सिनेमा में साहित्य की ख़ुशबू ...
नलिन विकास
भारतीय कला, साहित्य और राजनीति की तरह हिंदी सिनेमा की विकास यात्रा में भी आज़ादी एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। आरंभ से ही हिंदी सिनेमा और गीत-संगीत का चोली-दामन का साथ रहा है। ऐसे में हिंदी फ़िल्मी गीतों के सफ़र का जायज़ा लेने के लिए उन गीतकारों का अध्ययन ज़रूरी हो जाता है जिन्होंने आज़ादी के पहले गीत लेखन की शुरुआत की और आज़ादी के बाद भी वर्षों तक अपनी क़लम से फ़िल्म जगत को एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत गीत भेंट करते रहे।
कवि-गीतकार-ग़ज़लकार कांतिमोहन सोज़ की पुस्तक, आज़ादी से पहले फ़िल्मी गीत और गीतकार हिंदी सिनेमा के आरंभिक दौर के ऐसे ही महत्वपूर्ण गीतकारों के योगदान को रेखांकित करती है। लगभग साढ़े तीन सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल नौ अध्याय हैं । लेखक ने 1931 से 1943 तक के कालखंड को ‘फ़िल्मी गीत का आदिकाल’ मानते हुए इसी नाम से पहले अध्याय का शीर्षक रखा है। इस अध्याय में शामिल चार प्रमुख गीतकारों, पंडित नारायणप्रसाद बेताब, पंडित सुदर्शन, आग़ा हश्र कश्मीरी और पंडित नरोत्तम व्यास को लेखक ने हिंदी फ़िल्मों के आदिकाल के ‘वृहत चतुष्ठ’ की संज्ञा दी है क्योंकि हिंदी फ़िल्मों में गीत का महत्व निर्धारित करने और उसकी भाषा के निर्माण में इनकी निर्णायक भूमिका रही। फ़िल्म निर्माण में गीतकार की अहमियत को इन्होंने महसूस कराया जिसके चलते आने वाले गीतकारों का काम सम्मानजनक और सुगम हो गया।
पुस्तक के अगले हिस्से में केदार शर्मा, आरज़ू लखनवी, फ़ैयाज़ हाशमी, दीनानाथ मधोक, कमर जलालाबादी, कवि प्रदीप और नरेंद्र शर्मा पर अलग से अध्याय दिये गये हैं । अंतिम अध्याय में पंडित इंद्र, पंडित भूषण, ज़िया सरहदी, पी एल संतोषी, सफ़दर आह सीतापुरी, बहज़ाद लखनवी, हरिकृष्ण प्रेमी, अमृतलाल नागर, राजेंद्र कृष्ण, भरत व्यास सहित अन्य गीतकारों पर संक्षिप्त और सारगर्भित टिप्पणियां की गयी हैं।
यों तो लेखक ने उस दौर के सभी प्रमुख गीतकारों की कमोबेश विस्तृत विवेचना की है, पर पुस्तक के केंद्र में पंडित नरेंद्र शर्मा हैं। दरअसल, एक गीतकार के रूप में नरेंद्र शर्मा के विकास का अध्ययन और उनके योगदान का वस्तुगत मूल्यांकन करने के लिए वे आदिकाल के सभी प्रमुख फ़िल्मी गीतकारों का भी अध्ययन ज़रूरी समझते हैं। अकारण नहीं है कि पुस्तक में सबसे अधिक 81 पृष्ठ की सामग्री नरेंद्र शर्मा पर दी गयी है। नरेंद्र शर्मा को प्रमुखता देने का कारण बताते हुए लेखक ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है, 'पूछा जा सकता है कि नरेंद्र शर्मा ही क्यों? क्या वे फ़िल्मों के सर्वश्रेष्ठ गीतकार हैं ? क्या उन्होंने कोई ऐसा कारनामा अंजाम दिया है जो उनसे पहले या उनके बाद किसी और के लिए नामुमकिन रहा हो ?'
हालांकि सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी गीतकार के रूप में वे नरेंद्र शर्मा के स्थान पर केदार शर्मा को तरजीह देते हैं, पर नरेंद्र शर्मा के भाषिक योगदान को बेहद अहम मानते हैं। वे लिखते हैं : 'नरेंद्र शर्मा का कारनामा मैं यह मानता हूं कि उन्होंने अपने गीतों से यह साबित कर दिखाया कि उर्दू की तरह हिंदी में भी, बोलचाल की हिंदी के साथ-साथ शुद्ध साहित्यिक हिंदी में भी, सरस और भावपूर्ण गीतों की रचना संभव है और ये गीत अगर अच्छे होंगे तो लोकप्रियता में भी किसी से पीछे नहीं रहेंगे। हिंदी फ़िल्मों में उनसे पहले भी गीत थे। पंडित सुदर्शन और नरोत्तम व्यास हिंदी में ही लिखते थे, लेकिन उनकी भाषा को शुद्ध और साहित्यिक हिंदी नहीं कहा जा सकता।... नरेंद्र शर्मा पहले प्रतिष्ठित साहित्यिक कवि थे जिन्होंने फि़ल्मी गीत को अपनाया और अपनाये रहे। उन्होंने उसे साहित्यिक गरिमा और दीर्घजीविता प्रदान की। उर्दू की शानदार विरासत उसके पास पहले से ही थी, नरेंद्र शर्मा ने उसे हिंदी की चमकदार विरासत से भी मालामाल कर दिया।'
नरेंद्र शर्मा को केंद्र में रखने के पीछे लेखक ने एक और कारण गिनाया है। पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं :'नरेंद्र शर्मा इसलिए भी कि वो एक मात्र ऐसे गीतकार थे जिन्हें मैं जानता था और किसी क़दर नज़दीक से जानता था। मेरे मन पर उनके व्यक्तित्व की प्रिय छाप अंकित है और उनका नाम आते ही अनेक मधुर स्मृतियां ताज़ा हो जाती हैं। वो मेरे इलाक़े के थे इसलिए मैं उनसे अपेक्षाकृत अधिक निकटता अनुभव करता हूं...'
नरेंद्र शर्मा से इस निकटता के बावजूद यह कहना पड़ेगा कि उनके विश्लेषण और मूल्यांकन में लेखक ने काफ़ी हद तक वस्तुनिष्ठता का निर्वाह किया है। इस पुस्तक के निम्नलिखित उद्धरणों में इसकी बानगी देखी जा सकती है :
1. '...अगर जवाब देने की मजबूरी हो तो सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी गीतकार के स्थान पर मेरे मुंह से नरेंद्र शर्मा का नहीं, केदार शर्मा का नाम निकलेगा।'
2. 'साहिर की अदबी और फ़िल्मी शायरी में कोई भेद नहीं है। दोनों ही रूपों में शायरी उनकी प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और जनवादी विचारधारा की वाहक है। फ़िल्म और अदब को एक दूसरे के नज़दीक लाने का जैसा भागीरथ प्रयत्न साहिर ने किया, वैसा नरेंद्र शर्मा सहित किसी भी गीतकार ने नहीं किया।'
3. 'नरेंद्र शर्मा प्रगतिवादी और कम्युनिस्टों के घनिष्ठ मित्र होते हुए भी गहन आध्यात्मिकता और धार्मिकता वाले व्यक्ति माने जाते थे, हालांकि धार्मिकता को व्यक्तिगत दायरे में ही रखने के कारण वो आधुनिकों या प्रगतिशीलों के लिए समस्या उत्पन्न नहीं करते थे। फिर, फ़िल्मी लेखन से उनकी रोज़ी-रोटी भी नहीं चलती थी, इसलिए उनकी मजबूरियां भी कम थीं। '
लेखक के अनुसार नरेंद्र शर्मा को अपनी भाषा अचानक या अनायास नहीं मिल गयी थी। उसे पाने के लिए उन्हें और उनसे पहले की पूरी पीढ़ी को संघर्ष करना पड़ा। नरेंद्र शर्मा को विरसे में जो भाषा मिली उसके निर्माण में आरज़ू लखनवी, केदार शर्मा, फ़ैयाज़ हाशमी, दीनानाथ मधोक, प्रदीप, ज़िया सरहदी, सफ़दर आह, कमर जलालाबादी, पंडित इंद्र, पंडित भूषण जैसे गीतकारों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
हिंदी फ़िल्मों के आदिकाल के ‘वृहत चतुष्ठ’ के पश्चात केदार शर्मा, आरज़ू लखनवी और दीनानाथ मधोक के रूप में श्रेष्ठ गीतकारों की एक ‘बृहत्रयी’ की चर्चा करते हुए कांतिमोहन सोज़ लिखते हैं कि 'जिसे हम हिंदी फ़िल्म की ज़बान कहते हैं वो मुख्यतः इस बृहत्रयी के योगदान के कारण ही अस्तित्व में आयी, पुस्तक में आरज़ू लखनवी को एक ऐसे गीतकार और उर्दू के अदीब के रूप में याद किया गया है जिसने उर्दू पर अरबी-फ़ारसी लादे जाने का एलानिया विरोध किया और उर्दू के अदीबों से हिंदी और उसकी बोलियों से निकटता क़ायम करने और आदान-प्रदान करने की वकालत की। केदार शर्मा की बहुआयामी प्रतिभा के विश्लेषण के क्रम में लेखक ने उनकी गीत भाषा के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए लिखा है, 'बोलचाल की भाषा और सादगी पर इसरार होने के नाते उनके गीतों में उक्ति विचित्रता या वचन-विदग्धता शायद कम मिले लेकिन दिल की भावनाओं को व्यक्त करना और सुननेवाले तक संवेदित करना ही अगर गीत का अभिप्रेत हो तो शर्मा जी की भाषा-शैली को आदर्श कहा जायेगा। '
फ़ैयाज़ हाशमी का नाम अपने युग के सबसे प्रतिभाशाली गीतकारों में शुमार किया जाता था। अपने फ़िल्मी गीतों के साथ-साथ अपने ग़ैरफ़िल्मी गीतों के लिए भी वे मशहूर थे। उस ज़माने का बेहद चर्चित गीत, ‘ये रात ये मौसम ये हंसना हंसाना मुझे भूल जाना इन्हें ना भुलाना’ फ़ैयाज़ हाशमी ने ही लिखा है । लेखक के अनुसार यह फ़ैयाज़ हाशमी या पंकज मल्लिक का नहीं, बल्कि हिंदी का सर्वश्रेष्ठ गीत कहलाने का हक़दार है और हिंदी के पुराने गीतों में यह सबसे आधुनिक है। पुस्तक से यह भी जानकारी मिलती है कि फ़रीदा ख़ानम की आवाज़ में गायी ख़ूबसूरत ग़ज़ल, ‘आज जाने की ज़िद न करो' ही नहीं मेहदी हसन की आवाज़ में मक़बूल हुई ग़ज़ल, ‘हमें कोई ग़म नहीं था ग़मे-आशिक़ी से पहले’ हाशमी साहब की जादुई कलम से निकली है।
पुस्तक में उस दौर के अन्य प्रमुख गीतकार दीनानाथ मधोक के योगदान पर विस्तार से चर्चा की गयी है। मधोक की प्रतिभा बहुमुखी थी। गीतकार के साथ-साथ वे कहानी, पटकथा, संवाद और निर्देशन में सिद्धहस्त थे तथा ज़रूरत पड़ने पर अभिनय भी कर लिया करते थे। साहित्यिक संस्कार की दृष्टि से कमज़ोर होने के बावजूद लोक संगीत से उनका गहरा जुड़ाव था। लेखक ने उनके प्रकृति चित्रण पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि, 'उनके गीत बादल, घटा, बदरिया, पपीहा, कोयल, चकोर या चकोरा, चातक, फूल, चांद, तारे, नदी, लहर, तितली, उपवन, रिमझिम, रौशनी आदि से पटे पड़े हैं और फिर भी वो इनके जोड़-घटाने से एक मधुर और लोकप्रिय गीत निकाल लाते थे। मधोक से पहले हिंदी फ़िल्मों के गीतों में ऐसा प्रकृति-चित्रण विरल है। उनके यहां प्रकृति मानवीय भावनाओं को उभारने के लिए ही इस्तेमाल नहीं की जाती बल्कि उसकी स्वतंत्र सत्ता भी है।'
एक संगीत निर्देशक के रूप में नौशाद को प्रतिष्ठित करने में मधोक द्वारा 1940 में निर्मित फ़िल्म, प्रेमनगर की भूमिका को अहम मानते हुए कांतिमोहन लिखते हैं , ' यह एक विरल घटना थी जबकि एक गीतकार ने एक संगीत निर्देशक को गुमनामी के अंधेरे से निकाल कर जगमगाते मंच पर प्रमुखता से उभार दिया।' लेखक ने संगीत के क्षेत्र में नौशाद के अमूल्य योगदान को याद करते हुए लिखा है कि 'उन्होंने शास्त्रीय संगीत से फ़िल्मी संगीत को लोकसंगीत की ओर उन्मुख कर दिया और फिर भी शास्त्रीय संगीत की मज़बूत डोर को नहीं छोड़ा। वो लगातार ऐसे गीत-रत्नों को सामने लाते रहे जिनमें से कुछ शास्त्रीय रागों पर आधारित थे और कुछ दूसरे लोकसंगीत की चाशनी में पगे हुए थे।'
लेखक ने कवि प्रदीप को हिंदी सिनेमा का ऐसा पहला गीतकार बताया है जिन्होंने सिनेमा जैसे घोर व्यावसायिक, ग़ैर-लचीले और अंधविश्वास के शिकार माध्यम में अपने विचारों और विश्वासों के लिए गुंजाइश पैदा की। वे लिखते हैं, 'प्रदीप ने जो छोटी सी और कच्ची-पक्की पगडंडी निकाली थी उसे आगे चलकर इप्टा से आये गीतकारों ने चौड़ा करके राजपथ में परिणत कर दिखाया। इसका उत्कर्ष हमें साहिर लुधियानवी में मिलता है।'
अंतिम अध्याय में फुटकर गीतकारों के बारे में चर्चा करते हुए लेखक ने भारतीय समाज और संस्कृति पर हिंदी फ़िल्मों के प्रभाव पर बेहद मानीखेज़ टिप्पणी की है। कांतिमोहन लिखते हैं, 'कश्मीर से बिहार तक के विराट हिंदी प्रदेश का प्रतिनिधित्व करनेवाले गीतकार हमारी फ़िल्मों को अपना-अपना योगदान कर रहे थे। एक तरह से गीत की यह नन्ही दुनिया हमारी दो प्रमुख भाषाओं हिंदी और उर्दू और उनकी बीसों बोलियों के उत्तमांश से मालामाल हो रही थी। फि़ल्मी गीत, दरअसल, हमारी गंगा-जमनी तहज़ीब का सबसे सच्चा नुमाइंदा है। इस देश की बहुवर्णी और बहुरूपी संस्कृति अपनी पूरी भव्यता और संपन्नता के साथ हमारे फ़िल्मांगन में ही अवतरित होती है।'
उक्त के आधार पर कहा जा सकता है कांतिमोहन सोज़ ने बड़े मनोयोग से हिंदुस्तानी सिनेमा के आरंभिक दौर के तमाम फ़िल्मी गीतकारों और उनके गीतों के बारे में गंभीर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। किसी एक गीतकार पर बात करते हुए वे उसके गीतों के साथ अन्य समकालीन गीतकारों के गीतों की भी तुलना करते चलते हैं। अपनी विवेचना में लेखक ने गीत के तकनीकी पहलुओं, युगीन प्रवृत्तियों और संबंधित फ़िल्म के निर्देशक, गायक और संगीतकार की ख़ूबियों और ख़ामियों को भी शामिल किया है। पारसी थियेटर और फ़िल्म निर्माण कंपनियों की कार्य प्रणाली के बारे में पुस्तक में अनेक रोचक और नयी जानकारी मिलती है। पुस्तक की भाषा में एक ख़ास क़िस्म का लालित्य है जिसमें हिंदी और उर्दू की सहज और ख़ूबसूरत जुगलबंदी दिखायी देती है।
फ़िल्मी गीतों और गीतकारों के बारे में पुस्तकों, पत्रिकाओं और इंटरनेट पर बिखरी पुष्ट-अपुष्ट सामग्री की समुचित पड़ताल के पश्चात उन्हें एक जगह एकत्र करके पाठकों को उपलब्ध कराना अपने आप में एक श्रमसाध्य कार्य है। कहना न होगा कि कांतिमोहन सोज़ ने विविध स्रोतों के इस्तेमाल में पूर्वग्रहरहित शोधपरक दृष्टि अपनाते हुए इस चुनौतीपूर्ण काम को बख़ूबी अंजाम दिया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिंदुस्तानी सिनेमा के गीतों के सम्यक विकास को समझने के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। फ़िल्म अध्ययन से जुड़े छात्रों, अध्येताओं, संगीत प्रेमियों और ख़ासकर हिंदुस्तानी सिनेमा में रुचि रखने वालों को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए।
यहां हम हिंदी फ़िल्मी गीतों पर दो और किताबों, धरती कहे पुकार के - गीतकार शैलेंद्र और गीतकार शैलेंद्र ….तू प्यार का सागर है की चर्चा करेंगे। इंद्रजीत सिंह द्वारा संपादित दोनों ही पुस्तकें क्रांतिकारी कवि और फ़िल्म जगत के विलक्षण गीतकार शैलेंद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व के विविध पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डालती हैं। शैलेंद्र पर इससे पहले इंद्रजीत सिंह ने, जनकवि शैलेंद्र नामक पुस्तक संपादित की है जो शैलेंद्र के प्रति उनके प्यार और जुनून की परिचायक है।
शैलेंद्र आम आदमी के कवि थे। जन साधारण की पीड़ा को केंद्र में रखकर उन्होंने अनेक मर्मस्पर्शी कविताएं लिखीं । अदम्य आशा और जिजीविषा से भरे इस महान गीतकार के गीतों में भावों और विचारों का अद्भुत सामंजस्य दिखायी देता है। ज़िंदगी के फ़लसफ़े से भरे उनके फ़िल्मी गीतों में साहित्य की ख़ुशबू है। गूढ़ बातों को सरलता और सहजता के साथ व्यक्त करने की कला में वे लासानी हैं। अपने 17 साल के फ़िल्मी सफ़र में शैलेंद्र ने लगभग 800 गीत लिखे। उनकी कविताएं और ग़ैरफ़िल्मी गीत, न्यौता और चुनौती तथा अंदर की आग पुस्तक में संकलित हैं। इन कविताओं और गीतों में किसानों, मज़दूरों, महिलाओं, बच्चों और देश की माटी के प्रति गहरा लगाव दिखायी देता है। ‘हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है' और 'तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यक़ीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर' जैसी अमर पंक्तियां शैलेंद्र की ही लिखी हुई हैं। दशकों से जन आंदोलनों में नारे के रूप में इनका इस्तेमाल होता रहा है। उनके दर्जनों फ़िल्मी गीत आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं और सुख-दुःख में लोग इन्हें गाते-गुनगुनाते हैं। कबीर और तुलसी की तरह उनके गीतों की पंक्तियां लोकोक्ति का रूप ले चुकी हैं।
बंबई में रेलवे की नौकरी करते हुए वे प्रलेस और इप्टा से जुड़े थे। इप्टा के एक कवि सम्मेलन में राजकपूर ने उन्हें सुना और वे उनसे इतने प्रभावित हुए कि अपनी फ़िल्म, आग के लिए उनसे गीत लिखने का अनुरोध किया। हालांकि तब शैलेंद्र ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था, लेकिन बाद में आर्थिक तंगी के कारण वे राज कपूर की टीम में शामिल हो गये और फ़िल्म, बरसात से अपना शानदार फ़िल्मी सफ़र शुरू किया। एक जनवादी और क्रांतिकारी गीतकार से कामयाब फ़िल्मी गीतकार बनने की कहानी अपने आप में एक मिसाल है। राज कपूर की टीम में रहते हुए शैलेंद्र ने गीतकार हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और संगीतकार शंकर-जय किशन के साथ मिलकर फ़िल्म जगत को बेशुमार यादगार गीत दिये । शंकर-जय किशन के अलावा उन्होंने एस. डी. बर्मन, सलिल चौधरी, रोशन व अनिल विश्वास जैसे प्रमुख संगीतकारों के साथ भी काम किया। ‘ये मेरा दीवानापन है’ (यहूदी-1958), ‘सब कुछ सीखा हमने’ (अनाड़ी-1959) व ‘मैं गाऊं तुम सो जाओ’ (ब्रह्मचारी-1967) के लिए उन्हें तीन बार फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड से नवाज़ा गया।
धरती कहे पुकार के…गीतकार शैलेंद्र तीन सौ तैंतालीस पृष्ठ की पुस्तक है जिसमें रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, त्रिलोचन, फणीश्वरनाथ रेणु, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, राजेंद्र अवस्थी, असग़र वजाहत, मैनेजर पांडेय, नरेश सक्सेना, लीलाधर जगूड़ी, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, आचार्य विष्णुदत्त राकेश, प्रह्लाद अग्रवाल, अजय तिवारी, शरद दत्त, अरविंद कुमार, भारत यायावर, राज कपूर, मन्ना डे, बासु चटर्जी, विजय आनंद, गोपाल दास नीरज, गुलज़ार, गुलशन बावरा, हसरत जयपुरी, निदा फ़ाज़ली, योगेश, इरशाद कामिल जैसे कवियों, गीतकारों, लेखकों, आलोचकों के साथ-साथ शैलेंद्र के दोस्तों और परिजनों के लेख और संस्मरण शामिल किये गये हैं।
पुस्तक में संकलित, 'कोई अब तलक प्यार करता है...' नामक संस्मरण में पति को याद करते हुए शकुंतला शैलेंद्र लिखती हैं,, मन की अंधियारी सतहों पर एकाएक यादों के सौ-सौ मोती झिलमिलाने लगते हैं। विछोह पर बना कुहासा धीमे-धीमे छंटने लगता है और हंसता मुस्कुराता अतीत मुझे अपने आप में समेट लेता है। स्वर्गीय पति की यादों के मेले जैसे इर्द गिर्द जुड़ने लगते हैं और अगणित फूलों की महक मेरी सांसों में समा उठती है। फिर मादक रस में डूबी हुई उनकी गुनगुनाहट पल प्रतिपल मन प्राणों को दुलराने लगती है- मैं तो तुम्हारे पास हूं शकुन। भले ही दुनिया के लिए मर गया हूं, पर तुम्हारे लिए तो हमेशा जीवित रहूंगा...' बेटे मनोज शंकर शैलेंद्र और दिनेश शंकर शैलेंद्र तथा बेटी अमला शैलेंद्र मजुमदार ने अपने संस्मरण के माध्यम से पिता से जुड़ी यादों को साझा किया है। ये पारिवारिक संस्मरण बेहद मार्मिक हैं। निजी होने के बावजूद एक कवि-गीतकार की आंतरिक दुनिया को समझने में ऐसे प्रसंग मददगार हैं।
'खुद की नज़र में शैलेंद्र', पुस्तक का आरंभिक, पर सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है। इसके तहत शैलेंद्र का एक पत्र और, ‘मैं, मेरा कवि और मेरे गीत’ नाम से उनका आत्मकथ्य प्रस्तुत किया गया है जो धर्मयुग के मई 1961 के अंक में छपा था। शैलेंद्र सही मायने में जनता के कवि थे, और इसलिए जनता की पसंद-नापसंद को सर्वोपरि मानते थे। वे लिखते हैं, 'कलाकार कोई आसमान से टपका हुआ जीव नहीं है, बल्कि साधारण इंसान है, यदि वह साधारण इंसान नहीं, तो जनसाधारण के मनमानस के दुःख-सुख को कैसे समझेगा और उसकी अभिव्यक्ति कैसे करेगा? '
इस लेख में वे फ़िल्म-गीत लेखन की तकनीक के बारे में बेहद महत्वपूर्ण बात कहते हैं, 'फ़िल्म-गीत लिखना अधिकतर बहुत आसान समझा जाता है। सीधे-सादे शब्द, घिसी-पिटी तुकें, कहा जाता है कि फ़िल्म-गीत और है क्या? मेरा अनुभव कुछ और है। फ़िल्म-गीत-रचना मेरी समझ से एक विशेष कला है, चूंकि हमारी फ़िल्में शत प्रतिशत गीत प्रधान होती हैं, गीत उनमें होते ही हैं, इसलिए गीत जैसे पात्रों के संवाद का काम करते हैं, अन्यथा गीत कहानी को रोकेगा और ठूंसा हुआ मालूम होगा। इसलिए भावना और शब्दों का चुनाव कहानी के अनुसार बड़ी सावधानी से करना होता है।'
फ़िल्मी दुनिया के इतिहास में कम ऐसे गीतकार हुए हैं जो गीत पहले लिखते थे और उसका संगीत बाद में बनता था। साहिर लुधियानवी अपवाद कहे जा सकते हैं जो धुन पर नहीं लिखते थे। अक्सर इसे गीतकारों पर ज़्यादती और उनकी पेशेवर स्वतंत्रता में बाधा के रूप में देखा जाता है। शैलेंद्र की राय इस मामले में संतुलित और सुलझी हुई है। वे लिखते हैं, 'गीत पहले लिखा जाये या धुन पर गीत लिखा जाये, इस सवाल को लेकर काफ़ी कुछ लिखा गया है। बहुत-से लोगों का मत है कि धुन पर लिखा गीत बढ़िया नहीं होता, मैं ऐसा नहीं मानता। मेरा ख़याल है कि यदि गीतकार को संगीत की थोड़ी बहुत समझ है तो वह धुन पर अच्छा गीत लिखेगा-नये नये छंद उसे मिलेंगे और दूसरी ओर यदि संगीतकार को काव्य की थोड़ी बहुत समझ है तो वह लिखे हुए गीत पर बढ़िया धुन बनायेगा, शब्दों और भावनाओं को फूल की तरह खिलाता हुआ।' रचनात्मक पतन के लिए जनता को ज़िम्मेदार ठहराने के बजाय वे लेखक को अपनी लेखनी में शक्ति पैदा करने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार 'जनता को सस्ती रुचि का समझने वाले कलाकार या तो जनता को नहीं समझते या अच्छा और ख़ूबसूरत पैदा करने की क्षमता उनमें नहीं है। हां, वह अच्छा मेरी नज़रों में बेकार है, जिसे केवल गिने-चुने लोग ही समझ सकते हैं।'
शैलेंद्र को 'इश्क़, इंक़लाब और इंसानियत का कवि-गीतकार' मानते हुए इस पुस्तक की भूमिका में इंद्रजीत सिंह ने लिखा है कि 'कथा जगत में जो स्थान प्रेमचंद का है, फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में जो हैसियत सत्यजीत रे की है, गायन के संसार में जो प्रतिष्ठा लता मंगेशकर की है, आलोचना की दुनिया में जो रुतबा रामविलास शर्मा और नामवर सिंह का है, संस्कृत साहित्य में जो सम्मान कालिदास का है, फ़िल्म गीत लेखन की दुनिया में वही मुक़ाम गीतकार शैलेंद्र का है।'
शैलेंद्र शृंखला के तहत इंद्रजीत सिंह द्वारा संपादित एक और पुस्तक, 'गीतकार शैलेंद्र : तू प्यार का सागर है नाम से इसी वर्ष प्रकाशित हुई है। लगभग 200 पृष्ठों की इस किताब में विश्वनाथ त्रिपाठी, ऋतुराज, मुकेश, लीलाधर मंडलोई, रविभूषण, विट्ठल भाई पटेल, स्वयं प्रकाश, लाल बहादुर वर्मा, मनमोहन चड्ढ़ा, बाबू राम ‘इशारा’, कमलेश पांडेय, प्रसून जोशी, स्वानंद किरकिरे, यतींद्र मिश्र, बल्ली सिंह चीमा, डॉ. पुनीत बिसारिया, रमेश चौबे, ज़ाहिद ख़ान, डॉ. राजीव श्रीवास्तव, प्रदीप जिलवाने सहित साहित्य और सिनेमा से जुड़े कुल 34 लेखकों और कलाकारों के आलेख शामिल किये गये हैं। पुस्तक की भूमिका में लेखक ने शैलेंद्र को प्रगतिशील चेतना के एक ऐसे ‘अप्रतिम ऊर्जावान कवि-गीतकार’ के रूप में पेश किया है जिन्होंने मनुष्यता से लबरेज मानीखेज़, उदात्त जीवन मूल्यों से भरपूर गीत रचकर साहित्यिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया। ये लेख शैलेंद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व के बहुरंगी पक्ष को हमारे सामने लाते हैं।
इंद्रजीत सिंह द्वारा संपादित उक्त दोनों पुस्तकें शैलेंद्र के आरंभिक जीवन, संघर्ष और फ़िल्मी सफ़र से जुड़े अनेक अनछुए प्रसंगों को पाठकों के समक्ष लाती हैं। एक क्रांतिकारी कवि और गीतकार के रूप में शैलेंद्र के विचारों को जानने-समझने में इनका महत्व असंदिग्ध है। सिनेमा पर शोध कर रहे अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए तो यह एक ज़रूरी पुस्तक है ही, शैलेंद्र के चाहने वालों तथा साहित्य और सिनेमा में रुचि रखने वाले आम पाठकों के लिए भी ये पुस्तकें उपयोगी हैं। साहित्य और सिनेमा की अलग-अलग विधाओं से जुड़े नये-पुराने लेखकों के साथ-साथ शैलेंद्र के दोस्तों और परिवारजनों के आलेख और संस्मरण इन्हें संग्रहणीय बनाते हैं।
मो. 9717367329
पुस्तक संदर्भ
1. ज्योति कलश छलके...आज़ादी से पहले फ़िल्मी गीत और गीतकार : कांतिमोहन सोज़, एपीएन पब्लिकेशंस, नयी दिल्ली, 2015
2. धरती कहे पुकार के - गीतकार शैलेंद्र : इंद्रजीत सिंह (सं.), वी के ग्लोबल पब्लिकेशन प्रा. लि., फ़रीदाबाद, 2019
3.. गीतकार शैलेंद्र : तू प्यार का सागर है : इंद्रजीत सिंह (सं.) वी के ग्लोबल पब्लिकेशन प्रा. लि., फ़रीदाबाद, 2020
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