जन्मशती स्मरण : फणीश्वर नाथ रेणु


जन्मशती स्मरण : फणीश्वर नाथ रेणु

आंचलिकता और मैला आंचल
(आंचलिकता साहित्यिक जुगत/डिवाइस नहीं, वास्तविकता है)
नित्यानंद तिवारी

मैला आंचल के नीचे कोष्ठक में लिखा है, ‘एक आंचलिक उपन्यास’। ठीक जैसे सामाजिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक का प्रयोग उपन्यास की विषय-वस्तु का संकेत करने के लिए होता है। ‘आंचलिक’ शब्द का प्रयोग पहली बार `रेणु' ने मैला आंचल के लिए किया। धर्मवीर भारती जैसे रचनाकार ने एक चुटकला गढ़कर एक कल्पित विद्यार्थी से उपन्यास के प्रकारों में कहा, ‘दो प्रकार भूल गये तुम। आंचलिक और धारावाहिक।’ (श्रेष्ठ आंचलिक कहानियां के संपादकीय में राजेंद्र अवस्थी ने उद्धृत किया है)
उपन्यास की पर्याप्त प्रशंसा करते हुए भी रामविलास शर्मा ने उसे प्रकृतवादी कहा था। नेमिचंद्र जैन ने उसे नूतन शिल्प प्रयोग माना और ताज़गी के बावजूद उसमें प्रौढ़ता का अभाव पाया। यह भी कहा गया कि उसमें भाषा की ‘भंगिमाओं' और `टोन' से, यथार्थवस्तु को कमज़ोर करके, चमत्कृत करने का काम लिया गया।
ये सारी आलोचनात्मक टिप्पणियां साहित्य के हलक़े और अनुशासन से उभरी हुई हैं। लेकिन ज़्यादातर ऐसा होता है कि जब कोई युगांतरकारी रचना प्रस्तुत होती है तो वह साहित्यिक कारणों से नहीं, समाज और जीवन में ऐतिहासिक प्रक्रिया में नयी उभरी वास्तविकताओं के कारण होती है। जब उस वास्तविकता को कोई द्रष्टा रचनाकार पहचानकर सृजनशील होता है तो साहित्य की अंतर्वस्तु और उसके रूपबंध में भी नवीनता प्रस्तुत हो जाती है। ऐसी स्थिति में वह रचनाकार और उसकी रचना विरोध का शिकार होती है। इसके सबसे बड़े उदाहरण प्रेमचंद हैं। नंद दुलारे वाजपेयी, नगेंद्र, जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय भी उनके कटु आलोचक रहे। अज्ञेय ने तो अपने एक लेख, `संघर्ष का रचनात्मक उपयोग' में तर्क दिया था कि दो महायुद्धों के बीच के रचनाकार तो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों में ही फंसे रहे और जीवन की समग्र अवस्थिति के बोध से वंचित रहे। केवल रवींद्रनाथ टैगोर, जैनेंद्र और अज्ञेय समग्र जीवन अवस्थिति के बोध के कारण संघर्ष का रचनात्मक उपयोग कर सके। यानी एक ओर जीवन की समग्र अवस्थिति का बोध और दूसरी ओर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थितियों में जनता द्वारा किया जाने वाला संघर्ष--यह दो तरह की `समझ' उस समय काम कर रही थी। पहली `समझ' ऐतिहासिक प्रक्रिया में जीवन के तथ्यों के विकास के साथ साहित्य की अंतर्वस्तु और `रूपबंध' को उभरते हुए देखती थी। उसकी सृजनशीलता की प्रकृति और पद्धति इसी प्रक्रिया में चरितार्थ होती थी।
दूसरी `समझ' आत्मवादी अथवा व्यक्तिवादी दर्शन में सृजनशीलता का उभार पाती थी। अज्ञेय ने लिखा था, `कविता कविता में से निकलती है।' इसके और निहितार्थ चाहे जो हों लेकिन इतना तो साफ़ है कि कविता के फ़ार्म से कविता और कथा-नाटक के फ़ार्म से कथा और नाटक सृजित होते हैं। इस `समझ' में संघर्ष की प्रकृति और पद्धति और कुछ हो या न हो, सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थितियों के प्रति उदासीन या सृजनशीलता के संबंध में गौण होती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि `समझ' के ये दोनों रूप किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं।
प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ `रेणु' को भी `समझ' के इस भेद का हमला, अपेक्षाकृत कम परिमाण में ही सही, झेलना पड़ा। हमले का एक महत्वपूर्ण मुद्दा `आंचलिकता' है। इस लेख के आरंभ में उसका उल्लेख किया जा चुका है। इस संदर्भ में शीर्षक का हिस्सा बनकर मैंने लिखा है, `आंचलिकता साहित्यिक `जुगत'/डिवाइस नहीं, वास्तविकता है।' नयी वास्तविकता की पहचान है।
मैं बहुत संक्षेप में `पहचान' को एक `पारिभाषिक' और `अवधारणापरक' पद के रूप में प्रस्तुत करना चाहता हूं। हिंदी-साहित्य के इतिहास से ही उदाहरण दे रहा हूं। भक्त कवियों ने सत्य को पहचाना था। मैं सत्य के स्वरूप पर नहीं, उसकी `पहचान' की क्रिया पर बल दे रहा हूं। यानी पहचाने बिना सत्यार्थ की प्रतीति भ्रामक हो सकती है। यह `पहचान' जीवन में भाव से कुछ अधिक को धारण करती है। या उस पहचान के आधार पर भाव को पुनर्परिभाषित करती है। छायावाद में भी जिज्ञासा के द्वारा पहचानने की ही पीड़ा है। इन दोनों कालों के साहित्य में मुख्य समस्या `स्वाधीनता' की ही है; चाहे वह आध्यात्मिक हो या सामाजिक-राजनीतिक। एक ख़ास तथ्य यह भी कि दोनों साहित्य आंदोलन से जुड़े हुए हैं। पहचान के कारण नये जीवन-तथ्य को समझने में आलोचनात्मक विवेक की भूमिका भी प्रस्तुत हो जाती है। यानी `भाव' पर लिखा गया साहित्य जीवन को अपर्याप्त रूप से ग्रहण कर पाता है।
गांव सामान्यतया प्रथानुगामी होता है, वह जातिवादी भी होता है। प्रेमचंद ने जिस गांव को पहचाना उसका प्रतिनिधि मनुष्य होरी है। वह प्रथानुगामी होने के साथ ऐसा जातिवादी है जो जाति बाहर (बिरादरी बाहर) कर देने से अपनी सारी सार्थकता खो देता है। जब पंचायत उसे जाति में मिलाने के लिए दंड लगाती है, वह खलिहान से अनाज ढो-ढोकर पंचायत में देता जाता है और बावजूद धनिया के विरोध के वह कुछ नहीं सोचता। मैंने अब तक जाति में मिलने के लिए अपना सर्वस्व गंवाकर, अपना भविष्य गंवाकर, पूरे शरीर की नस-नस में प्रसन्नता और सार्थकता की अनुभूति करने वाला कोई `आदमी' साहित्य में नहीं देखा था।
इसके अलावा होरी की ज़िंदगी से जुड़ी `घटनाओं' के भीतर न जाने कितने नाटकीय तनावों के जाल बने हुए हैं--उन तनावों के जाल में कथानक का उभार देखना, लगता है, प्रेमचंद ने पहली बार पहचाना। गांव का `प्रथानुगामी जाति मनुष्य' और `घटना' - जो कहानी में सिलसिला भर नहीं हैं, कथानक बनाते हैं। क्योंकि ये सिर्फ़ क्रम नहीं हैं, उनके भीतर अंतर्गतिशीलता है| यह अंतर्गतिशीलता ही कथानक है|
इसी प्रसंग में मैंने लिखा है कि प्रेमचंद ने आधुनिक अर्थ में कथानक की पहचान की थी। आधुनिक युग की सभी युगांतरकारी रचनाओं ने किसी न किसी प्रकार की वास्तविकताओं को ख़ास तरह से पहचाना है।
`रेणु' ने `अंचल' और `अंचल मनुष्य' की पहचान की है। उनका मनुष्य गांव का तो है लेकिन वह ख़ाली गांव से अधिक है। अंचल, गांवों के समुच्चय रूप में एक ऐसी जगह है जो एक ज़बान है, एक जगह है और एक संस्कृति है। ज़बान, संस्कृति, टोन और लय से मूर्त `स्थान' `रेणु' ने पहचाना।  इसीलिए उन्होंने मैला आंचल की भूमिका में लिखा था, `कथानक है पूर्णिया'। `स्थान' को कथानक की धारणा के रूप में पहचानना कथानक की क्रांतिकारी पहचान है।
एक और बात का उल्लेख करना मुझे उचित लगता है कि ये दोनों रचनाकार भी आंदोलन से जुड़े हुए हैं। एक झीने बोध के स्तर पर भक्तिसाहित्य और छायावादी साहित्य के क्रम में इन चारों में किसी न किसी स्तर पर ऐतिहासिक धारा में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों में साहित्य फंसा नहीं रहा, बल्कि उसने उसकी भूमिका को स्वीकार किया।
(2)
मैला आंचल स्वाधीनता संग्राम की स्मृतियों से भरा हुआ है। उसके लेखक `रेणु' सक्रिय रूप से राजनीति से जुड़े थे। राजनीति के प्रति उनके मन में गहरा मानवीय विश्वास था, लेकिन पार्टी राजनीति की विकृतियों से वे बुरी तरह आहत थे। कालीचरन के अंतिम दिनों की यातना में उनकी अपनी ही यातना थी। ख़ैर, सन् 1947 में स्वाधीनता मिल जाने के बाद आधुनिक अर्थ में धारणा रूप `नेशन' को पाया जा चुका था। अब उस `नेशन' को मात्र धारणा से ठोस वास्तविकता में बदलना था। नेहरू की अगुवाई में सरकार बन चुकी थी। नेहरू सिर्फ़ राजनीतिक नेता ही नहीं थे, वे बड़े राजनीतिक चिंतक (दार्शनिक) भी थे। उन्होंने अपनी योग्य राजनीतिक टीम के साथ राष्ट्र-निर्माण के लिए विकास की योजनाओं को बनाना शुरू किया। उस समय जो हिंदुस्तान का नक्शा उभरा, उसके कई पहलू थे। सबसे पहले दिखायी पड़ा कि ज़मीन (खेती) आमदनी का सबसे बड़ा ज़रिया है और जो लोग ज़मीन जोतते हैं, ज़मीन उनकी नहीं है। समाज पिछड़े-आदिवासी, अस्पृश्य और ग़रीब तथा अगड़े और अपेक्षाकृत अधिक अधिकार और संपत्तिवान लोगों वाली विषम स्थितियों में बंटा हुआ है। इसके अलावा देश के काफ़ी इलाक़े विकास की प्रक्रिया से एकदम से छूटे हुए हैं।
`ज़मीन उसकी जो ज़मीन को जोते।' यह वाक्य किसानों के लिए प्रकाश से भरा हुआ था। पहला निर्णय कि ज़मींदारी प्रथा का अंत हो।
समाज के दलित और पिछड़े तबक़ों के लिए विकास के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो।
वे इलाक़े जो पिछड़ेपन के कारण अलग-थलग टापू बन गये हैं, उनमें भारी उद्योग लगाये जायें।
यही तीन तथ्य अंचल बनाते हैं। उनकी विशेषताएं हैं--वे एक `जगह' हैं। वे एक `ज़बान' हैं। एक संस्कृति हैं।
प्रतिभाशाली इतिहासकार प्रो. आदित्य निगम ने इस धारणा को बड़ी स्पष्टता से प्रस्तावित किया है। प्रो. निगम ने अपने पूरबिया नौकर माताबदल का एक कथन उद्धृत किया है : `बाबूजी अबके बार हम `देस' जाइब। पार साल नहीं गये रहे ना! अच्छा नाहीं लागत है परदेस मा।' इसके बाद उनकी टिप्पणी है : `इन दो शब्दों के पीछे छिपी हैं दो अलग दुनियाएं।...एक दुनिया उस रोज़ाना जिये जाने वाले आम इंसान की है और दूसरी इलीट की जो हिंदुस्तान को पश्चिमी राष्ट्रों की तर्ज़ पर एक मज़बूत केंद्रीकृत राष्ट्र-राज्य बनाना चाहता है। इन दोनों का तसव्वुर एक दूसरे से बिलकुल जुदा है। `देस' एक जगह है--अपनी जगह। एक देसी जगह जहां माताबदल पलता है, बड़ा होता है और जिसका हवा-पानी उसके रोम-रोम में बस गया होता है। `देस' एक ज़बान भी है--एक संस्कृति जिसे माताबदल जीता है। `देस' को इतिहास की ज़रूरत नहीं होती। वह मिथकों में जी लेता है, अलग-अलग फ़िरकों के अपने अलग-अलग मिथक। उसे इन तमाम फ़िरकों को एक समरस इकाई में ढालने की ज़रूरत भी कभी पेश नहीं आती। लिहाज़ा मिथकों में जीकर भी वह `देश' की उस ज़रूरत से आज़ाद होता है जो इन मिथकों को ऐतिहासिकता प्रदान कर एक राष्ट्रीय इतिहास गढ़ने की ओर ठेलती है।'('पश्चिमी आधुनिकता का एक मनहूस तोहफा', बहुवचन, जुलाई-सितंबर 2001, पृ. 284-85)
`देस' और `देश' की यह एक भिन्न पहचान है जो `ऐतिहासिक वैदुष्य' का अलग विमर्श प्रस्तावित कर सकता है। इस समय मैं उस पर नहीं जाऊंगा। `देस' एक `जगह' के साथ-साथ एक `ज़बान' और एक संस्कृति भी है जिससे आंचलिकता के रग-रेशे बनते हैं। इस रग-रेशे के बारे में नागार्जुन ने लिखा है। पहले वे `रेणु' के बारे में लिखते हैं और फिर उनकी रचनाओं के बारे में-
`रेणु' को मैथिली और भोजपुरी के पचासों लोकगीत याद थे। सारंगा, सदाबृज, लोरिक आदि लंबी-लंबी लोकगाथाएं गाते हुए `रेणु' को जिन्होंने एक बार भी सुना है, वे उन्हें कभी नहीं भूल सकेंगे। लोकगीत, लोककला आदि जितने भी तत्त्व लोक-जीवन को समग्रता प्रदान करते हैं, उन सभी का समन्वित प्रतीक थे फणीश्वर नाथ `रेणु'।'
नागार्जुन आगे लिखते हैं-
`ढेर के ढेर प्राणवंत शब्द-चित्र हमें गुदगुदाते भी हैं और ग्रामीण जीवन की विसंगतियों की तरफ़ भी हमारा ध्यान खींचते चलते हैं। छोटी-छोटी ख़ुशयां तुनकमिज़ाजी के छोटे-छोटे क्षण, राग-द्वेष के उलझे हुए धागों की छोटी-बड़ी गुत्थियां, रूप-रस-गंध-स्पर्श और नाद के छिटपुट चमत्कार...और जाने क्या-क्या व्यंजनाएं छलकी पड़ती हैं `रेणु' की कथाकृतियों में।' (नागार्जुन रचनावली, खंड 6, पृ. 281)
`एक जगह', `भाषा', `संस्कृति', `भंगिमाएं' और `लोक जीवन' के बिना आंचलिकता परिभाषित नहीं हो सकती। `रेणु' के गांव, अंचल इसके बिना नहीं पहचाने जाते। प्रेमचंद के `गांव' के लिए वे लक्षण अनिवार्य नहीं हैं। प्रेमचंद के गांव `औराही हिंगना' जितने पिछड़े और आदिवासी भी नहीं हैं। प्रेमचंद के बारे में आम तौर पर यह भी नहीं लिखा जाता कि वे `लोक जीवन' के कथाकार हैं। प्रेमचंद के गांव और लोग प्रथानुगामी हैं, लेकिन लोक संस्कृति उनके रोम-रोम में इतने गहरी नहीं पैठी है। भाषा की व्यंजनाएं और टोन भी स्थानीयता और मिट्टी की गंध लिये प्रेमचंद में उतनी ज़्यादा नहीं है। प्रेमचंद के गांवों और लोगों में अपेक्षाकृत सादगी अधिक है। जैसे होरी में। `रेणु' के चित्रण में पिछड़ेपन की सादगी के भीतर से `कनक्सन' उभरते हैं। प्रेमचंद में `कनक्सन' नहीं है।
स्व. राजेंद्र अवस्थी ने एक किताब संपादित की थी--श्रेष्ठ आंचलिक कहानियां। उसमें `रेणु' के एक साक्षात्कार का जिक्र है। `रेणु' से प्रश्न किया गया था लोकगीत और लोककथा के बारे में। `रेणु' ने अपने जवाब में कहा था कि बिना लोकगीत और लोककथा के कोई लिखकर दिखा दे तो मान लूंगा। यानी आंचलिकता में सांस्कृतिक तत्वों (जिसका ज़िक्र नागार्जुन ने किया है) की उपस्थिति अनिवार्य है। आंचलिकता बाहर से प्रकाशित होते हुए भी वह बाहरी तत्व नहीं है। जैसे शरीर का रंग रक्त पर निर्भर करता है और रक्त शरीर का आंतरिक तत्व है। प्रेमचंद की रचनाओं में जो गांव है, उसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि `लय' की तरह लोक संस्कृति उनमें व्याप्त है।
`रेणु' में यह व्याप्ति है और वही आंचलिकता है। प्रेमचंद `जगह' या `अंचल' को सृजनशील धारणा के रूप में धारण नहीं करते। `रेणु' ऐसा करते हैं, तभी तो उन्होंने मैला आंचल की बहुत छोटी-सी भूमिका में एक बहुत छोटा वाक्य लिखा था--`कथानक है पूर्णिया'।
कथानुभव और कथा विन्यास के इतिहास में यह क्रांतिकारी धारणा है, इस पर बात आगे करूंगा।
लेकिन इधर हाल में एक बहुत बड़ी घटना हिंदुस्तान के सामाजिक और आर्थिक इतिहास में घटित हुई है। लॉकडाउन के कारण मज़दूरों का अपने `देस' (माताबदल वाले अर्थ में) की ओर पलायन। `रेणु' की आंख से देखें तो यह घटना हिंदुस्तान की आर्थिक, औद्योगिक गतिविधि का कथानक है। दो चीज़ें और पहचान में आती हैं--(1) अज़हद ग़रीबी और (2) अद्भुत साहस। इसके पहले सोचना भी कठिन था कि बच्चों, गर्भवती स्त्रियों और मोटरी गठरी के साथ 1500-2000 किलोमीटर पैदल जाते मज़दूरों के समूह (ऐसी स्थिति में जब सड़क पर पैदल चलते मज़दूरों पर शासन के प्रहरी पुलिस वाले डंडे मारते हों, खाना नहीं, पानी नहीं, पैर घाव से भर गये हों और वे अपने `देस' मर-खपकर पहुंच जाते रहे। उन मज़दूरों में से जब कुछ के साक्षात्कार लिये गये तो पता चला उनमें सभी जातियों के लोग हैं।
क्या कहा जा सकता है कि मज़दूर, भारतीय समाज और आर्थिक गतिविधियों का कथानक है?
ग़रीबी सहनशीलता का नया कथानक, एकदम मैला आंचल वाला।  इसे क्या स्वातंत्र्योत्तर भारत का मैला आंचल की समानांतरता वाला कथानक नहीं कहा जा सकता?
आंचल का मतलब वहां के लोगों का अद्भुत साहस और अज़हद ग़रीबी। इस अंचल में मुख्य रूप से पूर्वी यू.पी., बिहार और झारखंड हैं। यह `जगह' तब से, मैला आंचल के ज़माने से आज तक ठीक से पहचानी नहीं जा सकी। विकास की योजना ही रह गयी, ठीक से क्रियान्वित नहीं हुई।
सन् 2020 में विशेष आकस्मिक परिस्थितियोंवश मज़दूरों का महत्व, उनकी अनिवार्यता और उनकी शक्ति पहचानी गयी|
यहां थोड़ा रुककर आप मैला आंचल में चित्रित अंचल की ज़िंदगी को देखिए-
`कफ से जकड़े हुए दोनों फेफड़े, ओढ़ने को वस्त्र नहीं, सोने को चटाई नहीं, पुआल भी नहीं! भीगी हुई धरती पर लेटा निमोनिया का रोगी मरता नहीं, जी जाता है। ...कैसे?' (मैला आंचल, पांचवां संस्करण, 1967,
 पृ. 216)
`डॉ. प्रशांत गये थे मलेरिया पर रिसर्च करने, लेकिन वे वैज्ञानिक ही नहीं, आदमी भी थे। उन्हें वहां तरह-तरह की चीज़, दृश्य और स्थितियां दिखायी पड़ने लगती हैं।`
`डॉक्टर पर यहां की मिट्टी का मोह सवार हो गया है। उसे लगता है मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है।`
`आम के पेड़ों को देखने से पहले उसकी आंखें इंसान के उन टिकोलों पर पड़ती हैं जिन्हें आमों की गुठलियों के सूखे गूदों की रोटी पर ज़िंदा रहना है...और ऐसे इंसान? भूखे अतृप्त इंसानों की आत्मा कभी भ्रष्ट नहीं हो या कभी विद्रोह नहीं करे, ऐसी आशा करना ही बेवकूफ़ी है। डॉक्टर यहां की ग़रीबी और बेबसी को देखकर आश्चर्यित होता है।`
`...वहां विटामिनों की क़िस्में, उनके अलग-अलग गुण और आवश्यकता पर लंबी-चौड़ी फ़ेहरिस्त बनाकर बंटवाने वालों की बुद्धि पर तरस खाने से क्या फ़ायदा? मच्छरों की तस्वीर, इससे बचने के उपायों को पोस्टरों पर चित्रित करके अथवा मैजिक लालटेन से तस्वीरें दिखाकर मलेरिया की विभीषिका को रोकने वाले किस देश के लोग थे?'
`बेज़मीन आदमी, आदमी नहीं जानवर है।' 
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  `डॉक्टर का रिसर्च पूरा हो गया; एकदम कम्पलीट। वह बड़ा डॉक्टर बन गया। डॉक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है...?
`ग़रीबी और जहालत इस रोग के दो कीटाणु हैं।'
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`दरार पड़ी दीवार ! यह गिरेगी! इसे गिरने दो। यह समाज कब तक टिका रह सकेगा?' (मैला आंचल, पांचवां संस्करण, 1967,  पृ. 217-18)
ग़रीबी और तरह-तरह के जहालत के ढेरों दृश्य इस उपन्यास में भरे पड़े हैं। इसीलिए ऐसे अंचल विशेष रूप से पहचाने गये ताकि उन्हें राष्ट्रीय विकास की धारा से जोड़ा जा सके|
उस वास्तविकता के कई स्तर और पहलू हैं। धर्म की दादागिरी, नैतिकता की दुहाई देकर अन्याय का साथ देने वाली निष्क्रिय राजनीति, और तरह-तरह के अंधविश्वासों में जकड़ा समाज, और इन सबको तोड़ने वाले पावर सेंटर्स इस उपन्यास में लगे हुए हैं।
प्रो. आदित्य निगम ने `देस' और `देश' का फ़र्क़ बताते हुए `देस' यानी `अंचल' की जो धारणा प्रस्तावित की है, अगर उसी माताबदल वाले अर्थ में `अंचल' सीमित हो तो वह सिर्फ़ एक विश्वसनीय दृश्य है; और तब `रेणु' पर प्रकृत होने का आरोप सच हो जायेगा।
लेकिन अगर `विकास' की योजना के तहत पिछड़े इलाक़ों, समाजों, जातियों, ज़मीन और बेज़मीन लोगों की स्थिति को पहचानकर उनमें आधुनिक परिवर्तन करने की विशिष्ट `पहचान' हो तो `आंचलिकता' स्थितिशील नहीं, सृजनशील धारणा हो जायेगी।
`रेणु' की प्रतिभा उन बिंदुओं को पहचानने में है जहां से संप्रदायवाद विरोध, सेक्युलरिज्म़ की पक्षधरता, सामाजिक अन्याय और ग़ैरबराबरी के प्रति विरोध भाव उभर सकता है। इसके लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर `रेणु' ने राजनीति का इस्तेमाल किया है।
इस तरह पूरी आंचलिकता कई केंद्रों पर संघर्ष करते हुए सृजनशील होकर फूट पड़ती है। उसमें क्रमिक विकास के ढांचे में कथा कहने का यानी आवयविक रूप में कथा-विकास का विशेष प्रयत्न नहीं है। वह ऊपर लिखे गये सृजनशील केंद्रों का समुच्चय है।
कुछ उदाहरणों से मैं इसे स्पष्ट करना चाहता हूं-
(1) उपन्यास का आरंभ होता है, सदियों से सोये हुए गांव (औराही हिंगना) में म्युनिसिपल बोर्ड के एक अस्पताल के बनने से। अस्पताल बहुत बड़ा हस्तक्षेप है। इस कारण गांव की जातिगत, धार्मिक और प्रथानुगामी प्रवृत्तियां उभर आती हैं, जैसे बीमारी को ऑपरेट करके उभारने की कोशिश की गयी हो। जड़ता टूटती है और इलाक़ा हरकत में आ जाता है।
अस्पताल के बनने में एक विशेष प्रसंग उपस्थित होता है। तय होता है कि श्रमदान करके अस्पताल का निर्माण किया जाये। मज़दूर कहते हैं कि `हम तो रोज़-रोज़ मजूरी करके खाते हैं। हम लोग तो बेज़मीन हैं।' मज़दूरों ने यह प्रस्ताव रखा कि `हम लोग आधा दिन बिना मजूरी के श्रमदान कर लें और आधे दिन की मज़दूरी बाबू लोग दे दें तो हम लोगों की रोटी-पानी भी चलती रहे और अस्पताल का भवन भी बन जाये।'
यह समस्या वास्तविक थी। मज़दूरों की रोटी-पानी, अस्पताल का भवन, बाबू लोग और इन सबके बीच `संबंध' गतिशील हो जाता है। लेकिन लबरा सुमिरनदास तहसीलदार से कनबतिया करके इसमें बाबू लोगों की दो जातियों--क्षत्रिय और कायस्थ का `कनक्सन' बता देता है। `संबंध' की जगह निहितार्थी कनक्सन पैदा हो जाता है। इसे ही कहा जाता है, `नैरेटिव'। वह नैरेटिव, वास्तविकता को अपदस्थ कर देता है और झंझट वाला नक़ली संघर्ष पैदा कर देता है। आंतरिक गतिशीलता अवरुद्ध हो जाती है।
(2) दूसरा उदाहरण है धार्मिक मठ का--महंत सेवादास की मृत्यु के बाद महंत कौन बने? सेवादस महंत का चेला था रामदास। इधर कुछ दिनों से लरसिंघ दास मठ पर रहने लगा था। वह लछमी सहित पूरे `मठ' को हथियाना चाहता था।
महंथी तो रामदास को मिलनी चाहिए थी। इस सिलसिले में सारे तथ्य रामदास के पक्ष में थे। लेकिन लरसिंघ दास ने `सभी मठों के ज़मींदार अचारज गुरु' से अपना `कनक्सन' बिठा लिया था।
गांव के सभी लोग जानते हैं कि किसे महंथी मिलनी चाहिए, लेकिन बालदेव जी, जो कांग्रेसी हैं, लछमी से कहते हैं कि `कौठारिन जी, अचारज गुरु तो सभी मठ के नेता हैं। वे जो करेंगे वही होगा। ...किसी के धरम में नाक घुसाना अच्छा नहीं है। तीसरे पहर टीका होगा। हम आवेंगे।' `...तहसीलदार साहब घर में नहीं हैं।...सिंह जी (जो काली टोपी वाले हैं) सुनकर गुम हो गये। खेलावन यादव ने बालदेव जी पर बात फेंक दी।'
इधर अचारज गुरु का नागा साधू-गुंडा लछमी और पूरे मठ को हिंसक ही नहीं, अपने गाली-गलौज से अश्लील जगह बना चुका था।
लेकिन लरसिंघ दास ने अचारज गुरु से `कनक्सन' बिठा लिया था। उसने अपनी महंथी का नैरेटिव तैयार कर लिया था। इधर अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने वाली कांग्रेसी राजनीति ओढ़ी हुई नैतिकता का सहारा लेकर तटस्थ हो चुकी थी। सिंह जी तो ख़ैर काली टोपी वाले थे, वे तो इस `धरम के मामले' में गुम ही हो गये थे। `लछमी, ...सतगुरु हो! कोई उपाय नहीं।'
लछमी निरुपाय है।
तभी कालीचरन आता है। लछमी कहती है, `कौन, कालीचरन बबुआ।' और वह रो-रोकर सब सुनाती है।
तीसरे पहर बैठक के बाद सभी लोग काग़ज़ पर दस्तख़त करते हैं। इसी बीच कालीचरन कहता है, `अचारज गुरु, आप गांव के लोगों को उल्लू समझते हैं।' बालदेव समेत सभी बड़े लोग कालीचरन को डांटते हैं। नागा साधु कालीचरन को गाली देता है।
कालीचरन नागा साधु जी को कहता है, `चुप रह बदमास!'
`पकड़ो सैतान को, भागने न पावे, मारो, नागा बाबा की गुंडई मार खाकर हवा हो गयी। गांव के कुत्तों ने उन्हें खदेड़ लिया।'
लरसिंघ दास दास का नैरेटिव टूट गया, वह वास्तविक में बदल गया। कभी-कभी हिंसा भी सृजनशील हो उठती है।
(अक्सर मुझे ऐसे अवसर पर नीतीश बाबू की याद आती है। उन्होंने कितनी बेशर्मी से कहा था कि मोदी के अलावा आज किसने नैरेटिव बनाया है और वे मोदी जी की गोदी में बैठ गये। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की कमाई, वास्तविक राजनेता की छवि, सत्ता लालच में मोदी के मातहत गिरवी रख दी।)
उपन्यास में ऐसे बहुत स्थल हैं जो `कनक्सन' से बने हैं (संबंध से नहीं)। उन्हें `रेणु' की कहानी ने तोड़ने का काम किया है।
प्रेमचंद की कथा `संबंध' से बनी थी। इसलिए उनकी घटनाओं के सिलसिले में अंतःगतिशीलता थी। `रेणु' की कहानी में `कनक्सन' है, अंतःगतिशीलता लुप्त है। उन्होंने उसे तोड़ा और इसलिए जिस `जगह' पर कहानी हो रही है, उस `जगह' को ही `कथानक' बना दिया। हम `रेणु' के साक्ष्य पर कह सकते हैं कि `नैरेटिव' चतुराई से बनाये जाते हैं, वास्तविकता को थोपकर सत्ता के पक्ष में।
प्रेमचंद के लिए ज़रूरी था कि घटना को पहचानें। घटना में कई भीतरी पहलू अंतःसंबंधित होते हैं और वही कथानक बनाते है। `रेणु' के लिए ज़रूरी था कि कहानी को पाने के लिए ज़रूरी होगा यह जानना कि कैसे नैरेटिव बनाकर वास्तविकताएं थोपी जा रही हैं, उनके लिए मोर्चा की रणनीति बनाकर उन्हें तोड़ा जाये।
यानी `जगह' को जैसे हेलीकॉप्टर से देखा जाये तो उसमें ऐसे बहुत पावर सेंटर दिखें।
इन्हीं बिंदुओं से मैला आंचल की `ज़मीन' कंपोज़ीशन का फ़ार्म ग्रहण कर लेती है। मैला आंचल वह कंपोज़ीशन जैसा फ़ार्म है।
एक उदाहरण और देना चाहूंगा। कालीचरन (ओ.बी.सी.) और मंगला (शिड्यूल कास्ट) एक साथ राजनीति करते हैं। और प्रेम करते हैं। प्रवाद फैलाया जाता है लेकिन जब कालीचरन को इस प्रवाद के बारे में बताया जाता है कि वह जाति विरुद्ध काम कर रहा है, तब कालीचरन कहता है--`जाति! जाति अब गांव में है कहां? देखते नहीं खेलावन यादव यादवों की ही ज़मीन हड़प रहा है। अब तो सिर्फ़ दो जातियां हैं, अमीर और ग़रीब।'
मैला आंचल में जातिवाद इतने चरम पर है कि उपन्यास में कहा गया है, `अब तो सभी एमेले लोगों को चाहिए कि अपनी-अपनी टोपी पर अपनी जाति लिखा दें।'
यानी जातिवाद और सत्ता का गठजोड़ इतना कड़ा हो चुका है कि उसके बिना सत्ता पायी नहीं जा सकती।
जातिवाद और सत्ता राजनीति का नया गठजोड़ और इसका नैरेटिव चरम पर। सत्ता, जनता और राजनीति के बीच संबंध है। और जाति तथा राजनीति के बीच कनक्सन है। इस पर भी प्रहार करते हुए कालीचरन जब कहता है कि अब तो दो ही जातें--अमीर ग़रीब हैं, तब वह जाति और सत्ता को लेकर जो नैरेटिव बना है, उसी के कनक्सन को तोड़ता है।
कालीचरण, `अंचल' से उभरा ऐसा राजनीतिक कार्यकर्ता है जो अपने, जनता और राजनीति के बीच वास्तविक संबंध कभी नहीं भूलता। उसकी अज़हद यातना का जो वर्णन `रेणु' ने किया है, वह मर्मांतक है। समाज और राजनीति, दोनों के लिए अंचल से उभरा सच स्वाधीनता के बाद का सबसे बड़ा सृजनशील साक्ष्य है।
अंत में मैं अपने ही एक बहुत पुराने लेख (लगभग 40 साल पहले) को उद्धृत करने का लोभ छोड़ नहीं पा रहा हूं:
`स्वाधीनता आंदोलन और मैला आंचल की आंचलिकता--दोनों में वंशानुगत जैसी पहचान के आंतरिक लक्षण हैं। दोनों में बराबरी के लिए किये जाने वाले संघर्ष के बिना मानव और क्रांतिकारी हुए बिना उदार होना असंभव है। यहां रंगभूमि के प्रभुसेवक और सोफ़िया-विनय का स्मरण किया जा सकता है। इंग्लैंड में बैठे प्रभुसेवक जी स्वाधीनता आंदोलन को विश्व मानवतावाद के विरुद्ध एक संकीर्ण और मानव-विरोधी कार्य मानते हैं। सोफ़िया और विनय उनके अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व में विश्वासघात की झलक पा लेते हैं और निर्ममतापूर्वक उसे अस्वीकार कर देते हैं। उसी तरह अनेक आधुनिक लेखक और आलोचक ऐसे हैं जो मैला आंचल की आंचलिकता को समग्र मानवीय अवस्थिति के सामने संकीर्ण और सतही भी मानते हैं। फिर से उल्लेख आवश्यक है कि सूक्ष्म, गहरी और समग्र मानवीय अनुभूति के संदर्भ में जाने जानेवाले उपन्यास मनुष्य की बराबरी के लिए किये जाने वाले संघर्ष के प्रति उदासीन होकर मानव, और विद्रोह के खतरे उठाए बिना न जाने कैसे उदार मान लिये जाते हैं। मैला आंचल की आंचलिकता इस समग्र मानवीय अवस्थिति की गहराई पर (जो विश्व नागरिक के रूप में प्रभावशाली देशों की कुछ ऊपरी जीवन-शैली, रीतियों तथा सतही गुणों की नक़ल से `एक तरह' से दिखने में गौरवान्वित होती है) बहुत बड़ा और भारी प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।'
मैला आंचल की अंतर्वस्तु और आंचलिकता में यह तर्क निहित है कि विशेष रूप से देशीय हुए बिना सार्वभौम होना और सामूहिक जीवन में सक्रिय सहभागिता के बिना मानव-अंतरात्मा की तलाश करना बंजर है, बौद्धिक पाखंड है। 
मो0 9810435834




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