पुस्तक चर्चा


 आईना साझा सच्चाइयों का
रश्मि रावत  

विश्वव्यापी महामारी से घिरे मौजूदा समय में मानव की आपसदारी ही संकट से उबरने का एकमात्र रास्ता है। विज्ञान, तकनीक और त्वरित संचार साधनों की बदौलत दुनिया सिमटकर एक ग्लोबल विलेज बन गयी है। इसके अनेक नतीजों में एक यह है कि व्याधियों और विषाणुओं का भी भूमंडलीकरण हुआ है जो विगत कालों में किसी देश या इलाक़े तक सीमित रहते थे। लेकिन, जैसा इज़रायल के इतिहासविद युवाल हरारी ने एक हालिया इंटरव्यू में कहा है, विषाणुओं और मनुष्यों की इस लड़ाई में मनुष्यों का पलड़ा भारी है। विभिन्न महाद्वीपों के मनुष्य आपस में सहयोग कर सकते हैं। इसके विपरीत विषाणु कितने ही घातक और संहारक क्यों न हों, वे मनुष्यों की तरह एकजुट नहीं हो सकते। वे मानवीय चेतना की तरह आपस में संगठित हो कर कोई रणनीति नहीं बना सकते। मगर एकजुट होने की कोशिशों में वर्तमान दौर की बोझिल हवाएं निरंतर बाधा डाल रही हैं।
आइंस्टीन का प्रसिद्ध कथन है कि सोच के जिस स्तर पर कोई समस्या पैदा होती है, उसी स्तर पर रहते हुए वह हल नहीं हो सकती। लेकिन वर्तमान सत्ता वैज्ञानिक चेतना, आपसी सहयोग और भावात्मक संवेगों के उन्नयन की दरकार को क्या समझेगी, वह तो तर्कशीलता और सृजनशीलता को कुचल देने पर आमादा नज़र आती है। विभेदक तत्वों को बढ़ावा दिया जा रहा है। ‘भारत’ शब्द को बीच का सारा इतिहास फलांग कर पुरातन संस्कृत ग्रंथों, धर्मशास्त्रों, प्रथाओं, अंधमान्यताओं, पौराणिक आस्थाओं से जोड़ कर देखा जा रहा है। भारतीयता की सत्तापोषित अवधारणा इस क़दर सिमटी हुई और सीमित है कि बीमारी, इलाज और रोज़मर्रा की आम चीज़ों तक को सांप्रदायिक चश्मे से देखने में उन्हें गुरेज़ नहीं।
     ऐसे में अनामिका के उपन्यास, आईनासाज़ से गुज़रना राहतकारी लगा। वर्तमान चुनौतियों से पार पाने का संवेग हासिल करने के लिए उनकी दृष्टि सुदूर अतीत तक दौड़ लगाती है और इतिहास के उस मोड़ तक पहुंचती है जहां, बक़ौल विश्वनाथ सदाशिव नरवणे, हिंदुस्तान की नवीनतम और सृजनशील परंपरा की शुरुआत होती है। यह परंपरा बहुत गहरी और मज़बूत है और आज तक जारी है। इसी प्रक्रिया के भीतर बहुलता, स्वाधीनता और इंसानी गरिमा जैसे लोकतांत्रिक मूल्य बने रह सकते हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस उपन्यास पर हुई गोष्ठी में नित्यानंद तिवारी ने कहा कि
मुसलमान जब भारत आये तो एक-दूसरे से नितांत भिन्न दो समाजों की बराबरी की समस्यात्मकता पैदा हुई। यह समस्या इतनी वास्तविक, इतनी गहरी और इतनी बड़ी थी कि व्यापक आलोचना बुद्धि और अंतःगतिशील प्रणाली और साझे स्पेस की खोज अनिवार्य हो गयी थी। इन धार्मिक पहचानों से ऊपर उठकर मानवीय बने रहना और दोनों समाजों के ‘साझे आकाश’ से ही ‘भारतीय समाज’ की संज्ञा में समाहित होना संभव था।

उनकी बातों का निचोड़ था कि कई धार्मिक समाजों, आदिवासी समुदायों और विविध जीवन-मूल्यों का साझा आकाश ही भारत है, जिसे दरकाना संभव नहीं है।
आज के समय को पर्त दर पर्त उघाड़ने वाले इस उपन्यास के अंदर एक और आत्मकथात्मक उपन्यास है, जिसमें अमीर ख़ुसरो ख़ुद अपनी जीवन कथा कहते हैं। इससे उस सामाजिक, सांस्कृतिक बुनावट को भली-भांति समझा जा सकता है, जिसकी मिट्टी में आपसी भरोसे की अतल गहरी जड़ें व्याप्त हैं। उस काल में धर्म एक बड़ी ताक़त था। तमाम धार्मिक विभेदों को पार कर चेतना के उस प्रकाश तक पहुंचना कि मानव मात्र से प्रेम किया जा सके, सूफ़ी धारा की बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इस समय सामाजिक तानेबाने को तार-तार करने की जो कोशिशें की जा रही हैं, उनसे बेचैन होकर उपन्यासकार धार्मिक सौहार्द के सिलसिले इस युग से जोड़ना चाहती हैं। नित्यानंद तिवारी ने पद्मावत में जोड़ का जो शिल्प बताया है, उसी का प्रयोग इस उपन्यास में दिखता है। जायसी ने दोनों धर्मों की बारीक़ से बारीक़ अर्थ भंगिमाओं को एक-दूसरे के समानांतर रख कर इस तरह बयां किया है कि कथानक के आवयविक विकास की पहले से चली आ रही धारणा टूट जाती है और संपूर्ण का एक नया अर्थ खुलता है। संपूर्ण अपने आवयविक विधान में ही नहीं होता, वह जोड़ में भी वास्तविक और पूर्ण होता है। वर्तमान परिदृश्य देख कर जोड़ को संपूर्णता के अभिन्न हिस्से की तरह स्वीकारने का औचित्य साफ़ समझ में आता है। उपन्यास के भीतर ‘अथ ख़ुसरो कथा’ शीर्षक से अमीर ख़ुसरो पर लिखी हुई सौ पेज की उपन्यासिका का मध्यकाल और उपन्यास में वर्णित समकाल इसी तरह से एक-दूसरे से संबद्ध हैं कि उनका अपना अलग वैशिष्ट्य और सौंदर्य क़ायम रहता है, मगर एक के दर्पण में दूसरे को देखे जाने से ही समग्र यथार्थ को ग्रहण किया जा सकता है। मध्यकाल-समकाल, स्त्री-पुरुष, निजी-सार्वजनिक, स्व-सर्व को इसी अंदाज़ में हम आईनासाज़ में जुड़ा हुआ पाते हैं।
सूफ़ी धारा में प्रचलित शब्द सिलसिला की अवधारणा से अनामिका बहुत प्रभावित हैं और इस शब्द के ज़रिये वे उम्मीदों का उत्खनन करती हैं। एक मशाल से दूसरी, दूसरी से तीसरी जलती जायेगी और मानव समाज आलोकित होता जायेगा। भक्तिकाल के तमाम मानवीय मूल्य जिनका उत्कर्ष सूफ़ी काव्य में मिलता है, इस तरह हमारे आचरण का हिस्सा बन जायेंगे। आत्मक्रांति में उन्हें समाज के कल्याण का प्रस्थान बिंदु दिखता है। उपन्यास में भाषा, संगीत, शायरी, वाद्य-यंत्र, प्रकृति, पकवान, अध्यात्म सब एक दूसरे का आलिंगन करते हुए से जान पड़ते हैं। निज़ामुद्दीन औलिया अमीर ख़ुसरो से कहते हैं कि तुम्हारी शायरी फ़ारसी का तबोताब, बांग्ला की मिठास और पंजाबियत का सूफ़ी नूर पा कर ऐसी दमकेगी कि एक नयी जुबां पा लेगा हिंदुस्तान।‘ (आईनासाज़,  पृष्ठ 25)
           मानव-मात्र के प्रति प्रेम और करुणा का भाव, ऐश्वर्य के स्थान पर सादगी, और ख़ुशामद के बरक्स ख़ुद्दारी का रेखांकन उग्र पूंजीवाद का प्रतिकार भी है। उपभोक्तावाद तो उदात्त जीवन-मूल्यों से रहित रिक्त व्यक्ति-मन को ही अपना ग्रास बना सकता है। जन-साधारण की वेदना से ख़ुद को एकाकार करने वाले चरित्र ही रचना में मुख्य पात्र के रूप में आये हैं। सत्ता की शक्ति के साथ सत्य और प्रेम की ताक़त बनाये रखना संभव नही है। रूप और धरती एवं जनता, सब पर कब्ज़ा जमाने वाले व्यक्ति-मन में प्रेम और करुणा की फ़सल कैसे उगेगी भला? अखंड सुंदरी रानी पद्मावती को कब्ज़ाने की अलाउद्दीन ख़िलजी की कुत्सा की कुरूपता दिखाते हुए रचनाकार ने कविता और काव्यात्मक गद्य के सहारे साफ़ किया है कि सूर्य की आभा, चांदनी, धूप इत्यादि को रस्सी से नहीं बांधा जा सकता। आदमी पर आदमी का भरोसा ही आदमियत की लचकी हुई डाल का अमृतफल है। अमीर ख़ुसरो के मुख से अनामिका ने लिखवाया है :

ख़ुद को जो जीत सका, बादशाह वह ही तो/अल्ला मियां, मेरे अल्ला मियां/ वो तुम्हारी शायरी थी।/ पद्मिनी का भरोसा उससे भी सुंदर था/ प्रेम और ज़बरस्ती?/ फट जाती है धरती/ ऐसे ही दुर्योगों से/ (आईनासाज़, पृष्ठ 30-31)

जीते-जागते इंसान पर आधिपत्य जमाने की प्रवृत्ति शासक को उच्चतर मानवीय गुणों से वंचित करती है। सियासत इतना खोखला कर देती है कि बादशाह झूठी तारीफ़ें, चापलूसियां सुन कर ही अपने भीतर की रिक्ति को भरते हैं। निरंतर युद्धों से थके राजा का मन फुलसूंघी चिरैया हो जाता है।’ (आईनासाज़, पृष्ठ 68) ऐसा काव्य रचने को बाध्य कवि स्वायत्त नहीं हो सकता। इसीलिए कलम और स्त्री की स्वतंत्रता के सवाल को लेखिका परस्पर संबद्ध पाती हैं। एक की आज़ादी में दूसरे की आज़ादी निहित है। कवि वह औदात्य, मानवीय सद्गुणों का रस फिर पायेगा कहां इस सत्ताशील व्यवस्था में? रचना के भीतर से जवाब उभरता है कि उन मनुष्यों में जिनकी सत्ता में कोई हिस्सेदारी नहीं है, जो अधीन बनाने की संरचना से सीधे जुड़े हुए नहीं हैं। इसलिए भिक्षा में मिले अत्यल्प साधनों में जीने वाले औलिया, स्त्रियां, बच्चे और आम जनता ही ख़ुसरो के स्वत्व के कवच को भेद कर उसका विस्तार करते जाते हैं। वे इन्हें अल्लाह की तरफ़ खुलने वाली खिड़कियां कहते हैं।
  सियासत के अस्थायी अस्तित्व का बोध ख़ुसरो के भीतर निरंतर रहता है कि आज सुल्तान है कल नहीं। इसलिए वे निज़ाम पिया के एक सूखे टुकड़े पर शाही दस्तरख़ान क़ुर्बान करने के लिए हमेशा राज़ी रहते हैं। जौ की एक सूखी बासी रोटी भी निज़ाम (औलिया) के गले से नहीं उतरती कि दिल्ली के मख़लूकों में कोई एक भी भूख में जगता हो तो ख़ुद को क्या मुंह दिखाऊंगा। अपनी कलम से समझौता करने से ख़ुसरो की रूह में शिकन आती है। इसीलिए दरबारी सीमाओं के बावजूद वे महीन ढंग से समय की कटु सच्चाई अपनी शायरी में पिरो देते हैं। सुल्तान उसे भले न समझ सकें मगर कविमन का विश्वास है कि उनके लफ़्ज़ वेदनामय दिलों तक जाने का रास्ता बना लेंगे। बादशाह के इशारे पर चलने वाली कलम उन्हें उतनी ही वाहियात लगती है जैसे लड़की का महफ़िल के इशारों पर नाचना। अपने जैसे एक आदमी के सामने अदब से खड़े रहना उन्हें गहरे सालता है।
सूफ़ी हृदय एक उदात्त मानव प्रेम तक पहुंचा सकता है, मगर उस कालखंड के उत्पादन-संबंधों के अंतर्गत स्त्री-पुरुष की सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों में फ़र्क़ होना लाज़मी था। उस समय स्त्रियां सार्वजनिक स्पेस से लगभग नदारद थीं। इतिहास जहां ख़ामोश है, समय के उन पन्नों में अपनी संवेदना के रंग भरने में लेखिका की लेखनी ख़ूब रमती है। पनिहारनों से बेतकुल्लफ़ी से बतियाने वाले, विदाई गीत, विवाह गीत, पहेलियां लिखने वाले अमीर ख़ुसरो स्त्रियों को सखा ही लगते हैं। जिन स्त्रियों के साहचर्य में ख़ुसरो वास करते हों, उन्हें हाड़ मांस का जामा पहनाना एक समृद्ध संवेदना की स्त्री के लिए सहज ही है। इतिहास में नाम और पहचान ही तो दर्ज होने से रह जाते हैं। कर्ता के कर्म में स्त्रियों का तेज तो शामिल होता ही है। लेखिका ने अपनी कल्पनाशीलता के बल पर अपने व्यक्तित्व के तेज से दिप-दिप करते स्त्री पात्र बड़ी सजीवता से उकेरे हैं। ख़ुसरो की अम्मी, पत्नी मेहरून्निसा, बेटी क़ायनात, रानी पद्मिनी, मल्लिका इन सबके संग-साथ में ही उनके भीतर का इंसान विराटतर होता जाता है। सभी बेहद जानदार औऱ ज़हीन किरदार हैं। पद्मिनी सा रूप और ख़ुसरो जैसे अदब के हुनर से भरी हैं ये उदात्त नायिकाएं। ईरान की राबिया फ़क़ीर का ज़िक्र बार-बार आता है। उनकी महक से सुवासित उनके शागिर्द और उपन्यास के अन्य मुख्य पात्र मिलकर दुनिया के सुदूर स्थलों में पनपी दिव्य मिठासों का साझा पान करते हैं। राबिया फ़क़ीर रचनाकार के सामने इतिहास के पन्नों में सदेह उपस्थित थीं। उन्हीं से अक्स ले कर उन्होंने अन्य स्त्री किरदारों को गढ़ा होगा। ऱाबिया अपने और दूसरों के बीच की सरहद मिटा देना मज़हब का मूल मक़सद मानती हैं।
 अरब के खजूरों की मिठास और शहद का ठहराव जिनकी शख़्सियत का सार था, बला की ख़ूबसूरत वह मल्लिका राजसी जीवन छोड़ कर सादा जीवन जीती है और बालिकाओं को अमन की शिक्षा देती है। पति भी उनके सामने शागिर्द सा बना बैठा रहता है। ख़ुसरो से वे कहती हैं :
मज़हबों का फ़र्क़ मेटने में जी-जान लगा देना ख़ुसरो। बीज किसी भी क्यारी में गिरें, उसमें फलने-फूलने का माद्दा होता ही है। ख़ुद किसी मज़हब, किसी ज़ात, किसी मुल्क की क्यारी में हमें गिरा दे, बीज की ही तरह चटककर अपनी अना की खोल से हमें बाहर आना होता है।
 (आईनासाज़, पृष्ठ 65)
बच्चों की मां मेहरू का दैहिक-आंतरिक सौंदर्य अद्भुत है। ईरान से आये राबिया के शागिर्द लहीम-शहीम शम्सुल पर मेहरू की झलक भर से ख़ुसरो की पत्नी मेहरू ख़ुसरो की शख़्सियत पर भी भारी पड़ती हैं। ख़ुसरो की शायरी के साथ उनकी भी शायरी गायी जाती है दरगाह में। पांच बहोशी तारी होती है, जैसे ख़ुसरो पर पद्मिनी से। पद्मिनी के बारे में ख़ुसरो की भावना की ऊंचाई इन शब्दों से समझी जा सकती है :

 पद्मिनी तो पूरा कमल-ताल थी। हिंदु जनेऊ पहनते हैं न, मेरी अँतड़ियां ख़ुद जनेऊ होने के एहसास से भर गयी हैं और इस जनेऊ के पोर-पोर में गुरमंतर-सा पद्मिनी के होने-न होने के बीच का एहसास बस गया है। जैसे हिरनी दलदल लाँघती है, वह जीवन लाँघ गयी। इस देह के पिंजरे में अब दो पंछी रहते हैं। (आईनासाज़, पृष्ठ 35)

यही भाव शम्सुल के मेहरू के प्रति, शाहिद के कायनात के प्रति हैं। किशोरी कायनात स्वयं अपने पिता से कहती है कि यह सूफ़ियाना दोस्ती है जैसे आपकी पद्मिनी से है वैसी मेरी शागिर्द से। यह सुन कर ख़ुसरो अपनी बेटी के प्रेम संबंधों के बारे में फैली अफ़वाह पर यक़ीन करने के लिए शर्मिंदा होते हैं और ख़ुद ही शाहिद और अन्य शागिर्दों को घर ले आते हैं।
हरे-भरे मैदानों की हरियाली में स्त्री की आब देखना समाज सीखे तो चट्टानों की सघनता और विराटता में भी स्त्री की तरलता देखने का हुनर आ जायेगा। स्त्री के जल की गूंथन से ही वे पहाड़ हैं वर्ना धूल का ढेर भर होते। उस लिहाज़ से भी रचनाकार ने सही कालखंड का चुनाव किया है क्योंकि सूफ़ीधारा में स्त्री के लिए हिकारत का भाव नहीं है। प्रेमिका ईश्वर का प्रतिरूप होती है, जिसे पाने के लिए जीव को पात्रता अर्जित करनी पड़ती है। निरंतर प्रयास से प्रेम की पात्रता को उपलब्ध करना पुरुष सीख ले तो यह धरती प्रेममय हो जायेगी। प्रेम आधारित समाज तो समतामूलक समाज होगा ही, जिसमें सब अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने के लिए स्वतंत्र होंगे।
  स्त्री को अपने बारे में लिखते हुए एक लंबा अरसा हो चुका है। अब स्त्री-पुरुष का अपरिचय काफ़ी कम हुआ है। स्त्री- सरोकारों को समाज के सरोकार समझने की चेतना अगर बन रही है तो अगले चरण में पुरुषों की तरफ़ से ऐसे पुरुष किरदारों के हवाले से बातें आने की दरकार है कि पुरुष ग्लानि भाव से लिखे, उत्तरोत्तर विकसित होती स्त्री चेतना के साथ अपना ताल-मेल बिठाये। स्त्री को दोष देने और पीछे खींचने की जगह नयी ज़ैंडर संवेदना के हिसाब से अपना विकास करे। मध्यकाल की पृष्ठभूमि में लिखे गये इस उपन्यास में पुरुष किरदार यह अपेक्षित भूमिका निभाते हुए दिखता है। ख़ुसरो कहते हैं :

कायनात की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ औरत, सिरजनहार के नूर का ख़ज़ाना और हमने उसका क्या हाल कर रखा है। मेरी पूरी शायरी, सूफ़ियों का पूरा दीनो मज़हब एक ही फेर में लगा है कि कैसे हम ऐसी फ़िज़ा रच सकें जहां औरत, मुफ़लिस, बुजुर्ग, बच्चे और प्रकृति, जो ख़ुद का आईना है शैतानी हरकतों के जूतों तले चूर-चूर होने से बच जायें।....औरतें ख़ुद के रहस्य की पिटारियां हैं।    (आईनासाज़, पृष्ठ 44)
उपन्यास में स्त्री-पुरुष के बीच सबसे अच्छा रिश्ता दोस्ती का माना गया है । पति-पत्नी के बीच भी दोस्ताना संबंध होने की कामना की गयी है। वर्तमान समय में जब स्त्रियों का आर्थिक, सामाजिक आयाम काफ़ी विस्तार पा चुका है और सार्वजनिक परियोजनाओं में उनकी भागीदारी बढ़ती जा रही है, स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों को सीमित नज़रों से देखे जाना लेखिका को सालता है। व्यक्तित्व बहुआयामी हैं और यथार्थ जटिल तो स्त्री-पुरुष के रिश्ते कैसे इकहरे हो सकते हैं? मगर अभी भी स्त्री को अपनी छवि को लेकर शंकित रहना पड़ता है क्योंकि उसे लेकर फैलाये गये प्रवाद और अफ़वाह उसकी क़ाबलियत और उपलब्धियों पर भारी पड़ते हुए अक्सर देखे जाते हैं। अनामिका वांछित संबंध को सूफ़ियाना दोस्ती कहती हैं। सृजनशील परंपराओं में आधुनिकता के साथ संवाद करने की और रूप बदलकर क़ायम रहने की भरपूर सामर्थ्य होती है। मगर प्रस्तुत उपन्यास में आधुनिक शब्दावली में इन वांछित रिश्तों को नहीं ढाला गया है। शायद इसलिए कि 21वीं सदी में भी उपन्यास के स्त्री पात्र सामंती हिंसा का उसी तरह शिकार बनते दिखायी देते हैं। आज भी स्त्रीत्व का सार उसके कर्म और व्यक्तित्व में नहीं खोजा जाता और बौद्धिक और सार्वजनिक जीवन में उसकी सफलता में रोड़े डाले जाते हैं। फिर भी वह किसी तरह उपलब्धियां पा जाये, तो उसके चरित्र पर आक्षेप लगाये जाते हैं, पुरुष-मित्र के साथ उसके सहज संबंधों को कलुषित, सीमित नज़रों से देखा जाता है। इन सबसे सीमित, वंचित जीवन जीने को बाध्य विविध स्त्री किरदार ही समकाल वाले हिस्से में साकार होते हैं। एक प्रबुद्ध, सचेत, आधुनिक  स्त्री द्वारा सामान्य सा मानवीय भाव जीने के लिए व्यतीत का उत्खनन करना और अतीत की शब्दावली में उसे व्यक्त करने की ज़रूरत महसूस करना यह संकेतित करता है कि आधुनिक विचार सरणियों और आचरण पर पुनर्विचार की ज़रूरत है ।
बहरहाल 2020 में प्रकाशित इस उपन्यास में तो स्त्री-पुरुष के सामान्य संबंध सूफ़ियाना दोस्ती के ढांचे में ही संभव हो पाते हैं । समकाल को संबोधित रचना के लगभग आधे हिस्से में केवल दो पात्र सिद्धू और नफ़ीस ही स्त्री के दोस्त होने की पात्रता रखते हैं और यह पात्रता वे जीने के आधुनिक मुहावरे से नहीं बल्कि सूफ़ी प्रभाव में अर्जित करते हैं।
उपन्यासकार की कविताओं, स्त्री प्रश्नों पर निरंतर लेखन और पहले छपे दो उपन्यासों,  तिनका तिनके पास और दस द्वारे का पींजरा को पढ़ने से उनकी उन्नत स्त्री चेतना के प्रति कोई संदेह नहीं रह जाता। उसके तहत भरोसा बनता है कि अब तक के आंदोलनों और ज्ञानधाराओं के निचोड़ से अस्तित्व में आये संविधान और लोकतंत्र में ही व्यक्तित्व विकास की संभावनाएं साकार की जा सकती हैं। प्रगतिशील विचारधारा ही व्यापक मानव-मुक्ति की दिशाएं तय कर सकती हैं। मगर यह उपन्यास में हुआ नहीं है, हो पाया नहीं है। शब्द और कर्म के बीच का फ़ासला उपन्यास में जगह-जगह दिखाया गया है। सरोज, सपना और ललिता इस व्यवहार से जख़्मी होते रहते हैं ।
 प्रखर स्त्रीवादी अनामिका मार्क्सवाद और धर्म को एक छज्जे के नीचे लाने की बात आख़िर क्यों कर रही हैं? स्त्री की अधीनस्थता की समूची कल्पनाएं धर्म से आयी हैं। धर्म से मुठभेड़ करके ही वह इन कल्पनाओं से अपने को मुक्त कर सकती है। संस्कारों में सखा के रूप में ईश्वर की कोई छवि बची रहना अलग बात है। अंतर्जगत की तरलता क़ायम रखने से किसे गुरेज हो सकता है? करुणा तो मानव मात्र के लिए ज़रूरी है। मन का आयतन जिस माध्यम से भी बढ़े काम्य ही है। उसमें प्रेम और करुणा जैसे व्यापक मनोभाव बने रहें। क्रांति के पीछे करुणा की शक्ति ही तो काम करती है। मगर सैद्धांतिक रूप से प्राचीन कालीन संचालक शक्ति को आधुनिक ज्ञान सरणि के साथ जोड़ कर देखना, समझना थोड़ा मुश्किल है। 500 साल में तो जीवन को प्रभावित करने वाले ज्ञान के हर आयाम में इतना विकास हुआ है कि दुनिया को देखने-समझने और बदलने के रास्ते ही बदल गये। विकास के इतने लंबे उपक्रम के बाद कमाये हुए टूल आगे बढ़ने के लिए अपर्याप्त क्यों लगने लगे? इस उपक्रम का तो वैयक्तिक तौर पर ही कोई मतलब हो सकता है कि व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक उन्नति करके अपना विस्तार करे तो उसके भीतर अहं, काम, क्रोध और स्वार्थांधता का विलीन होना सामूहिकता में सहायक हो सकता है।
सामंतवाद बीत नहीं गया। समाज का बड़ा हिस्सा संविधान की मुट्ठी से बाहर छिटका हुआ है। कोई बड़ी सामाजिक शक्ति काम नहीं कर रही है। पब्लिक और घर दोनों ही दायरों में पुरुषसत्तात्मकता बुरी तरह काबिज़ है। स्त्री की सुरक्षा तक ख़तरे में है। बक़ौल अनामिका मुश्किल यह है कि स्त्री के पास अपना कोई पब्लिक स्फ़ेयर नहीं है। इसलिए अकादमिक, साहित्यिक जगत में भी वही स्त्री मज़बूत स्थान बना पाती है जिसे किसी न किसी रूप में पुरुष संरक्षण प्राप्त हो। उपन्यास में कविता नामक लेखिका के उदाहरण से इस सरोकार को स्पष्ट किया गया है, जो अपने पति जलज के सहयोग से साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा पाती है। अकेली स्त्री के लिए यह दुर्लभ है। अतएव अनामिका रचित स्त्री अपनी गरिमा के सूत्र सूफ़ियाना दोस्ती में खोज रही है।
समकाल की केंद्रीय पात्र सपना जैन जब मॉडलिंग नेक्सस-कम सैक्स रैकेट में फंस जाती है तो मित्र सिद्धू के वैयक्तिक प्रयासों से ही बाहर निकल पाती है। व्यवस्था उसके काम नहीं आती । उसकी दर्ज करवायी एफ़. आई. आर पर चार साल तक कुछ नहीं होता। आदिवासी कवयित्री सरोज कुंडो को निराधार अनर्गल बातों से पहले बदनाम किया जाता है, फिर चरित्रहीन समझ लिये जाने पर ‘उपलब्ध’ मान लिया जाता है। बाद में उसके साथ भीषण गैंगरेप होता है। सभी दुर्घटनाओं में निजी प्रयासों से ही किसी तरह की मदद मिलती है। अपराध देश के, समाज के ख़िलाफ़ होता है । मगर शिकार उसकी सजा अकेला भोगता है।
लोकतंत्र की मशीनरी अधिक कारगर नहीं हो पाती। अपने आई पी एस दोस्त सिद्धू के प्रभाव का प्रयोग करके सपना अपने दैहिक शोषण की फ़ाइल भी सरोज कुंडो के साथ खुलवाती है। विकट संघर्ष से गुज़रने और दो गवाहों की मौत के बाद आंशिक रूप से न्याय मिलता है। वह भी सहज ढंग से नहीं। सोशल मीडिया के ज़रिये प्राप्त पब्लिक स्फ़ेयर इस जद्दोजहद में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सालों से कार्यरत संगठनों के आंदोलन और महिला आयोगों का भी उपन्यास में जिक्र नहीं है। कृष्णा सोबती की झलक देती वरिष्ठ साहित्यकार श्यामा, सूफ़ियाना मिजाज़ का मितभाषी धीरोदात्त नफ़ीस, मनोवैज्ञानिक शैफाली, बाद में सपना और सरोज मिल कर करुणा, प्रेम, बराबरी के मूल्यों को जगाने के लिए तरह तरह के उपक्रम करते हैं। मातृसदन, बाल छात्रावास चलाते हैं। धर्मेतर अध्यात्म के माध्यम से समानता और स्वतंत्रता के मूल्य जगाते हैं। सीमित सही मगर इनके महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। मगर इनका व्यापक और दूरगामी प्रभाव नहीं हो सकता जब तक व्यवस्था में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आयेगा।
पात्रों के जीवन संघर्षों को इन उदाहरणों से समझा जा सकता है। इप्टा से जुड़े नफ़ीस के अब्बू ने अपनी पत्नी के जीते जी कभी उनसे अच्छा व्यवहार नहीं किया। इतिहास की प्रोफ़ेसर ललिता के आई.आई.टी, एम.आई.टी से पढ़े पति सुधीर चौधरी ने जिस महास्वप्न की ख़ातिर सिलिकॉन वैली की नौकरी छोड़ कर भारत का रुख़ किया था, उसमें मिली हताशा की कुंठा अपनी बीबी और बच्चों पर निकालते हैं। ललिता के पिता ने ही विभाजन के बाद के पहले दंगे से दुखी हो कर सौहार्द के सूत्र खोजने के क्रम में अमीर ख़ुसरो पर पूर्वोक्त उपन्यास लिखा था। ख़ुसरो की आंखों का तारा सबसे छोटी बेटी कायनात जो बेहद ज़हीन, ख़ूबसूरत और आला दर्जे की शायरा है, अंत में उसका अपहरण हो जाता है। कई दिनों तक उसका अता-पता नहीं मिलता और बाद में वह ख़ुद में खोयी सी, अना (अहंकार) के कवच को लांघ कर राबिया का कोई रूप लगने लगती है। श्यामा दी का कहना था कि ललिता के लिए जो पिता की वेदना थी वही उनके उपन्यास में कायनात में उतर आयी है । प्रोफ़ेसर ललिता उस अधूरे उपन्यास को पूरा करना चाहती है। कायनात के जीवन की परिणति 1969 में उनके पिता नहीं तय कर पाये थे। शायद यह ललिता की ज़िंदगी से तय होना था। वह मातृभाव से सब माफ़ करती चलती है, वह मैट्रो, लाइब्रेरी के एकांत में ही निजी कोने और कुछ राहतें पाती है। छत, बाथरूम, भंडार घर औरत के तीसरे फेफड़े (आईनासाज़, पृष्ठ 162)। होते हैं। ऐसे ही ललिता को मैट्रो में पति-बच्चों से दूर मायके की निश्चिंतता मिलती है। आत्मनिर्भर, शिक्षादीप्त, आधुनिक ललिता की नियति को मध्यकालीन कायनात जैसा क्यों होना चाहिए? मातृत्व के उद्दाम भाव, क्षमा भाव के स्थान पर वह आधुनिक उपादानों का सहारा क्यों नहीं लेती?
पितृसत्ता का शिकंजा आधुनिक ज़माने में रूप बदलकर और त्रासकारी हो गया है। परंपराप्रदत्त उत्सव, कला, साहित्य, संगीत आदि में स्त्रीविरोध समाहित है। इसीलिए सूफ़ी गाने इतना भाते हैं क्योंकि उनमें स्त्री का बेचारा रूप नहीं मिलता। सचेत स्त्री उत्सवधर्मिता के स्पेस और कहां खोजे जायें जब नये स्वस्थ स्पेस नहीं बने हैं। सेनानी की तरह निरंतर संघर्ष करते-करते स्त्री थक जाती है। मनचाहा सहचर विरले ही स्त्रियों को प्राप्त होता है। अधिकांश सजग स्त्रियां एकाकी हैं। ‘आधुनिक स्त्री की कशमकश यही है कि उसे एकांगी पुरुष ही हर तरफ़ बिखरे हुए मिलते हैं- कोई सिर्फ़ जिह्वा, कोई सिर्फ़ लिबलिबी...कोई सिर्फ़ दिल ही दिल, कोई दिमाग़ ही दिमाग़’ (आईनासाज़, पृष्ठ 164)। ऐसे में जिजीविषा बनाये रखना, स्व-प्रेम बनाये रखना भी उसके लिए चुनौती बन जाता है। सपना के रेप के बाद, ललितासहस्रनाम, के स्तोत्र सुना कर उसके मन से शरीर के प्रति घृणा भाव मिटाने की कोशिश की जाती है। आध्यात्मिक ताक़त के सहारे बड़ी से बड़ी दुर्घटना के बाद ज़िंदगी को जीने योग्य समझने की प्रेरणा दी जाती है। रचना में सुझाये गये रास्ते व्यापक मानव मुक्ति तक भले न ले जाते हों पर चंद लोगों की ज़िंदगी जीने लायक़ तो बनाते हैं। आधुनिक सरणियों से रास्ते मिलने लगें तो स्त्री को कभी परंपरा, कभी उत्तरआधुनिक कलाओं के ज़रिये मौलिक रास्तों का संधान निरंतर करते रहने से निजात मिले। पेंटिंग के नमूनों के ज़रिये यह उपक्रम किया जाता है कि बलात्कार से क्षत-विक्षत शरीर के स्वस्थ होने के साथ-साथ सरोज का मन भी स्वस्थ हो जाये। अपने तन-मन के प्रति उसका स्वीकार भाव लौट आये। इसके लिए स्त्री-अंगों को लेकर की गयी ख़ूबसूरत कल्पनाओं से सिरजी हुई पेंटिंग्स उसे दिखायी जाती हैं।
जिजीविषा अगर समाज से नहीं मिलेगी तो उसके उत्खनन के लिए स्त्री कभी अपने भीतर डुबकी लगायेगी, कभी इतिहास और परंपरा में। इसे नयी उर्जा से ख़ुद को लैस करने के विराम स्थल की ही तरह महत्व दिया जा सकता है। लेखनी खजूर की मिठास में डुबा कर उल्लास और उछाह के साथ मनमोहक भीनी भीनी महक भरा गद्य अनामिका सूफ़ियाना भावबोध के सहारे ही लिख पायीं। इससे रूह को राहत मिली होगी। इस स्फूर्ति ने प्रतिरोध के आधुनिक उपकरणों से उन्हें दोबारा लैस कर दिया होगा। ख़ुसरो की ज़हीन, साहसी बेटी कायनात की कहानी ललिता के पिता ने भी अधूरी छोड़ी और ललिता ने भी। शायद ऐसा सचेत रूप से किया गया कि सभी जन मिल कर सोचें कि हम उसकी ज़िंदगी की क्या परिणति चाहते हैं। यह कहानी अधूरी छोड़ने का यह भी अर्थ है कि अनामिका अभी रास्ते तलाश रही हैं। आधुनिक ज्ञान-सरणियों की सीमाओं का तो भरपूर संज्ञान उन्होंने उपन्यास में लिया है मगर समाधान को लेकर अभी वे निश्चित नहीं हैं। सभी तरीक़ों को खंगाल कर देख रही हैं। स्त्री चेतना के अगले चरण की चमक से दीप्त लेखिका की आगामी कृतियों में शायद यह कहानी हम पूरी होते हुए देख सकेंगे। पाठकों को यात्रा की ओर उन्मुख करना अगर उनका उद्देश्य था तो भी वे पूरी तरह सफल हुई हैं। उपन्यास पूरा होने के बाद भी कायनात चेतना में कौंधती रहती है। पूछती है हमसे वह- बच्चियों को कैसे समाज में कैसी ज़िंदगी जीते देखना चाहते हैं और इसके रास्ते कहां से मिलेंगे?
मो0 8383029438
आईनासाज़ (उपन्यास)
ले0 : अनामिका
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा0 लि0 नयी दिल्ली
पहला संस्करण : 2020
मूल्य :  रु. 250
पृष्ठ : 248


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