पर्यावरण

 दरकते पहाड़ों की अकथनीय व्यथा

विजय विशाल

  निस्संदेह हिमालय इस देश की सबसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपत्ति है। इसके विशाल पहाड़ विदेशी आक्रमणकारियों से न केवल हमारी रक्षा करते रहे हैं अपितु ये हमारे देश की महान जीवनदायिनी नदियों के स्रोत भी हैं। जैव विविधता का समृद्ध भंडार होने के साथ-साथ सदियों से ये पहाड़ आध्यात्मिक व पवित्र धर्मस्थलों के रूप में देश की संस्कृति का हिस्सा हैं। पारिस्थितिकी, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक व रणनीतिक रूप से हिमालय का स्थान भारत के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है।

इतना महत्वपूर्ण होते हुए भी आज हिमालय का यह क्षेत्र विकास के बहाने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के नाम पर खनन-माफ़िया व भू-माफ़िया के निशाने पर है। राज्य के रूप में उत्तराखंड हो या हिमाचल, परिणीति दोनों की एक-सी है। अभी 6 फ़रवरी को जिस समय उत्तराखंड में ग्लेशियर गिरने से भारी तबाही की ख़बर आ रही थी, उधर हिमाचल में निर्माणाधीन चंडीगढ़-मनाली फ़ोरलेन सड़क पर पहाड़ी से सरक कर भारी भरकम पत्थर कार के ऊपर गिरने से किसी की मृत्यु का ख़बर आ गयी। हालांकि दोनों दुर्घटनाएं अलग-अलग राज्यों में घटीं, मगर कारण एक ही रहा- पर्यावरणीय क्षति। विकास के नाम पर चलने वाली इन परियोजनाओं ने अब तक न जाने कितनी ज़िंदगियों को तबाह कर दिया है और आने वाले समय में यह गति ऐसी ही बनी रहेगी अगर हम अभी भी सचेत न हुए।

अभी तक सामने आये विवरणों से पता चलता है कि उत्तराखंड के चमोली हादसे में जो दो बिजली परियोजनाएं प्रभावित हुई हैं, वे उन 13 परियोजनाओं में से थीं, जिन पर पर्यावरणीय कारणों से रोक लगनी चाहिए थी। दरअसल, 2013 के केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में नयी बिजली परियोजनाओं पर रोक लगाने का आदेश देते हुए राज्य में चल रही व मंज़ूरीशुदा परियोजनाओं की विस्तृत रिपोर्ट मांगी थी। परंतु सात साल बीत जाने के बावजूद भी केंद्रीय जल संसाधन, पर्यावरण तथा ऊर्जा मंत्रालयों ने इस बारे में शीर्ष अदालत के सामने अभी तक अपना पक्ष ही नहीं रखा है। पर्यावरण के मुद्दे पर ऐसा रवैया बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। सीईईडब्ल्यू (काउंसिल ऑफ़ एनर्जी, इन्वायरर्नमेंट एंड वाटर) की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 1970 के बाद उत्तराखंड में बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने और ग्लेशियर टूटने के मामले चार गुणा बढ़े हैं। पिछले बीस साल में पचास हज़ार हैक्टेयर से अधिक हरित क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से बर्बाद हुआ है और 85 फ़ीसदी से अधिक ज़िलों पर बाढ़ का ख़तरा है। पर्यावरण विशेषज्ञ  उत्तराखंड में बिजली परियोजनाओं के ख़िलाफ़ सजग करते आये हैं, लेकिन विकास के नाम पर इनकी अनदेखी कर दी जाती है। लाज़मी तो यही है कि पर्यावरण के लिए ख़तरनाक साबित होती परियोजनाओं पर रोक लगायी जाये। पर जब केदारनाथ त्रासदी के बाद परियोजनाएं नहीं रुकीं, तो चमोली में हुई त्रासदी के बाद इन पर रोक लगाने की गारंटी कैसे मिलेगी।

इसी संदर्भ में उत्तराखंड में बारह हज़ार करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से तैयार होने वाली 900 किलोमीटर लंबी ’हर मौसम में खुली सड़क’ (ऑल व्हैदर रोड) परियोजना से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को भी समझना होगा। लोगों द्वारा इस परियोजना के विरोध के बाद सुप्रीम कोर्ट को विशेषज्ञों की एक समिति का गठन करना पड़ा जिसने कुछ महीने पहले इस परियोजना के कारण अब तक हो चुके नुक़सान को लेकर आठ सौ पेज की रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट को पढ़ना रोंगटे खड़े कर देने वाले अनुभव से गुज़रना है।

इसी तरह कुछ दिन पूर्व जब उच्चतम न्यायलय ने अपने एक निर्णय में हिमाचल प्रदेश में विकास योजनाओं के लिए कटने वाले पेड़ों के कटान पर प्रतिबंध जारी रखने का निर्णय दिया तो इसकी मिलीजुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले या पर्यावरणीय चिंताओं से सरोकार रखने वाले प्रसन्न नज़र आये तो विकास कार्य में लगे छोटे-बड़े ठेकेदारनुमा प्राणी आहत थे, हालांकि राज्य सरकार के आग्रह पर उच्चतम न्यायालय अपने इस फ़ैसले की पुनः समीक्षा के लिए तैयार हो गया था और मैरिट के आधार पर परियोजनाओं की समीक्षा करके कुछ दिशानिर्देश के साथ विकास कार्य को जारी रखने की मंज़ूरी भी दे दी है।

दरअसल, आधुनिक विकास की अवधारणा और पर्यावरण संरक्षण में टकराव का रिश्ता है या यों कहें, दोनों में छत्तीस का आंकड़ा है। विकास की नयी ऊंचाइयों को छूने के लिए और स्वस्थ जीवन के लिए समाज को दोनों की ही ज़रूरत रहती आयी है। नयी परियोजनाएं जहां समाज को आगे ले जाने में अपनी भूमिका निभाती हैं, वहीं रोज़गार के नए अवसर भी पैदा करती हैं, मगर इन परियोजनाओं से पहाड़ों, जंगलों और नदियों को जो नुक़सान होता है वह मनुष्य के अस्तित्व को ही चुनौती देने लगता है। आज इस क्षेत्र के सामने ऐसी ही परिस्थितियां मुंह बाये आ खड़ी हैं।

कहावतों या किंवदंतियों के बारे में कहा जाता है कि ये समूचे समाज के साझे अनुभवों की सटीक अभिव्यक्ति होती हैं। लगातार भूकंप की चपेट में रहने वाले जापान की एक कहावत है- ’आपदा तब आती है जब आप उसे भूल जाते हैं।’ इस कहावत के निहितार्थ को हमें यह समझना होगा कि हम जिस पारिस्थितिकी या भूगोल में रहते हैं, उसके ख़तरों से हमेशा भिज्ञ रहें और उसके अनुकूल ही स्वयं को ढालने की कोशिश करें। शायद जापान अपनी इस कहावत के मर्म को समझता है, इसलिए निरंतर बड़े भूकंप भी वहां भयानक आपदा नहीं बन पाते। लेकिन हमारी स्थिति जापान से उल्टी है। हम स्वयं आपदाओं को निमंत्रण देते हैं। देश में इसका एक बड़ा उदाहरण जून 2013 में उत्तराखंड त्रासदी के रूप में देखने को मिला था और वर्ष 2018 में केरल की बाढ़ में देखा गया था। हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्यों में तो जब तब छोटी-छोटी घटनाओं के रूप में देखने को मिलता रहता है।

हालांकि मैं न कोई पर्यावरणविद् हूं और न ही विकास परियोजनाओं की तकनीकी जानकारियां रखने वाला व्यक्ति हूं। मगर एक सजग नागरिक की हैसियत से अपने चारों तरफ़ घटने वाली घटनाओं पर सचेत नज़र रखता हूं। इस समय इस क्षेत्र में विकास के नाम पर जो सबसे बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं या चर्चा में हैं वह है नये नैशनल हाईवे का निर्माण व पुराने नैशनल हाईवे को चौड़ा करके फ़ोरलेन मार्ग में तबदील करना। इसमें दो राय नहीं कि इस पहाड़ी राज्य में बहने वाले नदी-नाले यहां की आर्थिक संपन्नता के संसाधन व स्रोत हैं, उसी तरह इन पहाड़ों में निकलने वाली सड़कें यहां के लोगों की जीवन रेखाएं हैं। मगर जिस अबाध गति से अब यहां यह प्रक्रिया चल रही है अर्थात् पहले से निर्मित नैशनल हाईवे को फ़ोरलेन में बदलने की तथा अनेक नये नैशनल हाईवे के निर्माण की घोषणाएं हो रही हैं, उससे कई सवाल उपजते हैं। जिस गति से इन सड़कों के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण हो रहा है उससे न केवल कृषि भूमि कम हो रही है अपितु अनेक परिवार रोज़गार विहीन हो रहे हैं। भूमि अधिग्रहण से मिलने वाले पैसे के निवेश के लिए उचित संसाधनों के अभाव में वह पैसा उच्छृंखलता को बढ़ाने में सहायक हो रहा है। लोग नशे की गिरफ़्त में आते जा रहे हैं। ख़ासकर नयी पीढ़ी में नये नशों का प्रचलन बढ़ रहा है। नये मॉडल की महंगी गाड़ियां बिना ज़रूरत खरीदी जा रही हैं जिससे सड़कों पर परिवहन का दबाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। राज्य सरकारों का पूरा ध्यान इन नवनिर्मित नैशनल हाईवे व फ़ोरलेन की तरफ़ होने से दूर देहातों की सड़कों की बदहाली की तरफ़ कोई नहीं देख रहा। उनकी हालत निरंतर ख़स्ता होती जा रही है। पहाड़ों की देहाती सड़कें सुरक्षा के कोई मानक पूरे नहीं करतीं जिससे सड़क दुर्घटनाआं में इज़ाफ़ा हो रहा है जिसमें बेशक़ीमती युवा ज़िंदगियां समाप्त हो रही हैं। इससे मुझे लगता है कि नये हाईवे बनाने के बजाय सरकार पहले से बनी इन पुरानी सड़कों की बेहतरी के लिए काम करे, तो अच्छा हो। इन्हें सुरक्षा के मानकों के तहत लाया जाये। सभी सड़कों के किनारे पैरापिट हों या क्रैश बैरियर। यह तर्क अपनी जगह सही हो सकता है कि नैशनल हाईवे व फ़ोरलेन पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, इनके निर्माण से पर्यटन व्यवसाय बढ़ेगा, मगर इस क्षेत्र के लोगों की ज़िंदगी को असुरक्षित रखकर व्यवसाय करना भी समझदारी नहीं कही जा सकती। जहां तक मैं हिमाचल प्रदेश की भौगौलिक परिस्थितियों को समझता हूं, मुझे लगता है कि इस पहाड़ी राज्य को उचित परिवहन नीति की भी आवश्यकता है जो फ़िलहाल मुझे नज़र नहीं आती। संकरे रास्तों पर भारी भरकम गाड़ियों को चलने देना स्वतः ही दुर्घटना को आमंत्रण देना है।

कुछ दिन पूर्व थोड़े-थोड़े अंतराल पर कुल्लू जाना हुआ। पंडोह के आगे जिस निर्ममता से पहाड़ियों को काटने और उनके भीतर अनेक सुरंगें निकालने का कार्य चल रहा है उसे देखते हुए लगता है कि हम उत्तराखंड की त्रासदी से कोई सबक़ नहीं लेना चाहते। जून 2013 में आयी उस आपदा में सरकारी आंकड़ों के अनुसार चार हज़ार से ज़्यादा और ग़ैरसरकारी स्वतंत्र संस्थाओं के अनुसार दस हज़ार से ज़्यादा जानें गयी थीं। इस त्रासदी के बाद हुए अनेक अध्ययनों में यह बात सामने आयी थी कि बिजली परियोजनाओं के नाम पर वहां पहाड़ों के भीतर सुरंगे खोदकर उन्हें पूर्णतः खोखला किया जा चुका था जिससे यह त्रासदी हुई थी।

दूसरा, मुझे लगता है कि इन सुरंगों को निकालने व पहाड़ों को काट कर सड़कें बनाने में लगे अधिकतर अकुशल मज़दूर होते हैं। विज्ञान सम्मत खनन से इनका दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं होता। यहां भी यह देखने-सुनने को मिला कि बड़ी-बड़ी कंपनियों ने सुरंगों की खुदाई व पहाड़ों की कटाई का ठेका तो सरकार से ले रखा है, मगर वास्तव में ये कंपनियां स्वयं इस कार्य को नहीं कर रही हैं। इसके बजाय इन बड़ी कंपनियों ने यह कार्य स्थानीय स्तर पर 'सबलैट' कर रखे हैं जिससे स्थानीय जे सी बी मालिक ठेकेदार बने हुए हैं और जे सी बी चालक इंजीनियर की भूमिका निभा रहे हैं। पूरे परिदृश्य को देखकर तो कई बार ऐसा लगता है जैसे देश के दूसरे राज्यों की तरह इन पहाड़ी क्षेत्रों में भी खनन माफ़िया व बड़े ठेकेदार विकास परियोजनाओं पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं। वे ही अपने मन माफ़िक विकास योजनाएं सरकार से बनवा रहे हैं, उन्हें पास करवा रहे हैं और फिर कार्यान्वित भी कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि देश के जल, जंगल व ज़मीन पर इन ठेकेदारों का कब्ज़ा हो गया है और तमाम सरकारें इन नीतियों को विकास के नाम पर प्रचारित करके वोट बटोरने में लगी हैं। उनकी चिंता दीर्घकालीन नुक़सानों को लेकर नहीं है।

हमें समझना होगा कि पारिस्थितिकी के लिहाज से ये पहाड़ अत्यंत नाज़ुक हैं और ख़ासतौर से इन्हें भूकंप तथा बाढ़ का ख़तरा है। इसके बावजूद एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने हिमालय तथा उसके भीतर रहने वाले लोगों पर चार तरह से हमले किये हैं। वाणिज्यिक वानिकी, ओपन कास्ट माइनिंग, बड़ी पन-बिजली परियोजनाओं को बढ़ावा तथा अनियंत्रित पर्यटन ने मिलकर भारी पैमाने पर ज़हरीले कचरे के संचय, वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी, वनों तथा जैवविविधता में कमी, जल स्रातों का क्षरण किया है और भूस्खलन तथा बाढ़ में वृद्धि की है। लंबे समय से हिमालय यह सब सहन कर रहा है, मगर आज सवाल यही है कि आख़िर कब तक? सहने की कोई तो सीमा होती ही होगी। इन्हीं चिंताओं को व्यक्त करती पर्यावरण विशेषज्ञों की रिपोर्ट कहती है, ’आज दुनिया भर में स्पष्ट हो गया है कि पारिस्थितिकी की ईमानदार और बिना शर्त की जाने वाली चिंता से रहित कोई भी विकास अदूरदर्शी साबित होगा और अनिवार्य रूप से दीर्घकाल में तबाही  और आपदा लायेगा।’

मो. 9418123571

 

 

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