पंजाबी कहानी

शुरू से...

कुलवंत सिंह विर्क

(ऐतिआणा लुधियाना का एक गांव है, जहां 1950 के दशक में सरकार के ‘ख़ुशहैसियती’ टैक्स के विरोध में हुए आंदोलन द्वारा एक ऐतिहासिक और संघर्षपूर्ण इतिहास लिखा गया। इस आंदोलन के समर्थन की अगुवाई 'पंजाब किसान सभा' ने की थी जिसमें कई बड़े किसान नेता जैसे जगजीत सिंह लायलपुरी, हरकिशन सिंह सुरजीत, सोहन सिंह जोश, बाबा करमसिंह चीमा, बाबा गुरमुख सिंह आदि शामिल हुए थे। सरकार ने आंदोलनकारियों के ऊपर गोलियां चलायी थीं और कई स्त्री-पुरुष शहीद हो गये थे। इसी घटना से प्रेरित होकर पंजाबी के शीर्ष कहानीकार कुलवंत सिंह विर्क ने यह कहानी लिखी थी- बलवंत कौर)

 

अख़बार में ख़बर छपी थी कि पुलिस ने गांव में गोली चला दी। बताये जाते हैं चार लोग मरे । कुछ जख़्मी हुए। मरने वालों में एक बूढ़ी महिला भी थी। झगड़ा मामले(टैक्स) की वसूली का था । सरकार कहती थी कि जो मामला बढ़ाकर लगाया गया था, अभी ही वसूलना है। गांव के लोग अधिक मामला देने के लिए तैयार नहीं थे। अख़बार में छपा था कि जब तहसीलदार पुलिस को लेकर मामला वसूली के लिए गांव गया था, गांव वाले उस पर धावा बोलने आ गये। उन पर पुलिस तथा तहसीलदार ने अपने बचाव में गोली चला दी।

मेरे लिए यह नयी सी बात थी।

गोली चलने के बारे में पहले भी सुना था। जलूसों पर, शहर में,  सड़क पर या किसी साझे मैदान में । मृत तथा घायल व्यक्तियों को पुलिस उठाकर अस्पताल ले जाती। बाक़ी भाग जाते । जगह साफ़ कर दी जाती और बात ख़त्म हो जाती। शहर बड़ा होता है, अपने घर के अलावा कोई किसी भी जगह को अपना नहीं समझता, पर गांव में गोली चली तो मुझे इस तरह लगती थी जैसे हर घर में गोली चलायी गयी हो।

जिस दिन अख़बार में ख़बर छपी, उससे अगले दिन छुट्टी थी। मेरा मन किया कि उस गांव में चला जाऊं। गोली चलने के बाद गांव कैसा लगता है, यह देख आऊं। दो-तीन दिन बीत गये थे पर यह कोई बहुत ज़्यादा दिन नहीं थे। रास्ते में एक शहर में बस बदलनी थी। मैं अगली बस के इंतज़ार में खड़ा था कि तहसीलदार मिल गया। वह मेरा जानकार था। उसने बताया कि लगभग सौ स्त्री और पुरुष उसको मारने के लिए आ गये और उसने गोली चलाने का हुक्म दे दिया।

  और उसने यह बात बतायी कि बड़े अफ़सर तथा मंत्री उसकी इस कार्रवाई पर बहुत ख़ुश थे। वह स्वयं बहुत हंस रहा था । अब वहां खड़ा वह पुलिस इंस्पेक्टर का इंतज़ार कर रहा था। वह पुलिस की गारद लेकर आयेगा और फिर वे किसी दूसरे गांव जायेंगे, मामला वसूली तथा कुर्की करने के लिए। उनको हुक्म था कि इस समय इस काम का दबाव बना हुआ है इसलिए इसे जल्दी जल्दी ख़त्म कर दिया जाये! इन जैसे कामों के बारे में ऊपर ऊपर की जानकारी से मेरा यह ख़याल था कि इस तरह की किसी भी कार्रवाई के पीछे कोई बड़ा अफ़सर इसकी जांच पड़ताल करता है और फिर फ़ैसला देता है कि गोली चलाने की आवश्यकता थी या नहीं। जितनी देर यह फ़ैसला आ न जाये, गोली चलाने वाला अफ़सर अपने काम के नतीजों के विषय में चिंतित ही रहता था, पर यह तहसीलदार तो चिंतित होने की जगह ख़ुश था- जैसे उसको पता हो कि इस बात के लिए उसे तरक़्क़ी मिलनी ही है। तहसीलदार बातें करके चला गया और कुछ देर के बाद मुझे उस गांव जाने के लिए बस मिल गयी।

जिस जगह पर मैं बस से उतरा,  वहां से वह गांव तीन चार मील दूर था। आगे कोई सवारी नहीं जाती थी। इसलिए बस से उतर के मुझे कोई जल्दी नहीं थी। बस अड्डे पर चाय बेचने वाले तथा चढ़ने-उतरने वाली सवारियां उसी गांव की बातें कर रही थीं। बड़े लोगों में से कौन-कौन गांव होकर आया है, अब वहां कौन है? बाक़ी गांवों में इसका क्या असर पड़ा है? ये बातें धीरे-धीरे हो रही थीं। वैसे किसी की बात में रोष नहीं था। सारा ग़ुस्सा डर से बंधा हुआ था। गोली चली है,  लोग मरे हैं,  पुलिस गांव में बैठी है,  कई  बड़े आदमी आये और गये हैं,  इससे ज़्यादा कोई कुछ कहने को तैयार नहीं था।

मैंने गांव का रास्ता पूछा तथा पगडंडियों से होता हुआ चल पड़ा। चैत का महीना था। पगडंडी के किनारे-किनारे गेहूं की फ़सल पकने वाली थी। गेहूं की बालियां हवा में लहरा रही थीं। पुलिस की कार्रवाई का यहां कोई असर नहीं था।

पकने वाली फ़सल का अपना नख़रा,  अपना तेवर होता है। यहां तक पहुंचने तक उसने कई चीज़ों पर जीत हासिल की हुई होती है। इस तरह की गेहूं की फ़सल का साथ मेरे लिए अच्छा था। कहीं-कहीं लड़के जानवर चरा रहे थे। कोई इक्का-दुक्का मुसाफ़िर मोटर पर चढ़ने के लिए पैदल चलता आ रहा था। मेरी किसी से कोई बात नहीं हुई।

गांव के बाहर एक पेड़ के नीचे कुछ गबरू जवान लड़के बैठे थे। उनके नज़दीक न तो कोई जानवर चर रहा था और न ही कोई कुआं था । प्रतीत होता था कि वे केवल खुल कर बातें करने के लिए ही यहां इकट्ठे बैठे हैं। गांव में जैसे उनकी सांस घुटती हो। मैं भी उनके पास चला गया। मुझे डर था कि शायद गांव के आसपास पुलिस का पहरा हो और वे गांव में जाने से रोकें। उन्होंने मुझे बताया कि ऐसी कोई रोक नहीं है और न ही गांव के आसपास कोई पहरा है । पुलिस गांव के बाहर स्कूल में बैठी हुई है और लोगों के घूमने-फिरने या आने जाने पर कोई पाबंदी नहीं। जब मैंने पूछा कि क्या बात हुई तब उन्होंने गांव वालों को सच में बेक़सूर बताया और पुलिस वालों को एक सिरे से क़सूरवार।

वहां से मैं आगे गांव की तरफ़ चला।

गांव के नज़दीक  एक लड़का चारे के लिए शटाला काट रहा था। मैंने उससे पूछा, यहां क्या बात हुई है?  उसने मेरी तरफ़ नहीं देखा तथा ध्यान से, बल्कि पहले से भी अधिक ध्यान से पट्ठे काटता गया। मैंने फिर ऊंची आवाज़ में पूछा। उसने कहा, मुझे नहीं पता। मैं यहां नहीं था, कटाई के लिए गया हुआ था। मैंने कहा, कटाई से आकर तो कुछ सुना होगा।

उसने फिर कहा, मुझे कुछ नहीं पता । वह किसी भी पक्ष से बात करने से डरता था।

मैं आगे चल पड़ा।

गांव की गली बहुत सूनी थी। न कोई बच्चा खेल रहा था और न कोई बड़ा ही आ जा रहा था । एक स्त्री जिसने बाल धोये हुए थे, अपने बरामदे के दरवाज़े तक आयी और मुझे देख कर पीछे मुड़ गयी। मैं गलियों से होता हुआ चलता गया। गांव के छोर पर एक चौपाल थी। ऐसा लगता था यह कोई साझी जगह हो। मैं अंदर चला गया।

तख़्तपोश पर कुछ लोग बैठे हुए थे। दुआ सलाम के बाद मैं भी उनके पास बैठ गया। कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं थी। यही बातें हो रही थीं। वहां बैठने पर पता चला कि वहां आने-जाने वालों तथा सलाह-मशवरा देने वालों की कमी नहीं थी। उनके नेताओं ने उन्हें मशवरा दिया था कि वे कुर्की होते हुए न रोकें तथा जिस तरह पुलिस करती है, उसे करने दें। कुछ देर बाद मेहमानों की एक और खेप आ गयी वे तख़्तपोश पर बैठे लोगों के अच्छे जानकार लगते थे। चाय आ गयी और हम सब ने पी। चौपाल के बाहर सिपाहियों के क़दम से क़दम मिलाकर चलने की आवाज़ आयी। मैंने उठ कर देखा, दस-बारह सिपाही बंदूक उठाये लाइन बनाकर मार्च कर रहे थे, साथ में थानेदार भी था। गांव वालों ने बताया कि हर दो-तीन घंटों के बाद ये इसी तरह गांव की गलियों से गुज़रते हैं।

गांव के लोग बाहर से आये लोगों को बताने लगे, 'हमारा पुलिस से मुक़ाबले का कोई विचार नहीं था। लोग एक दूसरे की देखा-देखी पुलिस को देखने के लिए इकट्ठे हो गये थे। हां, हमने यह ज़रूर पुलिस वालों को पहले कहा था कि हमारा गांव अन्य गांवों जैसा नहीं है। यहां आप ऊंची-नीची बात नहीं कर सकते। उन्होंने ऐसे ही डरते हुए गोलियां चला दीं।'

फिर वे उन लोगों को वारदात वाली जगह दिखाने के लिए बाहर ले गये । दीवारों में और नांदों में लगी हुई गोलियां दिखायीं। एक व्यक्ति नांद के पास बंधे अपने जानवरों को खोलने आया था, कहीं उन्हें गोली न लग जाये, वह खुद ही मारा गया। एक व्यक्ति अपने वेलणे में गन्ने लगा रहा था। वह भी मारा गया। ईटों के ढेर पर गोली लगने से एक ईंट अलग हो गयी थी। वह भी अपनी असली जगह पर रख कर दिखायी गयी। बाहर से आये लोग सुनते रहे, 'ओहो ओहो...' करते रहे, पर उन्होंने रोष का कोई चिन्ह नहीं दिखाया। शायद उनके अपने गांव पर भी पुलिस का काफ़ी दबाव हो।

दूसरी तरफ़ कार आकर रुकी। उसमें से सरकार पर क़ाबिज़ धड़े का विरोधी नेता निकला। गांव वालों में से एक दो ने उसे पहचान लिया।  बाक़ियों ने उन्हें शुरू में ही बता दिया कि यह कौन है। उस नेता ने भी सब कुछ देखा। चारों तरफ़ घूम कर और उस दिन के बाद के हालात सुनकर उसने कहा , 'जो कुछ आप बता रहे हो यह तो कोई बिलकुल पगलाये हुए पुलिस वाले ही कर सकते हैं'। मुझे और गांव वालों को कुछ समझ न आया कि उसने गांव वालों के बयान को झूठा कहा है या उसका ख़याल था कि पुलिस वालों ने सचमुच पागलों वाला काम किया है।

फिर वह नेता कार में बैठकर चला गया । मुझे भी वहां अब ज़्यादा ठहरने की ज़रूरत नहीं थी। गांव की हालत मुझे काफ़ी कुछ समझ में आ गयी थी। मैंने वापसी का रास्ता पकड़ा। रास्ता वही पहले वाला था, पर मेरा दिल कुछ बैठा हुआ था। दिल को गर्मजोशी देने वाली कोई बात हुई नहीं थी। गांव एकदम निढाल हुआ पड़ा था।

जिस पगडंडी से मैं वापिस जा रहा था, उसको, बायीं तरफ़ से एक कच्चा रास्ता काटता था। कुछ आगे जाकर उस रास्ते पर एक मोटर खड़ी थी, आगे पानी होने के कारण रुकी पड़ी थी। मोटर से उतर कर पुलिस के सिपाही पैदल ही किसी गांव की तरफ़ जा रहे थे। बंदूकें उनके हाथों में थीं। उस राह में खाक़ी वर्दियों तथा लाल पगड़ियों की लंबी लाइन बनी हुई थी।

मैं कुछ देर खड़ा इस लाइन को चलते देखता रहा और फिर आगे बढ़ गया। दूर पगडंडी पर एक जोड़ा चलता आ रहा था, पति-पत्नी। मैं उन्हें देख रहा था पर उन्होंने अभी मुझे नहीं देखा था, या शायद देख कर अनदेखा कर रहे थे। वे प्यार करते आ रहे थे! पुरुष ने स्त्री के गले में बांहें डाली हुई थी जिस तरह से छेड़खानी करते लड़के एक दूसरे के गले में बांहें डाल कर चलते हैं।

जब वे नज़दीक आ गये तो स्त्री ने मुझे देख लिया। उसने अपने पति का बाज़ू अपने गले से से हटा दिया। घूंघट निकाल कर वह थोड़ा पीछे होकर चलने लगी। पता नहीं कैसे, उनको देखकर मेरे मन से पुलिस का भय उतर गया।

लड़की गौने में आ रही लगती थी। दुपट्टे पर गोटा लगा हुआ था, कमीज़ के घेरे और सलवार के पांयचों पर भी। शहरी जूती के नीचे ज़ुराबें पहनी हुई थीं। बंद मुट्ठियों में भी हथेली के किनारों से मेहंदी लगी दिख रही थी।

कुछ आगे जा कर मैंने फिर पलट कर देखा। मुझे चला गया जानकर वे फिर पहले जैसे ही चलने लगे थे। स्त्री ने भी पीछे मुड़ कर देख लिया कि मैं देख रहा हूं, पर अब उन्होंने अलग होने की कोई कोशिश नहीं की।

वे दोनों उसी गांव में जा रहे थे जहां से मैं आ रहा था। यह ससुराल आयी स्त्री अब वहीं रहेगी। नया घर बसेगा। बच्चे पैदा होंगे जो उस गांव की नयी पीढ़ी बनेंगे।  मुझे और तसल्ली हो गयी। मनुष्य की बलाएं मनुष्य का बच्चा ही बड़ा होकर काटता है।

अनुवाद : बलवंत कौर

मो.9868892723

(नवारुण प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तिका, किसान आंदोलन : लहर भी, संघर्ष भी और जश्न भी  का एक हिस्सा)

 

 

  

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