कोरोना काल : तबाही के मंज़र-6


कोविड 19  : पत्रकारिता से क्यों ग़ायब हैं सवाल
                                                                    प्रमोद रंजन

फ़रवरी, 2020 तक भारतीय अख़बारों में दुनिया में एक नये वायरस के फैलने की सूचना प्रमुखता से आने लगी थी। तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। उस समय हम मज़ाक-मज़ाक में कहा करते थे कि शायद आने वाले समय में हाथ न मिलाकर, एक दूसरे को नमस्कार करना होगा। कौन जानता था कि जल्दी ही वह दिन आने वाला है, जब ऐसे नियम बना दिये जायेंगे, जिसमें मास्क नहीं पहनने पर दंडित किये जाने का प्रावधान होगा! उस समय तक कार्यालय में उपस्थिति के लिए बायोमैट्रिक्स पंच मशीन लगाये जाने का जिक्र आने पर हम इसके औचित्य और दुष्परिणामों पर चर्चा किया करते थे। उस समय कौन जानता था कि मोबाइल-फ़ोन में एक जासूस-एप रखना आवश्यक कर दिया जायेगा और, बायोमैट्रिक्स मशीन तो कौन कहे, हम हर प्रकार के सर्विलांस के लिए राज़ी हो जायेंगे।
आज अनेक शहरों में चेहरे की पहचान करने वाले कैमरे सड़कों पर लगा दिये गये हैं, नागरिकों पर निगरानी रखने के लिए कैमरे लगे ड्रोनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन इन सब के दूरगामी प्रभावों के बारे में कोई सवाल नहीं उठ रहा है। कथित महामारी से निपटने के लिए मनुष्योचित अधिकारों का हनन किया जा रहा है लेकिन इस संबंध में भी कोई सवाल उठाने वाला नहीं है। हालत यह है कि जितना हमें बताया जा रहा है, उससे अधिक छुपाया जा रहा है।
कुछ उदाहरण देखें।  
अख़बारों ने हमें बताया कि कोविड-19 सबसे अधिक जानलेवा है। लेकिन यह नहीं बताया कि हमारी हिंदी पट्टी में टी.बी, चमकी बुख़ार, न्यूमोनिया, मलेरिया आदि से मरने वालों की एक विशाल संख्या है। इन बीमारियों से सिर्फ़ हिंदी पट्टी में हर साल 5 से 7 लाख लोग मरते हैं।
हमें बताया गया कि यह ख़तरनाक है, क्योंकि यह ‘वायरस’ से होता है और ला-इलाज है। लेकिन यह नहीं बताया गया  कि हिंदी पट्टी के सैकड़ों ग़रीब बच्चों को मारने वाला चमकी बुख़ार (एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम) एवं जापानी इंसेफ़ेलाइटिस भी वायरस से होता है और वह भी आज तक ला-इलाज है। चमकी बुख़ार इतना ख़तरनाक और रहस्मयी बीमारी है कि अभी तक इसके सही-सही वजह का पता नहीं लगाया जा सका है। यह हिंदी पट्टी में हर साल 01 से 15 वर्ष के उम्र के हज़ारों बच्चों को अपना शिकार बनाता है, जिनमें से सैकड़ों की चंद दिनों में ही मौत हो जाती है।
कोविड-19 की अधिकतम मृत्यु दर (CFR) ‘ज़्यादा से ज़्यादा 3 प्रतिशत’ बतायी गयी, और हमें दुनिया के सबसे क्रूर लॉकडाउन में डाल दिया गया। जबकि ऊपर बताये गये बुख़ारों में मृत्यु दर 30 प्रतिशत तक है। हमारे समाचार-माध्यमों से यह सवाल ग़ायब रहा कि इन बीमारियों को क्यों गंभीरता से नहीं लिया जाता? क्या इसलिए कि इनसे मरने वाले लगभग सभी दलित, पिछड़े और ग़रीब होते हैं, या इसलिए कि इनमें दवा कंपनियों के लिए पैसा बनाने का मौक़ा बहुत कम है?
भारत में हर साल टी.बी. से लगभग 4.5 लाख लोगों की मौत होती है, हर साल मलेरिया से लगभग 2 लाख लोग मरते हैं, जिनमें ज़्यादातर युवा आदिवासी होते हैं। भारत में हर साल एक लाख से अधिक बच्चे डायरिया से मर जाते हैं। इन आंकड़ों को यदि प्रतिदिन के हिसाब से विभाजित करके देखें तो भारत में हर रोज़ 1300 लोग टी.बी. से मरते हैं जबकि 350 बच्चे निमोनिया से हलाक़ हो जाते हैं। 
इस संबंध में जर्मनी में शोधरत मेरे एक मित्र रेयाज़-उल-हक़ ने एक मेल में जो लिखा है, उसे यहां दे देना प्रासंगिक होगा। उन्होंने ध्यान दिलाया है कि ‘ग़रीब देशों में होने वाली इन बीमारियों की विश्व स्वास्थ्य संगठन आदि द्वारा की जाने वाली उपेक्षा की वजह यह है कि पश्चिमी देशों ने इन बीमारियों और उनकी वजहों पर कमोबेश क़ाबू पा लिया है। साफ़ पानी की आपूर्ति, पोषण, पर्याप्त भोजन और स्वस्थ्य जीवन शैली, मज़बूत स्वास्थ्य सेवाएं और इलाज की सुविधा से युक्त ये देश अब हैज़ा, टी.बी. आदि से परेशान नहीं होते। मलेरिया और यहां तक कि एड्स भी अब कोई बड़ी मुश्किल नहीं है इन देशों के लिए। लेकिन वे उन बीमारियों से डरते हैं जिन पर इनकी कोई पकड़ नहीं है। इसलिए ये संक्रामक सार्स और कोरोना से डर जाते हैं, क्योंकि अभी इनके पास उसका कोई उपाय नहीं है। चूंकि इन पश्चिमी देशों का दुनिया में दबदबा है, इनकी प्राथमिकताएं सब लोगों की प्राथमिकताएं बन जाती हैं। इसलिए अब कोरोना सबके लिए ख़तरा है। एक बार इसका टीका और इलाज इनको मिल जाने दीजिए, फिर कोरोना से कौन मरता और जीता है दुनिया में, इनको इसकी कोई परवाह भी नहीं होगी। ...आज यह यूरोप और अमेरिका की बीमारी है। जब तक यह चीन तक सीमित थी, इनको इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था।’
लेकिन भारतीय मीडिया ने यह सवाल नहीं उठाया कि इन यूरोपीय देशों की समस्याओं को आपने हमारे सिर पर क्यों थोप दिया? मीडिया यह सवाल भी नहीं उठा रहा कि रोगों के उपचार की जगह कोविड-19 के मरीज़ों की गिनती पर इतना बल क्यों है?
हमे नहीं बताया जा रहा कि इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आई.सी.एम.आर.) का मनुष्य को गुलामी के बंधनों में जकड़ने वाली तकनीक को बढ़ावा देने वाले, वैक्सीन और दवा कंपनियों के सहयोगी बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन से क्या रिश्ता है?
आई.सी.एम.आर. को  बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन से अकूत धन अनुदान के रूप में प्राप्त होता है, जिसमें वैज्ञानिकों के सभा-सेमिनार और ग्लोबल यात्रा-आवास आदि का व्यय भी शामिल रहता है। गेट्स फ़ाउंडेशन की वेबसाइटों पर आईसीएमआर को मिलने वाले इस दान का ब्योरा देखा जा सकता है। 
अस्पतालों में बेड ख़ाली पड़े हैं। मरीज़ों को भर्ती करने से इंकार करने की सूचनाएं हमें सोशल मीडिया पर मित्र-परिचितों से लगातार मिल रही हैं। किसी भी अन्य बीमारी की तरह कोरोना वायरस का संक्रमण भी पहले से ही गंभीर रोगों से पीड़ित व्यक्ति के लिए ही जानलेवा हो सकता है। स्वास्थ सुविधाओं को ठप कर दिये जाने के कारण गंभीर रोगों से पीड़ित जिन लोगों को कोरोना का संक्रमण हो रहा है, उन्हें दर-दर भटकना पड़ रहा है।
हम देख सकते हैं कि अधिकांश मामलों में इन्हीं कारणों से मरीज़ों की मौत हो रही है। लेकिन हमारे अख़बारों, टीवी चैनलों और पत्रिकाओं में कहीं यह सवाल नहीं है कि यह प्रशासनिक लापरवाही के कारण हुई हत्या है या कथित महामारी से हुई मौत?
लॉकडाउन में यातायात के साधनों पर पाबंदी लगा दिये जाने के कारण लाखों मज़दूरों को अपने परिवार समेत सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा, जिससे सैकड़ों मज़दूरों की मौत हो गयी। हमारे मीडिया संस्थान सरकार से नहीं पूछ रहे कि भारत जैसे ग़रीबों की विशाल जनसंख्या वाले देश में, जहां अधिकांश लोग रोज़ की रोटी कमा कर खाते हैं, वहां लॉकडाउन का मतलब क्या होगा, अगर आपको यह पता नहीं था, तो आपके निर्देशों के सही साबित होने की क्या गारंटी है?
स्वीडन, जापान, तंज़ानिया, बेलारूस, निकारागुआ, यमन आदि देशों ने या तो बिल्कुल लॉकडाउन नहीं किया, या फिर ऐसे नियम बनाये, जिनसे नागरिकों की स्वतंत्रता कम से कम बाधित हो। वहां कोरोना वायरस के संक्रमण के, लॉकडाउन वाले देशों की तुलना में अधिक फैलने के कोई प्रमाण नहीं हैं। भारत इस राह पर क्यों नहीं चला?
कहीं भी यह सवाल नहीं उठ रहा कि क्या यह वायरस निशाचर है, जो आपने इन दिनों रात का कर्फ़्यू लगा रखा है? इसका वैज्ञानिक आधार क्या है? आप क्यों भय को बरक़रार रखना चाहते हैं? कहीं इसका कारण यह तो नहीं है कि सरकार कोविड-19 का भय बनाये रखना चाहती है, ताकि देश में महामारी से संबंधित आपातकालीन क़ानून लागू रहे और वह इसकी आड़ में अपनी मनमानी जारी रख सकें? कहीं ऐसा तो नहीं है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस महामारी को इसलिए कम करके दिखाना चाहते हैं क्योंकि वहां कुछ ही महीनों में चुनाव होने हैं और भारत के प्रधानमंत्री इस बीमारी को इसलिए बढ़ाकर दिखाना चाहते हैं क्योंकि यहां चुनाव में अभी चार साल बाक़ी हैं?

ऐसे सैंकड़ों सवाल सिरे से ग़ायब  हैं।
कैसे ग़ायब हुए सवाल?
इन सवालों का ग़ायब होना अनायास नहीं है। न ही इसके कारण सिर्फ़ मनोगत हैं। बल्कि  इसमें कई तत्वों की भूमिका है।
कोविड-19 के इस दौर में सरकारों ने सूचनाओं पर जो प्रतिबंध लगाये हैं, वे एक तरफ़ हैं। अपेक्षाकृत बहुत बड़ा ख़तरा उस तकनीक से है, जिस पर बिग टेक और गाफ़ा (गूगल, फ़ेसबुक, ट्वीटर, अमेज़न आदि) के नाम से जाने जानी वाली कुछ कंपनियों का क़ब्ज़ा है। बिग टेक द्वारा शुरू की गयी यह सेंसरशिप अब तक सरकारों द्वारा लगायी जाने वाली सेंसरशिप से कई गुणा अधिक व्यापक और मज़बूत है। इन कंपनियों की एकाधिकारवादी नीतियों की सफलता और सरकारों की तेज़ी से बढ़ रही निरंकुशता के बीच का रिश्ता भी साफ़ तौर पर देखा जा सकता है।
पहले हम सरकारों की निरंकुशता के कुछ उदाहरण देखें।
भारत में कई राज्यों की पुलिस ने कहा है कि ‘ऐसा कोई भी व्यक्ति जो कोविड-19 वायरस को फैलने से रोकने के लिए सरकारी मशीनरी द्वारा किये जा रहे काम करने के तरीक़ों पर संदेह प्रकट करेगा, उस पर कार्रवाई की जायेगी।’ (देखें, ग्रेटर मुंबई पुलिस की आदेश संख्या : CP/XI (06)/Prohibitory order, 23 May, 2020)
इसी प्रकार, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) खड़गपुर ने अपने संकाय सदस्यों को कहा है कि ऐसे किसी विषय पर न लिखें, न बोलें, जिसमें सरकार की किसी भी मौजूदा नीति या कार्रवाई की प्रतिकूल आलोचना होती हो। संस्थान ने अपने अध्यापकों को यह छूट दी है कि वे ‘विशुद्ध’  वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलापरक लेखन कर सकते हैं लेकिन उन्हें इस प्रकार का लेखन करते हुए यह ध्यान रखना है कि उनका लेखन किसी भी प्रकार से ‘प्रशासनिक मामलों को नहीं छुए।’
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दुनिया के उन प्रमुख संस्थानों में शुमार हैं, जिसके अध्यापकों को  विज्ञान विषयक विशेषज्ञता के लिए जाना जाता है।
भारत समेत, दुनिया के कई देशों में इन दिनों ऐसे प्रतिबंध लगे हुए हैं, जो आम लोगों के अनुभव-जन्य ज्ञान और विवेक को ही नहीं, कथित विशेषज्ञों (मसलन, आईआईटी के उपरोक्त अध्यापकों) को भी सवाल उठाने से रोक रहे हैं। इसलिए यह देखना आवश्यक है कि किसके पक्ष के विज्ञान, किसके पक्ष की विशेषज्ञता, किसके पक्ष की पत्रकारिता को रोका जा रहा है? ईश्वर और धर्म की ही तरह विज्ञान और विशेषज्ञता की निष्पक्षता पर सिर्फ़ वही भरोसा कर सकते हैं, जो उससे लाभान्वित हो रहे हों।
उपरोक्त प्रसंग सिर्फ़ बानगी के लिए हैं।
भारत पहले से ही प्रेस-फ्रीडम के सूचकांक पर बहुत नीचे रहा है। दुनिया के कुल 180 देशों में इसका स्थान 142वां है। कोविड-19 के दौरान यहां पत्रकारों को सरकारी अमले की नीतियों पर सवाल उठाने तथा कथित तौर पर फ़ाल्स न्यूज़ फैलाने के आरोप में प्रताड़ित किया जा रहा है। अकेले उत्तर प्रदेश में अब तक 55 पत्रकारों पर इस आरोप में मुक़दमा दर्ज किया गया है।
लेकिन इन दिनों सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के अधिकांश समाचार-माध्यम, जिनमें प्रमुख अख़बार, टीवी चैनल, वेबसाइटें, सोशल-मीडिया प्लेटफ़ॉर्म आदि शामिल हैं; जनता के सवालों के उत्तर के लिए कथित विशेषज्ञ संस्था विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) और अमेरिका की ‘सेंटर फार डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ (सी.डी.सी.) जैसी संस्थाओं की ओर भेज रही हैं। वह भी तब, जबकि ये संस्थाएं ख़ुद ही प्रश्नों के घेरे में रही हैं और इनकी विश्वसनीयता बहुत निचले स्तर की है। इन संस्थाओं पर दवा कंपनियों और परोपकार-व्यवसायियों से साठगांठ, एवं तीसरी दुनिया के देशों पर क़ानूनों का उल्लंघन कर घातक दवाओं और वैकसीनों का ट्रायल करने तथा असफल तकनीकों और दवाओं को इन देशों पर थोपने के आरोप अनेकानेक बार साबित हुए हैं।
इन संस्थाओं के निर्देशों की आड़ में दुनिया के अनेक विकासशील और ग़रीब देशों ने अपने देश में कार्यरत मीडिया संस्थानों के लिए ऐसे नियम बनाये हैं, जिसके तहत उन्हें कोविड-19 के संबंध में सिर्फ़ उन्हीं तथ्यों और रणनीतियों को जनता के सामने रखने की छूट है, जिन्हें इन संस्थाओं की मान्यता प्राप्त हो। 
इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि इस बीच इन संस्थाओं से इतर मत रखने के कारण भारत समेत दुनिया भर में हज़ारों पत्रकारों और समाचार-माध्यमों को प्रताड़ित किया गया है। इनमें आपराधिक मुकदमा, जनता और पुलिस द्वारा पिटाई, आधिकारिक प्रेस कांफ्रेंसों में भाग पर प्रतिबंध, यात्राओं पर प्रतिबंध, प्रेस पास व मान्यता का रद्द किया जाना शामिल है। इस बीच, इन देशों की सरकारों ने कोविड-19 से संबंधित सवाल उठाने पर सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं को बंद करवाया है, वेबासाइटों को अवरुद्ध कर दिया है तथा प्रकाशित सामग्री को हटाने के लिए मज़बूर किया है। 
इन प्रताड़नाओं से अधिक चिंताजनक यह है कि एशिया, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के कई देशों में कोरोना वायरस के बहाने सवालों को कुचलने वाले क़ानून पास कर दिये गये हैं। इस मामले में सबसे बुरी हालत एशियाई देशों में है।
रूसी संसद ने कोविड-19 से संबंधित सवालों पर प्रतिबंध लगाने के लिए गत 31 मार्च को अपराध-संहिता में परिवर्तन किया। रूस में अगर कोई व्यक्ति कोविड-19 के बारे में कथित तौर पर ग़लत जानकारी देता है तो उसे 23000 यूरो (लगभग 19.5 लाख रुपये) तक का जुर्माना और पांच साल तक की जेल हो सकती है और अगर कोई मीडिया संस्थान ऐसा करता है तो उसे 117,000 यूरो (लगभग 90 लाख रुपये) तक का जुर्माना हो सकता है।
उज़्बेकिस्तान में अप्रैल के पहले सप्ताह में इसके लिए क़ानूनों में बदलाव किया गया है। नये क़ानून में आपत्तिजनक सामग्री का भंडारण या प्रबंधन करने पर 8.2 करोड़ उज़्बेकिस्तानी सोम (लगभग 7 लाख रुपये) का दंड या तीन साल का प्रावधान किया गया है। अगर कोई व्यक्ति उसे ‘शेयर’ करता है तो उसे 5 साल तक की सज़ा होगी।
दक्षिण पूर्व एशियाई देश वियतनाम में फ़रवरी में बने नये क़ानून के अनुसार अब वहां सोशल मीडिया पर कथित भ्रामक जानकारी देने, शेयर करने पर 10 से 20 लाख डोंग (32 से 64 हज़ार रुपए) के ज़ुर्माना का प्रावधान किया गया है। यह रक़म वहां के नागरिकों के लिए कितनी ज़्यादा है इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि यह अधिकांश वियतनामियों के 3 से 6 महीने के मूल वेतन के बराबर है, जो उन्हें महामारी के बारे में कोई ‘ग़लत’ सवाल उठाने पर चुकानी होगी।
फ़िलीपीन्स,अज़रबैजान, बोस्निया, कम्बोडिया, जॉर्डन, रोमानिया, थाईलैंड, संयुक्त अरब, ब्राज़ील, अल्जीरिया, बोलीविया, हंगरी आदि देशों में भी इसी प्रकार के नये क़ानून बनाये गये हैं।
भारत में इस प्रकार का कोई क़ानून अभी तक नहीं बनाया गया है। लेकिन यहां सरकार, न्यायपालिका और मीडिया हाउसों के मालिक सवालों को दबाने के लिए एकजुट हो गये हैं। उनकी इस एकजुटता ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक सीमित कर दिया है। मीडिया मालिकों के अन्य व्यवसायों के लिए पर्दे के पीछे से ली जाने वाली अन्य वैध-अवैध रियायतों के लिए भी।
भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में 21 दिनों के प्रथम लॉकडाउन की घोषणा 24 मार्च की शाम को की थी। लेकिन इस घोषणा से कुछ घंटे पहले उन्होंने देश के सभी प्रमुख समाचार-पत्रों के मालिकों और संपादकों से वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये व्यक्तिगत तौर पर बातचीत की। इस बातचीत में इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप, द हिंदू ग्रुप, पंजाब केसरी ग्रुप समेत 11 अख़बारों के 20 प्रतिनिधि शामिल थे। इस बातचीत की रिकॉर्डिंग सार्वजनिक नहीं की गयी है, न ही इसमें शामिल हुए अख़बारों ने इसमें हुई बातचीत के बारे में अपने पाठकों को कोई जानकारी दी है। इस बातचीत के बारे में प्रधानमंत्री की आधिकारिक वेबसाइट पर एक संक्षिप्त सूचना दी गयी है। उसके अनुसार, इस बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा कि कोविड-19 संकट के दौरान ‘मीडिया, सरकार और जनता के बीच, राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर की एक कड़ी की भूमिका निभाये तथा निरंतर अपना फ़ीडबैक दे। प्रधानमंत्री ने ‘ज़ोर दिया कि’ इस दौरान ‘निराशावाद, नकारात्मकता और अफ़वाह फैलाने वालों से निपटना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है’। उन्होंने अख़बारों के मालिकों और संपादकों को कहा कि वे ‘नागरिकों को आश्वस्त करें’ कि ‘सरकार कोविड-19 के प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए प्रतिबद्ध है।’ आश्चर्यजनक यह था कि उन्होंने समाचार-पत्रों के मालिकों को कोविड-19 से संबंधित लेखों और शोध-सामग्री के प्रकाशन के संबंध में भी निर्देश दिये। सामान्य तौर पर सरकारें ‘खबरों’ को ही मन-मुताबिक़ ढालने तक सीमित रहती हैं। इस कारण लंबे लेखों, पुस्तकों  में आने वाला ‘विचार’ पक्ष सेंसरशिप से अपेक्षाकृत बचा रहता है। लेकिन अचानक बुलायी गयी इस व्यक्तिगत बातचीत की बैठक में नरेंद्र मोदी ने कहा कि समाचार-पत्र ‘अपने पृष्ठों पर प्रकाशित लेखों के माध्यम से कोरोना वायरस के बारे में जागरूकता फैलायें’ तथा ‘अन्य देशों के शोधपत्र व अंतर्राष्ट्रीय डेटा को शामिल करते हुए वारयस के फैलाव के प्रभावों को उजागर करें’। उनका संकेत डब्ल्यू.एच.ओ., सी.डी.सी. आदि द्वारा वायरस के प्रसार के बारे में प्रसारित किये जा रहे अतिशयोक्तिपूर्ण आंकड़ों और महामारी से निपटने के लिए सुझायी जा रही निरंकुश नीतियों को वैधता प्रदान करने की ओर था।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस संबंध में इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के मालिकों के साथ भी अलग से ऐसी कोई बैठक की या नहीं, इस संबंध में जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन हमने देखा कि भारत में संपूर्ण मीडिया सरकार की कोविड-19 संबंधी नीतियों के आगे नतमस्तक रहा। मीडिया के अधिकांश हिस्से ने यहां दुनिया के सबसे सख्त़ और अमानवीय लॉकडाउन पर कोई आपत्ति नहीं की, बल्कि लॉकडाउन को कथित तौर पर तोड़ने वाले भूख और बदहाली से बिलबिलाते कमज़ोर तबक़ों को समाज और देश के अपराधी के रूप में पेश किया! इस बीच मीडिया का सबसे प्रिय पद ‘लॉकडाउन/सोशल डिस्टेंसिंग की उड़ीं धज्जियां’ था। उन्हें इसका भी ख़याल नहीं था कि इस पद को कहते हुए वे समाज के कमज़ोर तबक़ों के मानवाधिकारों और अपने उन करुण भावों को तार-तार कर रहे हैं, जिनके बूते वे मनुष्य कहलाने के अधिकारी बनते हैं।
भारतीय मीडिया के एक बहुत छोटे-से हिस्से ने कमज़ोर तबक़ों के प्रति करुणा दिखायी तथा एक छोटे-से ही हिस्से ने सरकारी कामकाज में अराजकता और भ्रष्टाचार के सवालों को उठाया। लेकिन इस हिस्से ने भी कोविड-19 की गंभीरता के अतिशयोक्तिपूर्ण प्रचार और इससे निपटने के अमानवीय और बर्बर तरीक़ों पर कोई सवाल नहीं उठाया। वे सरकारी विशेषज्ञता और सरकारी विज्ञान के पक्ष में पूरी ताक़त के साथ खड़े रहे।
इसके बावजूद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगायी कि वह ‘न्याय के बड़े हित’ को देखते हुए मीडिया संस्थानों, विशेषकर वेब पोर्टलों को निर्देश दे कि वे कोविड-19 के संबंध में सिर्फ़ सरकार द्वारा निर्देशित आधिकारिक स्रोतों से ली गयी सूचनाएं प्रसारित करें। इस पर कोर्ट ने डब्लूएचओ के डायरेक्टर जनरल डॉ. ट्रेडॉस को उद्धृत करते हुए अपने आदेश में कहा कि ‘हम सिर्फ़ महामारी से नहीं लड़ रहे, हम इंफोडेमिक (कथित ग़लत सूचनाओं के प्रसार)से भी लड़ रहे हैं। फे़क न्यूज़ इस वायरस की तुलना में अधिक तेज़ी और अधिक आसानी से फैलता है और यह वायरस के जितना ही ख़तरनाक है’ कोर्ट ने कहा कि ‘हम महामारी के बारे में स्वतंत्र चर्चा में हस्तक्षेप करने का इरादा नहीं रखते हैं, लेकिन मीडिया को घटनाक्रम के बारे में आधिकारिक बातों का ही संदर्भ देने और प्रकाशित करने का निर्देश देते हैं।’ इस आदेश से साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारिता को सरकार के निर्देशों पर चलने का निर्देश दिया, लेकिन यह आश्चर्यजनक था कि भारतीय अख़बारों ने इसे अपनी ‘जीत’ मानते हुए ख़बरें प्रकाशित कीं कि कोर्ट ने सरकार के आग्रह को ख़ारिज कर दिया है। भारत में समाचार माध्यमों ने लंबे समय से चली आ रही सेंसरशिप के प्रति किस प्रकार अनन्य स्वीकार-भाव विकसित कर लिया है, उसका यह एक रोचक उदाहरण है। कोर्ट के फ़ैसले को अपनी ‘जीत’ बता कर वे न सिर्फ़ सेंसरशिप का विरोध करने की ज़हमत उठाने से बच गये बल्कि अपनी स्वतंत्रता का झूठा ढिंढोरा पीट कर अपनी पीठ थपथपा डाली।
हालांकि कहना मुश्किल है कि क्या कोविड-19 के विभिन्न पहलुओं पर मीडिया की चुप्पी का कारण सिर्फ़ प्रधानमंत्री का भय, अख़बार मालिकों के सरकार से जुड़े आर्थिक हित हैं, या न्यायालय का निर्देश है। इन चीज़ ने निश्चय ही निर्णायक भूमिका निभायी, लेकिन यह भी सच है अधिकांश पत्रकार स्वयं भी कोविड-19 की वजह से होने वाली मौतों के पूर्वानुमान और इटली और अमेरिका से आयी मौतों की संख्या से आक्रांत हैं। उनमें से अधिकांश को आज भी यह जानकारी नहीं है कि वे पूर्वानुमान फ़र्ज़ी साबित हो चुके हैं तथा इम्पीरियल कॉलेज के नील फ़र्गुसन से ब्रिटेन के सांसद पूछताछ कर रहे हैं। इसी प्रकार, उन्हें यह भी मालूम नहीं है मौतों के आंकड़ों के संकलन के लिए ऐसी पद्धति अपनायी जा रही है, जो भले ही चिकित्सा विज्ञान के शोध के लिए उचित हो, लेकिन उससे जो आंकड़े पैदा हो रहे हैं, वे अतिशयोक्ति-पूर्ण हो सकते हैं। इसका मुख्य कारण है कि अधिकांश लोगों की ही तरह मीडिया में कार्यरत लोगों की तथ्यों तक पहुंच बहुत कठिन बना दी गयी है।
दरअसल, बिग टेक की नीतियों का प्रभाव उनके अपने प्लेटफ़ार्मों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह पत्रकारों और लेखकों द्वारा उपयोग में लिए जाने वाले सूचनाओं के स्रोतों पर भी असर डाल रहा है। बिग टेक ने महामारी से पहले और महामारी के दौरान, जो नीतियां बनायीं, उनके तहत वे विरोध में जाने वाले कुछ सूचनाओं के स्रोतों को नष्ट कर दे रहे हैं इस तरह अधिकांश तक लोगों की पहुंच लगभग असंभव बना रहे हैं।
इसके अतिरिक्त बिग टेक कथित ‘फ़ैक्ट चेकिंग’ संस्थाओं को धन मुहैया करवा कर विरोधी स्रोतों को अविश्वसनीय बनाने का अभियान चला रही हैं। साथ ही, छोटे ब्लॉगों, वेबसाइटों व अन्य वैकल्पिक व मुख्यधारा के समाचार-माध्यमों को धन उपलब्ध करवा कर फ़ैक्ट चेकिंग संस्थाओं में तब्दील कर रही हैं। इस काम के लिए सिर्फ़ ये टेक जायंट्स ही नहीं, बल्कि परोपकार-व्यवसायी व कई अन्य वैश्विक संस्थाएं भी पिछले कुछ वर्षों से धन उपलब्ध करवा रही हैं। इनमें मुख्य है, बिल एंड मिलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन। कोविड-19 से कुछ समय पहले ही उन्होंने इस दिशा में थैलियां खोल दी थीं, कोविड-19 के बाद उन्होंने इसका मुंह और चौड़ा कर दिया है।
यह सच है कि पत्रकारिता विधा की अपनी संरचनागत सीमाएं  हैं लेकिन इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उन सीमाओं के भीतर रह कर निभाये जा सकने वाले कर्तव्यों को भी पूरा करने में पत्रकारिता विफल रही है। उसके कारणों में यहां जाने का अवकाश नहीं है। यहां इतना याद दिला देना पर्याप्त होगा कि अगर पत्रकारिता इस कथित महामारी के संदर्भ में सिर्फ़ एक तुलना भी प्रस्तुत कर पाती तो तस्वीर बिल्कुल साफ़ हो जाती। यह तुलना कुछ यों हो सकती थी कि आज भारत में अन्य संक्रामक और ग़ैर-संक्रामक बीमारियों से कितने लोग मरते हैं और लॉकडाउन की वजह से इसमें कितना इज़ाफ़ा होने की संभावना है।
बहरहाल, कोविड-19 ने हमें एक ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया है, जहां से कई रास्ते  निकलते हैं। हम कौन-सा रास्ता लेंगे, यह इस पर निर्भर करेगा कि हम कितने समय बाद इन बहुआयामी ख़तरों को भांपते हैं और उस पर प्रतिक्रिया शुरू करते हैं।
मो0 9811884495








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