कोरोना काल : प्रवंचनाओं के संदर्भ-1



कोविड-19 : उपभोग और
उत्तर-पूंजीवादी दुनिया की आहटें 
आदित्य निगम

इस आलेख के शीर्षक में कई लोगों को ख़ामख़याली दिख सकती है या शेख़चिल्लीपन नज़र आ सकता है। आख़िरकार पिछले सौ सालों में न जाने कितनी बार पूंजीवाद के अंत का ऐलान किया जा चुका है - इतना कि एक वक़्त ऐसा भी आया था जब सोवियत संघ के पराभव के बाद पूंजीवाद के अंत की बात ही हास्यास्पद लगने लगी थी। चूंकि वक़्तन-फ़-वक़्तन पूंजीवाद के अंत का दावा मार्क्सवादी ही किया करते थे, इसलिए समाजवाद के पतन के बाद ऐसा लगा कि अब इस विषय में कहने को कुछ बाक़ी नहीं रह गया है; उसका पतन तो अपने आप में एक अकाट्य तर्क है। और वाक़ई उस ज़माने में, 1990 और 2000 की दहाइयों में, दुनिया भर में नव-उदारवाद का झंडा लिये पूंजीवाद के अश्वमेध का घोड़ा सबको रौंदता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था।
बेशक़ यह वही दौर था जब लातिन अमरीका के कई देशों में 'इक्कीसवीं सदी का समाजवाद' नाम से कई नये प्रयोग भी सामने आये, मगर उन प्रयोगों पर भी एक मायने में गोया उस गुज़रे ज़माने की काली छाया छायी रही और पूंजीवाद से वे भी पूरी तरह रिश्ता तर्क़ नहीं कर पाये। इनमें विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं ब्राज़ील में वर्कर्स पार्टी के शासनकाल में और बाद के सालों में वेनेज़ुएला, बोलिविया व इक्वाडोर में हुए प्रयोग। इनमें से कइयों का दावा था कि बर्लिन की दीवार हम पर नहीं गिरी थी, लिहाज़ा हम पर उसकी विरासत ढोते जाने का कोई बोझ नहीं है। आज उन निज़ामों के पतन के बाद नये सिरे से उस इतिहास को देखने से ऐसा ही लगता है कि जिस दौर में उनका आविर्भाव हुआ उस दौर की छाया उन पर लगातार छायी रही और कई मायनों में पूंजीवाद से उनका रिश्ता बना रहा। नवउदारवाद के नज़रिये से वे पूरी तरह किनारा नहीं कर पाये। और तो और, उसके भी बाद के दौर में यूरोज़ोन में, यूनान में ज़बरदस्त जनांदोलनों से जो ‘सीरिज़ा’ प्रशासन वजूद में आया, वह भी इस तर्क और नज़रिये से पीछा नहीं छुड़ा पाया और उसकी भी हालत ख़राब हो गयी थी।

वर्ग-युद्ध का नया रूप
लिहाज़ा आज 'कोरोनाकाल' में जब दुनिया भर में सरमायेदार अपने चाकुओं की धार पैनी कर रहे हैं और ख़ासतौर पर हिंदुस्तान में तो खुले 'वर्ग-युद्ध' का ऐलान कर ही चुके हैं, तब यह कहना कि इसमें हमें उत्तर-पूंजीवादी दुनिया की आहटें सुनायी दे रही हैं ख़ामख़याली के सिवा और क्या हो सकता है? बिला शक़ एक स्तर पर यह एक बेतुका दावा लगता है और इसलिए इस विषय पर तफ़सील से बात होना ज़रूरी है। इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, एक बात स्पष्ट करते चलें : मैंने 'वर्ग-युद्ध' शब्द का इस्तेमाल अनजाने में नहीं किया है बल्कि पूरे होशो-हवास में, पूरी ज़िम्मेदारी के साथ किया है। 'वर्ग-युद्ध' से क्या मुराद है हमारी?
इसका एक अर्थ तो वह है जो आम तौर पर समझा जाता है – दो वर्गों के बीच संघर्ष या टकराव जिसे मार्क्स ने समाज की चालक शक्ति माना था। इस अर्थ में पूंजीपति वर्ग की अदावत सीधे सीधे मज़दूर वर्ग से होती है जिसके श्रम के शोषण के ज़रिये पूंजीपति मुनाफ़ा कमाता है। ज़ाहिर है कि इस अर्थ में भी वर्ग-संघर्ष समाज में एक रोज़ के लिए भी रुका नहीं, बेशक़ नव-उदारवाद के नये ज़माने के पैरोकार कुछ भी दावा करते रहें। लगे हाथों नोट करते चलें कि दरअसल वह नया ज़माना अब बहुत पुराना पड़ चुका है और नवउदारवाद अब पूरी तरह विफल हो चुका है। उसके पैरोकार अब भी 1990 के दशक में जीते हैं जबकि दुनिया भर के  नये दक्षिणपंथी उभार – ब्रेक्सिट से लेकर डोनाल्ड ट्रम्प आदि के आविर्भाव तक – के पीछे इसके विफलता की ही कहानी है मगर वह एक दीगर कहानी है जिसपर यहां चर्चा मुमकिन  नहीं है।
वर्ग-युद्ध को एक और अर्थ में समझने की ज़रूरत है जहां समाज का एक ताक़तवर वर्ग बाक़ी पूरे समाज के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देता है – उसके निशाने पर सिर्फ़ मज़दूर वर्ग नहीं बल्कि पूरा समाज होता है। सच्चाई तो यह है कि पूंजीवाद के पहले ऐसा कभी शायद किसी समाज में नहीं हुआ कि पूरा का पूरा समाज ही सत्तावान वर्ग के निशाने पर आ जाये। आज के पूंजीवाद के साथ पूरे समाज का अंतर्विरोध इस बात में तो साफ़ साफ़ देखने को मिलता है कि उसकी कारस्तानियों के कारण आज पूरी मानव जाति का वजूद ख़तरे में आ गया है। उसकी हवा तो दूषित हो ही चुकी है, उससे उपजी हज़ारों बीमारियों ने आम लोगों की ज़िंदगियों को घेर लिया है। पानी भी ग़ायब होता जा रहा है और जहां बचा है, ज़हरीला हो चुका है। ख़ुद हमारे देश में हालिया ख़बर यह है कि बड़े बड़े शहरों में भी दो साल की ख़पत लायक़ पानी ही ज़मीन के नीचे बचा है। पानी के अभाव में बुंदेलखंड जैसे इलाक़ों से तो सालों से लोगों का पलायन हो रहा है और कई जगहों में अब रेलगाड़ियों में भर कर पानी पहुंचाया जाता है। यह तो महज़ उसका रोज़ाना का संकट है मगर कुल मिलाकर आबोहवा का संकट आज एक ऐसी जगह पहुंच चुका है जहां उससे पैदा होने वाले असरात का हमें कोई अंदाज़ा ही नहीं है। मिसाल के तौर पर ऊंचे पहाड़ों पर ग्लेशियरों के पिघलने से क्या किस किस तबाही का हमें सामना करना पड़ सकता है उसका हमें अंदाज़ा भी नहीं है। हाल में वैज्ञानिकों ने इस ओर भी ध्यान खींचने की कोशिश की है कि उस बर्फ़ की ठंडक में दबे अनगिनत वायरस हैं जो यों तो हज़ारों साल पड़े रह सकते थे मगर जैसे ही तापमान बढ़ता है और उन्हें अनुकूल माहौल मिलने लगता है, वे जी उठते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के अन्य असरात के बारे में तो शायद हम जानते हैं मगर यह एक ऐसा पहलू है जो आज के संदर्भ में बेहद मानीखेज़ हो जाता है। यह विषय अपने आप में बहुत बड़ा है और ज़ाहिर है कि इस लेख में उसके विभिन्न आयाम खोलना संभव नहीं है। मगर यहां एक बात ज़रूर दर्ज करनी चाहिए कि पूंजीवाद का यही पहलू है जो जाकर सीधे नये कोरोना के साथ जुड़ता है।
आधुनिक पूंजीवादी विकास का एक पहलू वह है जो लगातार वन्य जीवजंतुओं की प्रजातियों के विलोप और उनके रिहाइशी जंगलों – स्थानीय पारिस्थितिक तंत्रों या लोकल इकोसिस्टमों – में हस्तक्षेप और उनकी बरबादी से जुड़ा है। जैसे जैसे इन जंतुओं की तादाद घटने लगती है या उन के जंगलों का सफ़ाया होने लगता हैं, उनकी देहों पर बसने वाले वायरस नयी रिहाइशी देह तलाशते हैं और चूंकि इंसान ही सबसे ज़्यादा पसरते जाने वाला जीव है, एक मुक़ाम ऐसा आता है जब एक प्रजातिगत छलांग के ज़रिये ये वायरस इंसान के जिस्म में बसने लगते हैं। ज़ाहिर है यह एक सरलीकृत तस्वीर है मगर यह सही है कि इस तरह नये नये वायरस का फैलना जानवरों और इंसानों के बीच के रिश्ते से सीधे सीधे ताल्लुक रखता है और यह रिश्ता कई तरह से देखने में आता है जिसकी शक्ल बेशक़ अक्सर बदलती रहती है और जिसके बदलने के पीछे तकनालजी और मुनाफ़े का मिलाजुला खेल होता है। जब इंसानों और जानवरों के बीच रिश्ते बदलते हैं तो साथ ही वे हालात भी बदल जाते हैं जिनके बीच ये बीमारियां पनपती हैं और इनमें से अक्सर ऐसी बीमारियां या महामारियां होती हैं जिनका संबंध औद्योगिक स्तर पर मांस-उत्पादन से भी होता है। इसलिए यह कोई अचंभे की बात नहीं कि हाल के सालों में जिन वायरस ने हम पर हमला किया है वे सभी किसी न किसी जानवर से जुड़े रहे हैं। इसीलिए इन महामारियों के नाम या तो बर्ड फ़्लू (चिड़ियों का और उनके ज़रिये फैलने वाले) या स्वाइन फ़्लू (सूअरों का फ़्लू) आदि होते हैं। चीन से जारी एक ब्लॉग के मुताबिक़ वायरस की जंगली क़िस्में और ग्लोबल अर्थव्यवस्था के बेतहाशा शहरीकृत और औद्योगीकृत इलाक़ों में – वुहान शहर जिसका अव्वल उदाहरण है – उनका अचानक प्रसार हमें नये युग के राजनीतिक-आर्थिक महामारियों के कई पहलुओं से अवगत कराता है।
जीव वैज्ञानिक रॉबर्ट जी वालेस की हालिया किताब बिग फ़ार्म्स मेक बिग फ़्लू (2016) के हवाले से इस ब्लॉग पोस्ट में पूंजीवादी कृषि व्यवसाय (एग्रीबिज़नेस) और सार्स व इबोला जैसी घातक महामारियों की चर्चा की गयी है। वालेस के मुताबिक़ इस एग्रीबिज़नेस के धंधे से जुड़े दो प्रकार की महामारियां देखने को मिलती हैं – एक वे जो एग्रीबिज़नेस के ऐन बीच में, उसके केंद्रीय इलाक़ों में पनपती हैं और दूसरी वे जो उसके हाशियों में पलती हैं। यानी बीमारियां पनपती हर तरफ़ हैं। बर्ड फ़्लू के संदर्भ में वालेस कहते हैं कि दुनिया के ग़रीबतर देशों के देहातों में अब एक नज़ारा आम हो चला है जहां शहरी परिधियों की ग़रीब बस्तियों के साथ सटे बेलगाम बढ़ते एग्रीबिज़नेस देखने को मिलते हैं। मुर्गियों के साथ लगातार अंतर्क्रिया के दरमियान अक्सर वायरस में इंसानों के अनुकूल बदलाव भी आने लगते हैं और जल्द ही वे इंसानों का रुख करते हैं। पहले जो बीमारी स्थानीय स्तर की हुआ करती थी, अब भूमंडलीकरण के दौर में वह दुनिया भर में फैल जाती है। मगर जो बात यहां सबसे दिलचस्प है वह यह कि जंगली और आज़ाद रहने वाले परिंदों में वायरस की ख़ास तरह की ख़तरनाक़ क़िस्में देखने को नहीं मिलती हैं जो हमें औद्योगिक मांस उत्पादन के लिए एकसाथ फ़ार्मों में ठूंस कर पाले गये इन परिंदों में मिलती हैं। परिंदों में पनपते इन ख़तरनाक़ क़िस्मों की एक वजह और है – औद्योगिक स्तर के उत्पादन से जुड़े जानवरों के जेनेटिक मोनोकल्चर के चलते उनके अंदर बीमारियों के प्रतिरोध की क्षमता ख़त्म हो जाती है और वे हर तरह की बीमारी के आसानी से शिकार हो सकते हैं। अगर पूंजीवादी उत्पादन से जुड़े तमाम पारिस्थितिकीय / पर्यावरणीय पहलुओं का लेखाजोखा तैयार करें तो पायेंगे कि आज पूरी इंसानियत उसकी वजह से ख़तरे में आ गयी है – यह  उसके समूचे इंसानी समाज से अदावत का एक पहलू है। मगर उसके वर्ग-युद्ध को एक और अर्थ में समझना होगा।
अमरीका के मशहूर निवेशक और अरबपति वारेन बफ़ेट ने एक बार 2006 में न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेखक बेन स्टाइन को टैक्स की राजनीति के संदर्भ में कहा था कि यह सच है कि आज एक वर्ग-युद्ध जारी है मगर यह मेरा वर्ग है, अमीर वर्ग जो यह जंग छेड़े हुए है...।’ 2011 में एक टेलीविज़न साक्षात्कार में इस बात को और खोलते हुए उन्होंने बताया कि अगर अमरीका के ऊपर के 400 करदाताओं को देखें तो पायेंगे कि 1992 के मुक़ाबले 2011 में उनकी सालाना आय 40 मिलियन डॉलर फ़ी व्यक्ति से बढ़ कर 227 मिलियन डॉलर हो गयी है मगर इसी दौरान उनकी टैक्स की दर 29 फ़ीसदी से घट कर 21 फ़ीसदी हो गयी है। ऑक्सफ़ेम की अभी हाल ही में जारी रपट बताती है कि हिंदुस्तान में फ़क़त 63 करोड़पति-अरबपतियों का धन 2018-2019 में पूरे भारत सरकार के बजट से ज़्यादा था – यानी रु 24, 42, 200 करोड़ से ज़्यादा। रपट यह भी बताती है कि देश के ऊपर की 10 फ़ीसदी आबादी कुल 77 फ़ीसदी राष्ट्रीय धन पर क़ाबिज़ है। रपट से यह भी पता चलता है कि ज़्यादातर लोगों के पास स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं और हर साल 6 करोड़ 30 लाख लोग सिर्फ़ स्वास्थ्य सेवाओं की क़ीमतों की वजह से ग़रीबी में धकेल दिये जाते हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाले ये तथ्य वारेन बफ़ेट के वर्ग-युद्ध वाले दावे की भारत के संदर्भ में पुष्टि करते हैं।
           इस नज़र से देखें तो यही लगता है कि आने वाला वक़्त भी पूंजी द्वारा आम लोगों पर जारी क्रूर और बेरहम वर्ग-युद्ध का ही दौर होने वाला है।

पूंजीवाद और इंसानी फ़ितरत
मगर तस्वीर को देखने का एक और मुक़ाम हो सकता है। फैशन उद्योग की परामर्शदाता और उससे बहुत घनिष्ठ रूप से जुड़ी ली एडेल्कूर्ट ने लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में एक साक्षात्कार में कहा कि ऐसा लगता है कि हम उपभोग के ज़बरदस्त क्वारंटीन के एक ऐसे दौर में दाख़िल हो रहे हैं जहां हम साधारण पोशाक से ही संतुष्ट होना सीख जायेंगे, पुरानी पसंदीदा चीज़ का आनंद ले सकेंगे या किसी भूली हुई किताब को दोबारा पढ़ कर ख़ुश रहेंगे – ज़िंदगी को ख़ूबसूरत बनाने के लिए तूफ़ान खड़े कर देंगे। एक वैकल्पिक और अलहदा दुनिया बनाने के लिहाज़ से, एडेल्कूर्ट ने कहा, इस वायरस के असर सांस्कृतिक तौर पर दूरगामी होंगे। याद रखें यह बात किसी सिरफिरे गांधीवादी की नहीं बल्कि उस फ़ैशन उद्योग के कर्मी की है जो एक मायने में ख़ुद पूंजीवाद का प्राणकेंद्र है। फ़ैशन का ताल्लुक़ बेशक़ कपड़ों या पोशाक से हो मगर उसका फ़लसफ़ा तो पूंजीवाद की बुनियाद है।
अक्सर यह कहा जाता है कि पूंजीवाद इसलिए सबसे कारगर और सक्षम व्यवस्था है क्योंकि वह इंसान की फ़ितरत से मेल खाती है और उसके अनुकूल है क्योंकि इंसान नैसर्गिक तौर पर उपभोग-पसंद और संचयन-पसंद होता है – अर्थात वह उपभोग के साथ साथ लगातार नया धन पैदा करके उसे उत्पादन में लगाना चाहता है। हक़ीक़त दरअसल इसके बिलकुल विपरीत है। पहले उपभोग को देखें। एक उदाहरण से शायद बात बेहतर समझ आये। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में जब गाड़ियों का उत्पादन शुरू ही हुआ था तब अमरीका (जिसे हम पूंजीवाद का स्वर्ग मानते हैं) में गाड़ियों की मांग ज़्यादातर देहाती इलाक़ों से शहरों का सफ़र करने वालों में थी। वह अमरीका में तेज़ शहरीकरण का वक़्त था और 1930 तक 56 फ़ीसदी आबादी शहरों में बसने लगी थी मगर फिर भी शहरी अमीरों की भी गाडियां ख़रीदने में कोई रुचि नहीं थी। उस ज़माने में अमरीकी शहरों में ट्रामें चला करती थीं (जिन्हें इलेक्ट्रिक कार कहा जाता था) और लोग उसी में जाना-आना पसंद किया करते थे। ऑटोमोबाइल कंपनियों ने पहले उन्हें ख़रीद कर उन्हें बर्बाद कर दिया – ताकि गाड़ियों की मांग बढ़ सके। बर्बाद दो तरह से किया गया – एक स्तर पर उनके ऑर्डर रद्द करके और दूसरे जानबूझ कर उनके किरायों में इज़ाफ़ा कर के। इससे गाड़ियों की मांग बढ़नी तो शुरू हुई मगर कंपनियों की हवस के लिए नाकाफ़ी थी लिहाज़ा स्टुडबेकर कॉर्पोरेशन के प्रधान पॉल हॉफ़मन ने 1939 में ऐलानिया तौर पर कहा था कि इसके लिए शहरों को नये सिरे से ढालना होगा ताकि आज जो लोग गाड़ियां ख़रीदने से इंकार करते हैं उन्हें भी गाड़ियां ख़रीदनी पड़ें। और वैसा ही हुआ – शहरों को इस तरह ढाला गया कि और कोई गुंजाइश ही न बचे।
सर्ज लाटूश इस संदर्भ में एक सटीक विश्लेषण पेश करते हैं। बक़ौल उनके, तीन औजार ऐसे हैं जिनसे मिलकर पूंजीवाद का तामझाम खड़ा किया और बनाये रखा जाता है : (1) विज्ञापन उद्योग जिसका बजट दुनिया के पैमाने पर हथियारों के बाद दूसरे नंबर पर है और जो लगातार नयी ख्वाहिशें और नयी ज़रूरतें – और प्रकारांतर से नयी मांग – पैदा करता है। (2) क़र्ज़ा – क्रेडिट – जो माल बेचने वाला ही आपको आसान किश्तों में ख़रीद पाने के लिए मुहैया करता है बेशक़ अंततः आपको आख़िर में वह सौदा मूल से ज़्यादा महंगा पड़े। इसमें क्रेडिट कार्ड भी शामिल है। यही नयी ख़्वाहिशों और ज़रूरतों को मांग में तब्दील करता है। (3) जिसे हम योजनाबद्ध बेकारी कह सकते है जहां सोची समझी बिज़नेस रणनीति के तहत उत्पादों की आयु सीमित कर दी जाती है ताकि एक ख़ास मियाद के बाद वह बेकार हो जाये और आपको नये विकल्प तलाशने पड़ें।
आंद्रे गोर्ज़  के हवाले से लाटूश बताते हैं कि पिछली सदी के उत्तरार्ध में कुछ सर्वे हुए जिनमें 90 फ़ीसदी अमरीकन कंपनियों के प्रधानों ने यह क़ुबूला कि विज्ञापन अभियान के बिना कोई भी नया उत्पाद बेचना असंभव होता है। 85 फ़ीसदी ने माना कि विज्ञापन अक्सर लोगों को ऐसे उत्पाद ख़रीदने के लिए प्रेरित करता है जिसकी उन्हें ज़रूरत नहीं और 51 फ़ीसदी ने यह भी माना कि विज्ञापन के चलते लोग ऐसी चीज़ें भी ख़रीद लेते हैं जिन्हें वे ख़रीदना नहीं चाहते
तक़रीबन यही बात संचयन के बारे में भी सच है। इंसान फ़ितरतन न तो जमाख़ोर होता है और न संचयकर्त्ता। ज़्यादा विस्तार में न जाते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत की तरह ही दुनिया के ज़्यादातर देशों में पसरी हुई विशाल अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में इतना धन पैदा होता है जितना अक्सर उन देशों के स्टॉक मार्केट में भी नहीं होता। ऐसा पिछले सालों के कई शोधों से पता चलता है। मगर यह धन पूंजीवादी संचयन के लिए बेकार है क्योंकि इसके आधारभूत सिद्धांत अलग हैं। अर्थशास्त्री कल्याण सान्याल इसे ज़रूरत की अर्थव्यवस्था कहते हैं। पिछले चालीस पचास बरसों में इस पर जो कुछ भी काम हुआ है उससे यह स्पष्ट है कि यह न तो पारंपरिक क्षेत्र है (जैसा उसे पहले कहा जाता था) जिसके विलोप की उम्मीद अर्थशास्त्री लगाये बैठे थे, और न  ही यह अनौपचारिक क्षेत्र सिर्फ़ कगार पर जीने और कार्य करने वाली इकाइयों का क्षेत्र है बल्कि अच्छी ख़ासी मात्रा में धनोपार्जन करने वाला क्षेत्र है।

उत्तर-पूंजीवाद के स्रोत
अगर ये बातें सही हैं तो इस ख़याल को हमें दिमाग़ से निकाल देना होगा कि पूंजीवाद इंसानी फ़ितरत के अनुकूल कोई व्यवस्था है। यह भी याद रखना ज़रूरी है कि न सिर्फ़ उपभोग और संचयन किसी स्वाभाविक इंसानी प्रकृति का प्रतिफलन नहीं हैं बल्कि उसके लिए अनुकूल स्थितियां पैदा करने के लिए सारी दुनिया में ज़बरदस्त हिंसा का प्रयोग हुआ है।संपत्ति’ के उन तमाम रूपों को जो पूंजीवादी व्यक्तिगत संपत्ति के वजूद में आने से पहले देखने को मिलते हैं, पूरी तरह नेस्तनाबूद करके ही हर जगह पूंजी का एकछत्र राज क़ायम हुआ है। हमारे मुल्क में ऐसी संपत्ति’ तो थी ही जिनमें मिल्कियत से ज़्यादा इस्तेमाल के अधिकारों पर ज़ोर रहा करता था (मसलन आदिवासी/ क़बाइली लोगों के ज़मीन से सदियों से चले आ रहे रिश्ते या ग़ैर- मज़रुआ या शामिलाती ज़मीन), इनके अलावा भी पारिवारिक संपत्ति के कई रूप हुआ करते थे। दिलचस्प बात यह है कि दुनिया के बड़े हिस्से में – ख़ासकर एशिया व अफ़्रीका के देशों में – हज़ार कोशिशों के बाद भी संपत्ति के वे पुराने रूप आज भी विराजमान हैं। उन्हें दो सौ साल का उपनिवेशवाद और उसके बाद सत्तर से ज़्यादा सालों का स्वतंत्र पूंजीवादी विकास ख़त्म नहीं कर पाया है। इसीलिए इन देशों को अक्सर ‘अविकसित’ पूंजीवादी देश कहा जाता है।
इस पूरे सूरतेहाल को अगर ग़ौर से देखें तो पायेंगे कि दरअसल इन्हें देखने के दो तरीक़े हो सकते हैं। अगर पश्चिम के पूंजीवाद को आदर्श और पैमाना माना जाये तो हमें यह सूरत हमेशा एक ख़ामी की तरह दिखायी देगी। दूसरी तरफ़ अगर हम इसे आज के उस संदर्भ में पुनर्विवेचित करें जिसकी चर्चा हम ऊपर कर रहे थे तो तस्वीर बिलकुल अलग दिखायी देगी। तब हमें यह अहसास होगा कि पिछले दो सौ सालों से दुनिया जिस ख़याल को लेकर चल रही है कि इंसान और इंसान की ‘अर्थव्यवस्था’ सर्वोपरि है और प्रकृति और उससे जुड़ी आबादियां (जैसे आदिवासी) सब उसकी ख़ातिर बलि चढ़ाये जा सकते हैं  - यह ख़याल आज बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुका है। आज यह समझ में आ रहा है कि जिस पूंजीवाद को हम ‘तरक्क़ी’ मानते रहे हैं उसकी बुनियाद उपनिवेशवाद और अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया आदि की देशज आबादियों के जनसंहार पर टिकी है; उसकी बुनियाद अटलांटिक ग़ुलाम व्यापार पर टिकी है। यह अनायास नहीं है कि पिछले दशकों में लातिन अमरीका में उभरे वामपंथ के शीर्ष में या तो इवो मोरालेस जैसे देशज क़बाइली नेता थे या फिर उनकी जीवनशैलियों और सोच को बोलिविया, इक्वाडोर आदि देशों के संविधानों में केंद्रीय जगह दी गयी है। पिछले दशकों में अफ़्रीका के ज़ुलु शब्द उबंटू’ (जिसके मायने हैं कि व्यक्ति समष्टि के साथ ही व्यक्ति होता है), से लेकर ‘बुएन विविर’ या सुमक कौसे’ (अर्थात बेहतर जीना’) के विचारों का दोबारा चलन में आना इसी नयी संवेदना का इज़हार करता है और पूंजीवाद के व्यक्तिकेंद्रिक फ़लसफ़े के बरअक्स सामूहिकता का नया फ़लसफ़ा पेश करता है।
यहां चलते चलते यह भी कहते चलें कि दरअसल इस नये मोड़ के तार बुज़ुर्ग मार्क्स के आख़िरी दशक के अध्ययनों और उनके सोच में आ रहे तेज़ बदलावों से भी जुड़ते हैं। ज़िंदगी के इस आख़िरी दशक में उन्होंने रूस की सामूहिक कृषक संपत्ति के सवाल का गहन अध्ययन शुरू किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि न तो समाज की तरक्क़ी के लिए और न ही समाजवाद के लिए पूंजीवाद की कोई अनिवार्यता है। 1882 में उनकी मृत्यु के एक साल पहले कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो का जो रूसी संस्करण शाया हुआ, उसमें मार्क्स व एंगेल्स के संयुक्त हस्ताक्षर से लिखी गयी भूमिका में यह बात खुल कर कही गयी थी कि रूस में यह सामूहिक कृषि संपत्ति ही समाजवाद का आधार बन सकती है।
इस बात को निगाह में रखते हुए अब एक बार फिर नवकोरोनाकाल में पूंजीवाद के सामने खड़ी चुनौतियों पर एक नज़र डालना मुनासिब होगा। हमें भूलना नहीं चाहिए कि 2008 की आर्थिक मंदी के बाद से पूंजीवाद का जो संकट उभर कर सामने आया था वह अब भी जारी है – यानी कोविड-19 के अविर्भाव से पहले तक वह जारी था और इस दौर ने उसे एक ऐसे गर्त में धकेल दिया है कि उससे उबर पाना उसके लिए लगभग नामुमकिन होगा। 2008 के बाद से चले आ रहे संकट के पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि उस मंदी के तजुर्बे ने विकसित पूंजीवादी देशों के लोगों को यह दिखा दिया था कि उनकी ज़िंदगी उनके क़ाबू से बाहर है और कहीं न कहीं बैंकों और कॉर्पोरेशनों के चंगुल से निकलना बहुत ज़रूरी है। ज़ाहिर है इन देशों में उनकी गिरफ़्त से निकलना’ तो आसान नहीं है, मगर बदलाव का एक अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां अमरीका में 2008 से पहले पारिवारिक या व्यक्तिगत बचत दर नेगेटिव थी – यानी लोग क्रेडिट कार्डों के चलते उधार में जीने के आदी हो चले थे – वहीं 2019 में यह दर 7.5 फ़ीसदी हो गयी थी। अर्थात आय का एक अच्छा ख़ासा हिस्सा ख़र्च होने के बजाय बचाया जा रहा था। इसी दौरान हुए कुछ सर्वे यह भी बताते हैं ही अमरीका व यूरोप के 25 से 30 साल की उम्र वाले नौजवान लोग पूंजीवाद की बनिस्बत समाजवाद को बेहतर मानते हैं। नवकोरोना के इस दौर में जब पूंजीवाद का सबसे घिनौना और क्रूर चेहरा देखने को मिला है तब इस प्रवृत्ति के और तेज़ होने की संभावना ही ज़्यादा है। इधर इस स्थिति का एक असर यह हुआ है कि स्पेन और आयरलैंड जैसे देशों ने इस दौर में स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था और अस्पतालों का अस्थाई रूप से राष्ट्रीयकरण करके यह बता दिया है कि पूंजीवादी मुनाफ़े की हवस के चलते यह व्यवस्था इस तरह के गहरे संकट से निबटने क़ाबिल नहीं है। कई देशों ने इस दौरान अपने नागरिकों की देखभाल के लिए अस्थाई तौर पर एक आमदनी की व्यवस्था भी की है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि पूंजीपतियों व कॉरपोरेशनों के वर्ग-युद्ध से जो भी तस्वीर हमें दिखायी देती हो मगर इस दौर के झकझोर देने वाले तजुरबों की वजह से नवउदारवाद और पूंजीवाद का तिलिस्म बहुत हद तक टूट ही चुका है। जिन्हें यह गुमान था कि इन व्यवस्थाओं के पास सारी समस्याओं का हल है, उन्हें ज़रूर नये सिरे से सोचना होगा।
मो0 9871406520

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