कुंदन सिद्धार्थ


सिर्फ़ मज़दूर नहीं मरते

जिन्हें रेलगाड़ी के ऊपर सवार होना चाहिए
जब रेलगाड़ी के नीचे आ जाते हैं
तो सिर्फ़ वे नहीं मरते, पूरा देश मर जाता है

जब हम कहते हैं
कि रेल की पटरियां कोई सोने की जगह हैं
जाने-अनजाने हम उनकी हत्या में शरीक हो जाते हैं

जब गणमान्य लोगों के शोक-संदेश पढ़-सुनकर
हम संतोष कर लेते हैं कि मज़दूर ही तो हैं
किस-किस का ध्यान रखे कोई
मर गये तो क्या हो गया
तो गाहे-बगाहे हम इस बर्बरता के पक्ष में
बड़ी बेशर्मी के साथ खड़े हो जाते हैं

जब राजमार्गों पर होने वाली मृत्यु की ख़बरों से
हम आंखें मूंद लेते हैं और बदल देते हैं चैनल
देखने लगते हैं बॉबी, दिलजले, बाग़वान
जब सड़कों पर गठरी के साथ बच्चों को लादे
लगातार चलते मज़दूरों की तस्वीरें हम बस एक नज़र देखते हैं
और तुरत मशगूल हो जाते हैं रामायण, महाभारत या कुकिंग शो में
तो हम अपनी आत्मा को बंधक रख देते हैं
और भीतर की मनुष्यता का कर देते हैं सरेआम क़त्ल

जब मज़दूरों के सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने की ख़बरें
हम रोचक कहानियों की तरह चटकारे लेकर पढ़ते हैं
और लानत-मलामत भेजते रहते हैं उन्हें
कि सही हो रहा, इसी लायक़ हैं वे मुफ़्तख़ोर
जब सैलानियों, तीर्थयात्रियों को लग्ज़री बसों में बैठाकर
उन्हें अपने-अपने घर पहुंचाया जाता है
और मज़दूरों को धूप में तपती सड़कों पर
घिसटने के लिए छोड़ दिया जाता है
और हमारी नींद में कोई ख़लल नहीं पड़ता
हम चुप रहते हैं, तान लेते हैं लंबी चादर और सो जाते हैं
तो हम अपने घरों में बड़े सुख-चैन से बैठे हुए
कोरोना के बिना मारे मर जाते हैं

जब देश के धनाढ्य नागरिकों को विदेशों से
हवाई और समुद्री जहाज़ों से बड़े सम्मान के साथ लाया जाता है
और मुंबई, बेंगलुरु, दिल्ली से बिहार, यूपी, एमपी आनेवाले
मज़दूरों से मनमाना किराया वसूला जाता है
उन पर लाठियां बरसायी जाती हैं
जानवरों की तरह खदेड़ा जाता है उन्हें
इधर से उधर फिर उधर से इधर

तो सिर्फ़ मज़दूर नहीं मरते
मर जाती हैं
प्रेम, करुणा, परोपकार की नैतिक शिक्षाएं
ज्ञान, ध्यान, प्रवचन मर जाते हैं
मरती है पूजा, भक्ति मरती है
मर जाते हैं छप्पन कोटि देवी-देवता
वेद, पुराण, उपनिषद मर जाते हैं
बुद्धि मरती है, मरता है विवेक
कवि मरते हैं, कथाकार मरते हैं
मर जाता है पूरा का पूरा साहित्य
संस्कार मरता है
मर जाती है
सभ्यता
संस्कृति

सिर्फ़ मज़दूर नहीं मरते   
मो0 7024218568

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