कोरोना काल : प्रवंचनाओं के संदर्भ-2


राहत पैकेज का सच और नव-उदारवाद की अंधी गली
प्रभात पटनायक

राहत पैकेज यानी ऊंट के मुंह में जीरा 
जनता के प्रति मोदी सरकार की अमानवीयता की तुलना बस उसकी मिथ्यावादिता से ही की जा सकती है। इन दोनों ही मामलों में मोदी सरकार दुनिया की दूसरी ज़्यादातर सरकारों से मीलों आगे है। आख़िरकार, दूसरी ऐसी कौन सी सरकार है जिसने विदेशी तथा देसी इज़ारेदारियों के लिए कई-कई रियायतें देने को, देश की जनता के लिए राहत पैकेज के तौर पर चलाने की कोशिश की होगी! दूसरी ऐसी कौन सी सरकार है जिसने बैंकों तथा ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए ऋण योजनाओं का ऐलान कर उन्हें संकट के मारे ग़रीबों के लिए राहत के क़दम के तौर पर प्रचारित करने की कोशिश की हो? ऐसी कौन सी दूसरी सरकार होगी जिसने वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी और उसकी क्रेडिट-रेटिंग एजेंसियों के सामने अपने पूरी तरह से दंडवत हो जाने को, आत्मनिर्भरता के क़दम के तौर पर पेश करने की कोशिश की हो।
आइए, हम शुरुआत से ही चलते हैं। सिर्फ़ चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन का ऐलान कर दिया गया। उन 14 करोड़ प्रवासी मज़दूरों के बारे में एक बार सोचा तक नहीं गया जिन्हें एक ही झटके में बेघर, आयहीन और भोजनहीन किया जा रहा था। नतीजा यह हुआ कि विशाल संख्या में मज़दूर सड़कों पर उतर पड़े, वहां जाने के लिए जो उनकी नज़रों में इन हालात में उनका इकलौता आश्रय था--गांव का उनका घर। उसके बाद देरी करके मोदी सरकार ने 1.7 लाख करोड़ रु0 के एक राहत पैकेज का ऐलान किया। लेकिन इसमें से भी नयी मदद, जिसका ऐलान पहले ही नहीं किया जा चुका था, सिर्फ़ 92,000 करोड़ रु. की थी यानी देश के जीडीपी के 0.5 फ़ीसद से भी कम। दुनिया के दूसरे हरेक बड़े देश द्वारा दी जा रही मदद से बहुत-बहुत कम।
बाद में लॉकडाउन को एक महीने से ज़्यादा के लिए बढ़ा दिया गया। इस दौरान, हताश और लाचार प्रवासी मज़दूरों के पैदल ही घरों के लिए चल रहे होने की त्रासदी हर रोज़ सारी दुनिया को देखने को मिल रही थी। फिर भी मोदी सरकार में ज़रा सी हरकत तक नहीं हुई। इसके बाद, 12 मई को मोदी ने, पहले की तमाम घोषणाओं समेत, 20 लाख करोड़ रु. के पैकेज का ऐलान कर दिया। कम से कम यह ऐलान बड़ा लग रहा था। इसके ब्यौरों की घोषणा बाद में वित्त मंत्री को करनी थी। और उन्होंने बाक़ायदा यह काम किया भी। पता चला कि 20 लाख करोड़ रु. का तथाकथित 'राहत पैकेज’ हद दर्जे की हवाबाज़ी के सिवा और कुछ था ही नहीं। सरकार की मदद की ज़्यादातर पेशकश, वास्तव में ऋण के वादे के रूप में ही थी और ऋण का वादा किसानों से, एमएसएमई से और अन्य सभी प्रभावित क्षेत्रों से किया जा रहा था।
वित्त मंत्री की घोषणाओं के मकड़जाल को काटकर ठीक-ठीक इसका हिसाब लगा पाना बेशक मुश्किल है कि यह पैकेज कितनी वित्तीय मदद वाक़ई मुहैया कराता है। स्वतंत्र शोधकर्ताओं के अनुमानों से मैंने इस पैकेज पर सरकार के बजट से किये गये कुल ख़र्चे या राजकोषीय हस्तांतरण का हिसाब लगाया है क्योंकि सिर्फ़ उसी को 'राहत पैकेज’ कहा जा सकता है। इस हिसाब से यह ख़र्चा कुल 1.9 लाख करोड़ बैठता है, हालांकि कुछ शोधार्थियों का अनुमान इससे भी कम, सिर्फ़ 1.65 करोड़ रु. का है (द वायर, 18 मई)। चूंकि इसमें पहले के सभी पैकेज भी शामिल हैं, यह कुल रक़म है जो मौजूदा महामारी के संदर्भ में सरकार ख़र्च करने जा रही है। यह राशि देश के जीडीपी के 1 फ़ीसद के क़रीब ही बैठती है। जिस तरीक़े के विकराल मानवतावादी संकट का हमारा देश इस समय सामना कर रहा है, उसे देखते हुए, और अन्य देश जिस पैमाने पर ख़र्च कर रहे हैं, उसे भी देखते हुए, दोनों ही पैमानों से यह हास्यास्पद तरीक़े से थोड़ा है।
महज़ दो तथ्यों से ताज़ातरीन क़दमों की नगण्यता को समझा जा सकता है। पहले का संबंध ताज़ातरीन क़दमों में शामिल उस इकलौते प्रावधान से है, जो प्रवासी मज़दूरों के लिए है। यह है 5 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति अतिरिक्त अनाज। इस पर सरकार कुल 3,500 करोड़ रु. ख़र्च करने जा रही है यानी 14 करोड़ की प्रवासी आबादी पर प्रतिव्यक्ति 250 रु.। अगर सरकार द्वारा पेश किये गये 8 करोड़ प्रवासी मज़दूरों के आंकड़े को ही सच मानें, तब भी यह प्रतिव्यक्ति कुल 437 रु. 50 पैसा बैठता है। प्रवासी मज़दूरों के लिए सरकार की हमदर्दी की यही सीमा है!
दूसरे तथ्य का संबंध 6,750 करोड़ रु. की राशि से है, जो कथित रूप से उन 4.3 करोड़ मज़दूरों की मदद के लिए दी जा रही है, जिनकी प्रोवीडेंट फ़ड के लिए वेतन में से वैधानिक कटौती अगले तीन महीने के लिए 12 से घटाकर 10 फ़ीसद कर दी गयी है। सरकार की आपाधापी का यह आलम है कि उसने इसे भी अपने पैकेज में जोड़ लिया है।
सरकार के अफ़सरान बड़ी मेहनत से इस पैकेज की घोर कृपणता की सफ़ाई में लोगों को यह समझाने में लगे हुए हैं कि पैकेज में तो हमेशा ही राजकोषीय क़दम और मुद्रा नीति क़दम, दोनों ही रखे जाते हैं। लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि पैकेज में हमेशा दोनों रहते तो ज़रूर हैं, पर इस मिश्रण में उनका अनुपात क्या होता है? वास्तव में उनकी इस सफ़ाई से दूसरे विश्व युद्घ के दौर के ब्रिटेन की याद आ जाती है। उस ज़माने में जनता को घोड़े और मुर्ग़ी के मांस के मिश्रण के सेंडविच दिये जाते थे। हमेशा ऐसा बताया जाता था कि दोनों मांस 1:1 के अनुपात में मिलाये गये हैं। बाद में पता चला कि मिश्रण में एक घोड़े के मांस के साथ एक मुर्ग़ी का मांस मिलाया जा रहा था।
राजकोषीय हस्तांतरण की नगण्यता के अलावा इस पैकेज में जो बात ख़ासतौर पर हैरान करती है, वह है इसकी घोर विचारहीनता। विचारहीनता हमेशा ही जनता के प्रति हिकारत को दिखाती है और यह पैकेज इसका जीता-जागता उदाहरण है। अब तक यह बात सभी जानकार मान चुके हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की असली समस्या मांग की कमी के बहुत-बहुत बढ़ जाने की है। वास्तव में महामारी के पहले के हालात में भी यह विशेषता सामने आ चुकी थी। अब जबकि समूची श्रम शक्ति का क़रीब चौथाई हिस्सा इस समय बेरोज़गार हो गया है और इसलिए उसके पास कोई क्रय शक्ति ही नहीं बची है, मांग में ऐसी भारी कमी होना स्वाभाविक है। और जब तक मांग पैदा नहीं की जाती है, उद्यमों के लिए सिर्फ़ ऋण की व्यवस्था किये जाने से कोई फ़ायदा होने वाला नहीं है। आख़िरकार, वे अपनी कार्य-निष्पादन पूंजी के लिए ऋण तो तब उठायेंगे, जब वे अपनी पैदावार बढ़ाना चाहेंगे और यह तो तभी होगा जब मांग होगी। लेकिन, सरकार के पैकेज में सरकारी ख़र्च तो नगण्य ही है, जबकि एक यही चीज़ है जो मांग पैदा कर सकती थी। इसलिए और ज़्यादा ऋण देने की उसकी पेशकश का कोई लेनदार ही नहीं होगा।
इस मुक़ाम पर ज़रूरत निजी उत्पादकों को और ज़्यादा बैंक ऋण मुहैया कराने की नहीं बल्कि सरकार को ख़र्चा करने के लिए और ज़्यादा ऋण दिये जाने की थी। मुसीबत के मारे लोगों को पैसा हस्तांतरित करने के ज़रिये, जिसका सुझाव अनेक पार्टियों ने दिया था, जिनमें वामपंथी पार्टियां सबसे आगे थीं, सरकार एक तीर से दो शिकार कर सकती थी। इस एक क़दम से वह मांग भी पैदा कर सकती थी और लोगों का संकट भी दूर कर सकती थी। इस तरह से मांग में नये प्राण फूंके जाने से उत्पाद में बढ़ोतरी हुई होती और उत्पाद में इस बढ़ोतरी को चलाते रहने के लिए बैंक ऋणों की बढ़ी हुई मांग सामने आयी होती। लेकिन, सरकारी ख़र्च को इस पैकेज से क़रीब-क़रीब बाहर ही रखने और निजी उत्पादकों के लिए सिर्फ़ बैंक ऋणों की पेशकश करने के ज़रिये, सरकार ने यही सुनिश्चित किया है कि बैंक ऋण की कोई ख़ास वास्तविक मांग पैदा ही नहीं हो। दूसरे शब्दों में, यह पैकेज न तो लोगों की बदहाली को कम करता है, न ही मांग पैदा करता है और वास्तव में बैंकों से ऋणों के उठाए जाने में भी बढ़ोतरी नहीं करती है।

वैश्विक वित्तीय पूंजी की गुलामी
सरकार ने ऐसा निरर्थक पैकेज पेश क्यों किया है? यहां हमें एक और कारक का ज़िक्र करना होगा, जो इस सरकार की विचारहीनता के साथ गुंथा हुआ है। यह कारक है, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की मुंहदेखी करने की उसकी उत्कंठा। उसके ख़र्च करने के मामले में इतनी कंजूस होने की वजह यह है कि अगर वह ख़र्चा करेगी, तो राजकोषीय घाटा बढ़ जायेगा। उस सूरत में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां उसकी रेटिंग नीचे खिसका सकती हैं और इसके फलस्वरूप वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी हमारी अर्थव्यवस्था से उड़कर जा सकती है। मोदी सरकार में इसकी हिम्मत तो है नहीं कि ऐसी सूरत पैदा होने पर वित्त के बाहर जाने पर अंकुश लगा सके। इसके बजाय वह तो वित्तीय पूंजी के आगे घुटने टेकने को ही सुरक्षित समझती है। इसके लिए वह अपने ख़र्चे पर ही अंकुश लगा रही है। वैसे यह ग़रीबों के प्रति इस सरकार की निष्ठुरता से भी मेल खाता है। संक्षेप में यह कि जनता के हितों और वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के फ़रमानों के बीच की इस टक्कर में, मोदी सरकार बड़ी मजबूती से वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के साथ है। विडंबना यह है कि वही सरकार आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के निर्माण की बातें कर रही है और वास्तव में आत्मनिर्भरता की लफ्फ़ाज़ी का सहारा लेकर, वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के आगे अपने दंडवत होने को ही ढांपने की कोशिश कर रही है।
इस प्रक्रिया की द्वंद्वात्मकता दर्ज करने वाली है। वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के फ़रमानों और मेहनतकश अवाम के हितों के बीच का टकराव वैसे तो वैश्वीकरण के पूरे युग की ही पहचान है। फिर भी, जब तक भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएं अपेक्षाकृत तेज़ी से बढ़ रही थीं, इस टकराव को कैसे न कैसे कर के ढांपा जा सकता था और वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी का वर्चस्व चुनौतीहीन बना रह सकता था। यह ऐसा दिखावा करने के ज़रिये ही किया जा सकता था कि आर्थिक वृद्घि अंतत: सभी को ख़ुशहाल बना देने वाली है। हालांकि, आर्थिक संवृद्घि से ऐसा कभी नहीं हुआ और वास्तव में नवउदारवादी दौर में मेहनतकश जनता की हालत पहले के मुक़ाबले बदतर ही हो गयी, फिर भी उक्त मिथक को बनाये रखना संभव था कि अगर तेज़ी से वृद्घि होती रहती है, तो भविष्य ज़रूर बेहतर होगा। लेकिन अब जबकि विश्व पूंजीवाद और उसके साथ ही साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने भी संकट आ गया है, उक्त टकराव को अब और ढांपकर नहीं रखा सकता है। वर्तमान महामारी ने हर जगह इस टकराव को उसके शिखर पर पहुंचा दिया है।
जिस समय भारत वित्तीय पूंजी के फ़रमानों पर नाच रहा है, अनेक देशों में सरकारों ने ऐसे बचाव-राहत पैकेज पेश किये हैं जिनमें सरकार के उल्लेखीय पैमाने पर ख़र्च करने का प्रस्ताव किया गया है और इन ख़र्चों के लिए संसाधन वित्तीय घाटे के ज़रिये जुटाये जा रहे हैं, जो कि वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी को पसंद नहीं है। संक्षेप में यह कि इन सरकारों को जनता की ज़रूरतों के सामने सिर झुकाना पड़ा है और वित्तीय पूंजी की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर भी ऐसा करना पड़ा है। अब यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि यह प्रक्रिया आगे क्या दिशा लेती है? क्या यह कल्याणकारी राज्य की उन व्यवस्थाओं के पुनर्जीवन का रास्ता है जिन्हें पिछले चार दशकों में समेट दिया गया था या फिर महामारी के दौरान, कामगार जनता के लिए जो चिंता दिखायी दे रही है, एक बार महामारी के हटने की देर है, वित्तीय पूंजी के दबाव में काफ़ूर हो जायेगी?

दुनिया दोराहे पर
दरअसल, दुनिया इस समय एक दोराहे पर है। दुनिया के सबसे 'सम्मानित’ पूंजीवादी अख़बारों में गिने जानेवाले लंदन के द फाइनेंशियल टाइम्स ने 3 अप्रैल 2020 के अपने एक संपादकीय में लिखा: 'पिछले चार दशकों में चलती रही नीतिगत दिशा को पलटने वाले मूलगामी सुधारों को सामने लाने की ज़रूरत है। सरकारों को अर्थव्यवस्था में कहीं ज़्यादा सक्रिय भूमिका स्वीकार करनी होगी। उन्हें जन सेवाओं को निवेश की तरह देखना चाहिए न कि बोझ की तरह और श्रम बाजारों को कहीं कम असुरक्षित बनाने के तरीक़ों की तलाश करनी चाहिए। पुनर्वितरण एक बार फिर एजेंडा पर होगा... बुनियादी आय तथा संपदा-कर जैसी जिन नीतियों को अभी हाल तक असंतुलित समझा जाता था, उन्हें नीति-मिश्रण में रखना होगा।’
यह बात ग़ौर करने वाली है कि मोदी सरकार की नीतियां, फाइनेंशियल टाइम्स जिस तरह की नीतियों की कल्पना कर रहा है, उनसे ठीक उल्टी हैं। भाजपा-शासित राज्यों में श्रम क़ानूनों को जिस तरह निरस्त किया जा रहा है (जो मोदी के अनुमोदन के बिना किया गया हो यह तो हो ही नहीं सकता), उसका मक़सद श्रम बाज़ार को और ज़्यादा असुरक्षित बनाना है, न कि कम असुरक्षित बनाना। पिछले ही दिनों कुछ भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों को सिर्फ़ इसका सुझाव देने के लिए दंडित कर दिया गया कि अमीरों पर कहीं ज़्यादा कर लगाये जाने चाहिए। संक्षेप में यह कि मोदी सरकार अपनी विचारशून्यता में अब भी विकसित दुनिया के ऊंचे आसनों की दावत की मेज़ से 'चार दशक’ पहले गिरे बौद्घिक टुकड़ों को ही बीनने में लगी हुई है और उसे इसका एहसास तक नहीं है कि दुनिया कहां की कहां निकल गयी है।
बहरहाल, दुनिया अब कहां पहुंच गयी है? फाइनेंशियल टाइम्स के उक्त संपादकीय से साफ़ है कि 'पिछले चार दशकों की नीतियों’ को, जिसका अर्थ है नवउदारवादी नीतियों को, जो वैश्वीकरण के मौजूदा दौर की पहचान कराती हैं, बदलना ही होगा यानी 'पिछले चार दशक’ का नवउदारवादी वैश्वीकरण एक बंद गली में पहुंच गया है। जिस तरह 1930 के दशक में विश्व पूंजीवाद, तब तक उसका जो रूप था उसमें, अंधे छोर पर पहुंच गया था और इस व्यवस्था को बचाने के ही लिए उसे बदलने की ज़रूरत आ खड़ी हुई थी, जिसे अनेक दूरंदेश पूंजीवादी चिंतकों ने रेखांकित किया था, ठीक उसी तरह से समकालीन विश्व पूंजीवाद अपने अंधे छोर पर पहुंच गया है और जैसे का तैसा चलता नहीं रह सकता है।
दिलचस्प है कि 8 मई को एक और संपादकीय प्रकाशित कर फाइनेंशियल टाइम्स ने लिखा: 'आज की हालत 1930 के दशक से मिलती है। उस ज़माने में, अमरीका के राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डेनालो रूज़वेल्ट से लेकर ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स तक, मध्यमार्गी उदारवादी यह समझ रहे थे कि उदार जनतांत्रिक पूंजीवाद को बचना है तो यह दिखाना होगा कि वह सभी के हक़ में काम कर रहा है। उनके विचारों की जीत ने, दूसरे विश्व युद्घ के बाद के दशकों में, पश्चिमी पूंजीवाद की सफलता के लिए मंच तैयार किया था। तब की ही तरह अब भी, पूंजीवाद के स्थानापन्न की ज़रूरत नहीं है, हालांकि उसकी मरम्मत करने की ज़रूरत हो सकती है।’ हालांकि यह संपादकीय, महामारी के दौरान शासन के बहुत भारी हस्तक्षेप के विशेष संदर्भ में लिखा गया है, फिर भी इसके वृहत्तर निहितार्थ स्वत:स्पष्ट हैं। विश्व पूंजीवाद आज उसी तरह से अपने अंधे छोर पर पहुंच चुका है, जैसे 1930 के दशक में पहुंच गया था।
लेकिन वर्तमान पूंजीवाद में किसी भी बदलाव के लिए, जिसमें युद्घोत्तर दौर के तथाकथित 'कल्याणकारी पूंजीवाद’ का पुनर्जीवन तक शामिल है, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के फंदे को ढीला करना पड़ेगा और इसलिए, ऐसे किसी भी बदलाव को वित्तीय पूंजी की ओर से कड़े विरोध का सामना करना पड़ेगा। इस तरह के बदलाव की ज़रूरत पूंजीवादी चिंतकों की नज़रों में एकदम स्पष्ट होने का भी अर्थ यह नहीं है कि वित्तीय पूंजी, उसे जो वर्चस्व इस समय हासिल है, उसका स्वेच्छा से त्याग कर देगी। वास्तव में, 1930 के दशक का इतिहास ख़ुद ही इस बात की गवाही देता है।
केन्स ने तो मंदी की मारी ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में रोज़गार को बढ़ावा देने के लिए शासन के हस्तक्षेप की वकालत करना 1929 में ही शुरू कर दिया था। लेकिन 1929 की उनकी यह पुकार, कि रोज़गार पैदा करने के लिए राजकोषीय घाटे से वित्त पोषण करते हुए सार्वजनिक काम कराये जायें, जिसे लिबरल पार्टी के नेता लॉयड जार्ज के ज़रिये उठाया गया था, अनसुनी ही कर दी गयी थी। केन्स इसी पार्टी से जुड़े हुए थे। इस पुकार का विरोध इस सरासर खोखली दलील के ज़रिये किया गया था, जो इन दिनों में भी हमें काफ़ी सुनायी देती है कि, राजकोषीय घाटा कोई अतिरिक्त रोज़गार तो पैदा करता नहीं है, बस निजी निवेश को 'बाहर धकिया देता’ है। केन्स ने इस दलील का खंडन किया था और 1936 के अपने महाग्रंथ में उन्होंने अपने रुख़ के सैद्घांतिक आधार को स्पष्ट किया था। लेकिन, इसका भी कोई असर नहीं हुआ। 1930 के पूरे दशक के दौरान उनकी इस मांग को पूरी तरह से अनदेखा ही किया जाता रहा था कि रोज़गार बढ़ाने के लिए ब्रिटेन में शासन की ओर से हस्तक्षेप किया जाना चाहिए।
इसी प्रकार, रुज़वेल्ट की न्यू डील जब अमरीका की बेरोज़गारी की दर घटाने में कामयाब हो गयी, उसके बाद अमरीकी वित्तीय पूंजी ने रुज़वेल्ट पर दबाव डालकर उसे इससे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इससे तुरंत ही 1937 में अमरीका में एक और मंदी भड़क उठी। यह देश महामंदी से आख़िरकार तभी उबर पाया जब दूसरे विश्वयुद्घ की पूर्व-संध्या में उसने ख़ुद को हथियारबंद करना शुरू कर दिया।
आम बेरोज़गारी पर क़ाबू पाने के लिए, सकल मांग को बढ़ाने का विचार सरकारी नीति के तौर पर तो विश्वयुद्घ के बाद ही स्वीकार किया जा सका, जब विकसित देशों में मज़दूर वर्ग का वज़न पहले की तुलना में काफ़ी बढ़ गया। ब्रिटेन के युद्घोत्तर चुनावों में लेबर पार्टी की जीत और फ्रांस तथा इटली में कम्युनिस्टों की ताक़त में भारी बढ़ोतरी, इसी के संकेतक थे। और दूसरी ओर, लाल सेना पश्चिमी योरप के दरवाज़े तक पहुंच चुकी थी और 'कम्युनिस्ट सत्ता अधिग्रहण’ की आशंकाएं जतायी जाने लगी थीं। अंतत: इस परिस्थिति-संयोग ने ही वित्तीय पूंजी को ऐसी रियायतें देने के लिए मजबूर किया था, जो वह इससे पहले तक देने के लिए तैयार ही नहीं थी।
दूसरे शब्दों में, जब प्रमुख पूंजीवाद-समर्थक चिंतक तक ये रियायतें देना ख़ुद पूंजीवादी व्यवस्था की सलामती के लिए ज़रूरी मानते हों, तब भी वित्तीय पूंजी स्वेच्छा से ऐसी रियायतें देने के लिए तैयार नहीं होती है। यह सोचना कि ऐसा नहीं होगा, उसी जाल में फंसना होगा, जिसमें फंसकर केन्स ने यह ख़ुशफ़हमी पाल ली थी कि दुनिया पर विचार ही राज करते हैं और इसलिए 'सही विचार’ (जैसे कि उसके विचार) वक्त़ के साथ ख़ुद ब ख़ुद ज़ोर पकड़ ही लेंगे। उल्टे दुनिया किस रास्ते पर जायेगी, इसका फ़ैसला अंतत: वास्तविक ज़िंदगी के वर्ग संघर्ष से होता है, जिसके पीछे बेशक विचारों का आधार भी रहता है।

मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक किरदार
इसलिए, समकालीन पूंजीवाद को पिछले दौर के तथाकथित 'कल्याणकारी पूंजीवाद’ की दिशा में मोड़ने के लिए भी, यह बहुत ही ज़रूरी होगा कि मज़दूर वर्ग ऐसे एजेंडा के लिए संघर्ष करे। लेकिन, जब मज़दूर वर्ग ऐसा करेगा और जब अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी ऐसे एजेंडा का प्रतिरोध कर रही होगी, हम वर्ग संघर्ष के बीचों-बीच होंगे। अब यह तो समय ही बतायेगा कि यह संघर्ष सिर्फ़ 'कल्याणकारी पूंजीवाद’ का पुनर्जीवन हासिल करने तक सीमित रहता है या फिर पूंजीवाद को ही लांघकर, समाजवादी विकल्प की ओर बढ़ जायेगा। एक बार जब व्यवस्था के वर्तमान रूप को बदलने के लिए वर्गीय संघर्ष गति पकड़ लेता है, इस संघर्ष का नतीजा अमल पर निर्भर करता है और कोई ज़रूरी नहीं है कि यह नतीजा मौजूदा व्यवस्था के ही दायरे में कैद रहे।
बहरहाल, भारत की सत्ताधारी ताक़त इस वैश्विक परिस्थति संयोग की तरफ़ से पूरी तरह से अनजान ही बनी हुई है। नवउदारवाद का अंधे छोर पर पहुंच जाना, जो विकसित दुनिया के पूंजीवादी चिंतकों तक को दिखायी दे रहा है, हमारी हिंदुत्व पलटन को दिखायी ही नहीं दे रहा है। न सिर्फ़ इतना कि मोदी सरकार अब भी आम तौर पर नवउदारवादी एजेंडा के साथ ख़ुद को बांधे हुए है, बल्कि वह तो वर्तमान महामारी तथा उस पर अपनी विचारहीन प्रतिक्रिया के चलते फूट पड़े भारी मानवतावादी संकट के बीच भी, इस एजेंडा से टस से मस नहीं हुई है।
भारत सरकार के इस रुख़ और योरपीय सरकारों के रुख़ के बीच के भारी अंतर को, फाइनेंशियल टाइम्स के 8 मई के संपादकीय में जो कहा गया है, उससे देखा जा सकता है: 'कम्युनिस्ट क्रांति से कम में इसकी कल्पना करना मुश्किल था कि कैसे सरकारें इतनी तीव्र गति से तथा इतनी गहराई से श्रम के, ऋण के, मालों व सेवाओं के विनिमय के निजी बाज़ारों में हस्तक्षेप कर सकती थीं, जैसे लॉकडाउनों के पिछले दो महीनों में किया है। रातों-रात निजी क्षेत्र के करोड़ों कर्मचारियों को सार्वजनिक बजट से अपने वेतन के चैक मिलने लगे हैं और केद्रीय बैंकों ने वित्तीय बाज़ारों को इलैक्ट्रोनिक धन से पाट दिया है।’
इसके विपरीत भारत में, सरकारी बजट से निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को वेतन दिया जाना तो दूर रहा, सरकार ने करोड़ों मेहनतकशों को, जिनमें 14 करोड़ प्रवासी मजदूर शामिल हैं (जिनमें करीब 10 करोड़ अंतरराज्यीय प्रवासी हैं), उनकी आमदनियों, रोज़गारों तथा रिहाइशों से ही महरूम कर दिया है और उन्हें इसके मुआवज़े में एक पैसा नहीं दिया है। बेशक, यह एक हद तक मोदी सरकार की घोर अमानवीयता का नतीजा है। लेकिन, एक हद तक यह वित्तीय पूंजी के आगे उसकी घोर कायरता का भी नतीजा है, जिसे वह नागरिक स्वतंत्रताओं व जनतांत्रिक अधिकारों को नकारने के ज़रिये और जनता को बांटने के लिए सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के ज़रिये, चलाते रहना चाहती है।
लेकिन, 'पिछले चार दशक’ से जिस रास्ते पर चला जा रहा है उसी पर चलते रहने और नवउदारवाद के अंधे छोर पर पहुंच गये होने को नहीं पहचानने का मतलब, उसी अंधे छोर पर फंसे रहना भी तो है। और इसका मतलब होगा, और ज़्यादा तानाशाहीपूर्ण-फ़ासीवादी क़दमों और सांप्रदायिक बंटवारे की और भी घृणित कोशिशों का सहारा लिया जाना। मेहतनकश जनता को इस समूचे खेल के ख़िलाफ़ लड़ना होगा और नवउदारवाद के अंधे छोर से आगे बढ़ने का रास्ता दिखाना होगा।   
मो0 9953057998                                                                             
प्रस्तुति : संजीव कुमार
मो0 9818577833


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