातियों के मुक्तिदाता के रूप में प्रसिद्ध हैं। तमिलनाडु में लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण वेलाला जाति पंचम जाति (अस्पृश्य) में आती है। इस जाति के लोग उन ब्राह्मण और क्षत्रिय युवतियों की संतान हैं जिन्होंने अन्य वर्ण के पुरुषों के साथ मेल किया। पेरियार ने आह्वान किया कि इस जाति-व्यवस्था का विनाश करें। चूंकि जाति-व्यवस्था की प्रकृति धूर्ततापूर्ण है, पेरियार मानते थे कि कोई तार्किक अथवा आत्मगौरव संपन्न व्यक्ति इस जाति व्यवस्था को स्वीकार नहीं कर सकता।

'जाति-व्यवस्था की कार्यपद्धति' शीर्षक लेख में पेरियार डॉ. आंबेडकर की तरह यह मान्यता प्रस्तुत करते हैं कि 'अस्पृश्यता या जाति के समापन के लिए सबसे पहले आपको अपने धर्म को नष्ट करना होगा। अगर आप ऐसा नहीं कर सकते हैं तो कम से कम धर्म को त्यागने का साहस करिए! यह बात स्थापित तथ्य है कि जब तक धर्म समाप्त नहीं होता है, तब तक अस्पश्यता को समाप्त नहीं किया जा सकता है।' (पृ. 41-42)

गांधी या कांग्रेस के नारों के तहत जिस स्वराज की बात की जाती है, उसका सारांश प्रस्तुत करते हुए पेरियार कहते हैं, 'स्वराज्य कुछ और नहीं, बल्कि रामराज्य, गीता राज्य, मनुस्मृति का शासन ही है'। (पृ.42)

त्रिची में 29 सितंबर 1929 को दिये गये पेरियार के व्याख्यान का अनुवाद अंग्रेज़ी से पूजा सिंह ने किया है। इस व्याख्यान में दो टूक शब्दों में पेरियार ने यह कहा कि 'उच्च जाति के धूर्त व्यक्तियों ने अत्यंत धूर्ततापूर्वक जाति और धर्म को आपस में जोड़ दिया ताकि उनको अलग करना मुश्किल हो जाये'। (पृ.55)

इन सातों पुस्तकों में डॉ. आंबेडकर द्वारा तैयार किया गया व्याख्यान, जाति का विनाश एक महत्तम कृति है। इस पुस्तक में समाज और इतिहास की मिसालें देकर जाति व्यवस्था की व्यर्थता पर विस्तार से विचार किया गया है। जाति का विनाश पुस्तक रूप में एक क्लासिकल कृति है। इसे स्कूल और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से अभी तक दूर रखा गया है। इसलिए नयी पीढ़ी जाति व्यवस्था के पक्ष विपक्ष में ठीक से सोच नहीं पाती है। वर्ग संघर्ष के लगातार प्रयत्नों से ही जाति व्यवस्था का विनाश संभव है।

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौर में सर्वाधिक पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी के रूप में डॉ. आंबेडकर एक महान व्यक्तित्व थे। उन्हें याद करना यदि आवश्यक है तो पाठ्यक्रमों में उनकी किताबें निर्धारित होनी चाहिए।

 

मो. 9818859545

पुस्तक संदर्भ

1. जाति का विनाश : डॉ. आंबेडकर, अनुवादक: राजकिशोर, फारवर्ड पे्रस, दिल्ली, 2018

2. कल्चरल रिवोल्ट इन ए कॉलोनियल सोसाइटी-द नन-ब्राह्मण मूवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया :

गेल आमवेट, द साइंटिफ़िक सोशलिस्ट एजुकेशन ट्रस्ट, मुंबई, 1976

3. कास्ट चैलेंज इन इंडिया : जगजीवन राम, विजन बुक्स, दिल्ली, 1980

4. ग्रामीण इलाक़ों में वर्ग-संघर्ष और जातिगत टकराव : एस.जी. सरदेसाई, सी.पी.आई. दिल्ली, 1979

5. जाति और वर्ग : बी.टी. रणदिवे, नेशनल बुक सेंटर, दिल्ली, 1981

6. एक था डॉक्टर, एक था संत : अरुंधति रॉय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,  2019

7. जाति व्यवस्था और पितृसत्ता: ई.वी. रामासामी, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2020

 

 

 

 

No comments:

Post a Comment