मुकेश कुमार





 दो कविताएं

1. सफ़ूरा के लिए

तुम्हारे गर्भ में पल रहा बच्चा
सुन रहा है बाहर की आवाज़ें
अंदाज़ लगा रहा है उस दुनिया का
जिसमें रहना है उसे कल
उसे सुनायी दे रहा है सब कुछ
गालियां, नफ़रत के बोल
भेदभाव, उन्माद के डरावने स्वर
झूठ से भरे कोलाहल में
सच सुनने की कोशिश करता है वह कान लगाकर 

उसे पता नहीं है कहां है
जेल की चारदीवारी के भीतर / या बाहर की खुली जेल में
जहां उतनी ही ऊंची और मज़बूत दीवारें उठा दी गयी हैं
और उतनी ही घुटन है  / कि सांस लेना भी दूभर हो जाता है कई बार

उसे मिला है मां से हौसला और हिम्मत
इसलिए कई बार मुट्ठियां तानकर
नारा लगाने की कोशिश करता है वह आज़ादी का
उसकी हलचल से विचलित मां
शांत करती है उसे प्यार से सहलाते हुए
वह जानती है कि क़ातिलों को यह बर्दाश्त नहीं
वे किसी को भी मार सकते हैं
कहीं भी उतार सकते हैं अपनी घृणा की कटार।

2 आई कांट ब्रीद, आई कांट ब्रीद
गोरे हिंसक घुटनों के नीचे दबी हुई है
तनी हुई नसों वाली
मेहनती, गर्वीली, काली गर्दन
दर्द से छटपटाती / विनीत स्वर में कह रही है
आई कांट ब्रीद, आई कांट ब्रीद

किसी की छाती पर सवार है
कोई कट्टर हिंदू, बौद्ध, मुसलमान
दबाव बढ़ाता जा रहा है वह
सिकुड़ते हुए फेफड़े
हांफते हुए कह रहे हैं
मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं
आई कांट ब्रीद, आई कांट ब्रीद

किसी दलित आदिवासी की गर्दन मरोड़ रहा है कोई
किसी स्त्री के मुंह-नाक दबा दिये हैं किसी ने
कोई बेचैन है नाउम्मीदी से
कोई घुट रहा है अंधे भविष्य की आहट से
बस बड़बड़ाये जा रहे हैं सब मन ही मन
आई कांट ब्रीद, आई कांट ब्रीद

हवाओं में भर दिया गया है
इतना ख़ौफ़, इतनी नफ़रत
कि प्रेम, भाईचारे की गंध भी नहीं बची
सोख ली है सत्ता ने सारी ऑक्सीज़न
शंकाओं से बजबजा रहा है वातावरण
सांस लेना संभव नहीं रहा
बुदबुदा रहे हैं डरे-सहमे लोग
आई कांट ब्रीद, आई कांट ब्रीद

पूरी पृथ्वी घिरी हुई है
धुएं और असह्य तपिश से
जप रही है एक ही मंत्र बार-बार
ब्रह्मांड में प्रतिध्वनि गूंज रही है लगातार
आई कांट ब्रीद, आई कांट ब्रीद
मो0 9811818858

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