तीन कविताएं
मनजीत मानवी
1. स्त्री द्वारा लिखी कविता
एक स्त्री अपनी कविता के उभरते आखर
कुर्सी मेज़ या बिस्तर की सुगमता लिए
केवल कलम से नहीं लिखती,
अनेक बार शब्दों का शोरबा
पकता रहता है उफन उफन कर
गैस की पीली आंच पर
दाल के पतीले में या फिर
सब्ज़ी काटते चाकू की धार पर
उठती गिरती रहती हैं ध्वनि की तरंगें
बच्चों को दूध पिलाते गिलास की तलछट में
ठहरी हुई रात की अनमनी करवट में
बिस्तर पे चादर की अवसाद में डूबी सिलवट में
घुमड़ते रहते हैं भावनाओं के भंवर
मर्यादा की उमसदार गर्दन से बंधी पोटली में
कमाऊ पति परमेश्वर की दंभ भरी गाली में
नमक फालतू मिलने पर फेंकी हुई थाली में
बनते बिगड़ते रहते हैं छंदों के झुरमुट
नन्हें से बच्चे की किलकारियों की गूंज में
बारिश की पत्ते पर गिरती थरथराती बूंद में
दूर कहीं शाख़ पर अटकी कोयल की कूक में
संशय और ख़लल के न जाने कितने
महीन सुराख़ों से हो कर गुज़रता है
एक स्त्री द्वारा बुने लफ़्ज़ों का टेढ़ा मेढ़ा
थका हारा इधर उधर भागता फंदा
थका हारा इधर उधर भागता फंदा
तब कहीं जोड़ से जोड़ मिल कर
उद्विग्न मनोभावों से सिल कर
रात की स्याही में घुल कर
लिखी जाती है एक स्त्री की कविता
जिसे वो अक्सर कविता नहीं मानती
स्वयं के साथ हुआ एक धोखा मानती है
एक ऐसा धोखा जिसकी शिराओं में
मरहम भी है, और ज़लज़ला भी !!!
2. आंकड़ों के लिहाफ़ में
ये कुछ आंकड़े ही थे जो देर सवेर
हमारे भी होने की ख़बर दे देते थे
देस दुनिया के अख़बारों और पहरेदारों को
हम बिना किसी उत्पात के
रुई की तरह घुस जाते थे
हर दशक के आकड़ों के लिहाफ़ में
अपने अपने दुखों की गठरी लिये
कभी जनसंख्या की भीड़ बन कर
कभी नागरिकता का चोंगा पहन कर
सोचते थे जन गण मन के फलक पे
हम भले ही न हों अधिनायक
लेकिन जनगणना में हमारी गणना तो है
अब सियासत की आंधी छीन रही है
नागरिकता के भटकते आंकड़ों का
वो धूसर जर्जर लिहाफ़ भी
हमें राष्ट्र का नागरिक मान कर
रोज़ी रोटी दे पाना तो ख़ैर
अभी बहुत दूर की बात थी !
3. शब्दजाल
आश्चर्य की बात है कि अनेक समान शब्द
एकसमान अर्थ के बावजूद भी
कितने अलग दिखायी देते हैं
लैंगिक संबंधों की रणभूमि में
मसलन एक शब्द है ‘चरित्र’
कैसे चमक उठता है
इस शब्द का मुकुट
एक पुरुष के ललाट पर
रोशन हो जाती है जैसे कायनात सारी
बजने लगते हैं कानों में ढोल नगाड़े
रचा जाने लगता है एक पूरा इतिहास
कुलीन चरित्रवान की अद्भुत ताजपोशी का
मगर ठीक यही शब्द 'चरित्र'
कितना अजनबी कितना विचित्र
कितना अनमना अस्तव्यस्त सा लगता है
जब किसी स्त्रीदेह की खूंटी पे जा अटकता है
लगता है जैसे अपना नियत स्थान छोड़ कर
किसी अपरिचित के घर में आ गया है
दमकते ताज से छिटक कर
बंजर भूमि में समा गया है
ठीक इसी तरह अनेक और शब्द हैं पौरुष के तरकश में
मसलन 'शरीर', 'इज़्ज़त', 'पवित्रता', 'यौनिकता'
'लाज शर्म', 'शालीनता', ‘सामाजिकता’ आदि आदि
बरसों से जिनके मखमली जाल
प्राचीन सभ्यता और आधुनिक संस्कृति के
हर मुहाने पे बिछे नज़र आते हैं
पुरुष की अंतरात्मा को रिझाने के लिए और
एक स्त्री के स्त्रीत्व को आज़माने के लिए
यहां तक कि प्रेम और निष्ठा जैसे
निर्दोष और निष्पक्ष शब्द के अर्थ भी
स्त्री पुरुष के प्रवृत संदर्भ में
स्वतः अलग अलग हो जाते हैं
पुरुष के लिए प्रेम स्वयं का विस्तार है
जबकि स्त्री प्रेम के भंवर में
और भीतर सिमट जाती है
ठौर ठिकाने से कट कर बावली सी हो जाती है
दिल की बात तो इंसान
इशारों से भी कर लेता है
बरसों बरस संप्रेषण का कौशल
बिन भाषा के ही पनपा है
फिर भी शब्दों की कोई तो महत्ता है
एक स्त्री के लिए यह महत्ता
तमाम अन्य वजहों की अपेक्षा
कहीं ज़्यादा मौलिक और केंद्रीय है
क्योंकि उसे ताक़त के मोहपाश में उलझे
एकांगी अधिकार के करघे पर बुने
नाहक फैले इस सुनहरे शब्दजाल के
हर फंदे को सुलझाना है !
मो. 9896850047
नायक
शैलेंद्र अस्थाना
मैं प्रबुद्ध
रक्त शुद्ध
इतिहास विरुद्ध
भूगोल अवरुद्ध
शब्द नहीं चिंघाड़
ओठ पर लताड़
सत्य का सन्नाटा
झूठ का पहाड़
भीष्म का वंश
ग्रंथ विवेक ध्वंस
वंदना में कृष्ण
चेतना में कंस
बात में दिलेर
काग़ज़ के शेर
कुर्सी के राजा
लक्ष्मी के चेर
छद्म राष्ट्रभक्त
ज्ञान से विरक्त
जन से कटा-कटा
धन से अनुरक्त
न्याय के रक़ीब
ज़ुल्म के क़रीब
स्वर्ग के अभिशाप
नरक के नसीब
मो. 9470505915
चार कविताएं
अशोक सिंह
1. छोटे लोग
छोटे लोग हमेशा तादाद में अधिक होते हैं
अक्सर लंबी होती है उनकी सूची
लंबे नहीं होते उनके हाथ
नाक ऊंची नहीं होती उनकी
छोटा होता है उनका क़द
छोटी होती है उनकी दुनिया
होती हैं मुट्ठी भर छोटी-छोटी चाहतें
छोटे लोग अक्सर गली-कूचे में रहते हैं
पहनते हैं फुटपाथी कपड़े
चलते हैं फुटपाथ पर पैदल
छोटे लोग अक्सर
लदे-फदे करते हैं गाड़ियों में यात्राएं
लाइन में खड़े होकर लेते हैं टिकट
मोल-भाव कर ख़रीदते हैं चीज़ें
और जैसे-तैसे खींच-तानकर
बिताते हैं जीवन
छोटे लोग अक्सर घेरते हैं बड़ी जगह
पर अफ़सोस
मुट्ठी भर से ज़्यादा जगह नहीं होती उनके पास
छोटे लोगों से ही बनती है बड़े लोगों की दुनिया
उनके होने से ही अक्सर पहचाने जाते हैं बड़े लोग
छोटे लोग भीड़ में तख्तियां उठाये
लगाते हैं नारे
और अपनी छोटी-छोटी मांगों के लिए
अक्सर मारे जाते हैं जुलूस में
बड़े लोगों की गोली से
छोटे लोग अक्सर सुनते हैं नीचे बैठकर
बड़े लोगों का भाषण
बड़े लोग मंच पर बैठ
करते हैं बड़ी-बड़ी बातें
वैसे चलने को तो बहुत दूर तक चलते हैं
पर कहीं पहुंच नहीं पाते छोटे लोग
छोटे लोग बसाते हैं बड़े-बड़े शहर
और ख़ुद होते जाते हैं
दिन-व-दिन शहर से दूर ...
छोटे लोगों पर
और तो और
छोटे लोग अक्सर डरते हैं बड़े लोगों से
लेकिन जब वे डरना छोड़ देते हैं
तो डरने लगते हैं उनसे बड़े-बड़े लोग
2. बोलो
यह चुप रहने का वक्त़ नहीं है
बोलो ! और दहाड़ते आतंक के बीच फटकारकर बोलो !
संभव है एक दिन भोगनी पड़े तुम्हें
बहुत कुछ बोलने की हिम्मत बटोरते
कुछ न बोल पाने की पीड़ा
उस जगह पहुंच कर
कुछ कर सकने के बारे में मत सोचो
जहां पहुंचकर सरसों के दाने-भर रह जाता है आदमी
जो चुप हैं उन्हें चुप रहने दो
उनकी गहराती चुप्पी ही तुम्हारे बोलने की ताक़त है
उसका इंतजार मत करो जिससे मिलकर
तुम्हारी मुट्ठियों में कसमसाता गुस्सा पिघल जाता है
बोलो ! और कुछ इस क़दर बोलो
जिस क़दर आज तक
किसी ने बोलने का साहस नहीं किया
अपने समय की गहराती चुप्पी के ख़िलाफ़ बोलो
और वह सब कुछ बोलो जो
आज तक कभी बोला नहीं गया
बोलो ! चाहे बोलने में जितना भी विरोध सहना पड़े
मगर बोलो और बार-बार बोलो !
बोलो कि अच्छे दिन आने में
अब कितने वर्ष और लगेंगे?
इतना बोलो ! इतना बोलो !
कि सामने वाला चुप्पी तोड़कर बोले
कि बहुत बोलते हो तुम !
3. यह जो गहराता हुआ अवसाद
यह जो गहराता हुआ अवसाद आज मेरे हिस्से में है
कल तुम्हारे हिस्से में भी हो सकता है
परसों किसी और के भी
छूत की बीमारी की तरह फैल रहा है यह
और हमारी यह पीढ़ी
अपनी-अपनी दुनिया में मस्त
स्मार्टफ़ोन की स्क्रीन पर उंगलियां नचाते
रात-रात भर जाग रही है
यह एक कड़वा सच है
कि हम बौने दिमाग़ वाले लोग
अक्सर अपनी चुनौतियों को
कम करके चिह्रित करते हैं
और विफल हो जाते है हर मोर्चे पर
फिर सच चाहे अपना हो या पराया
उससे सामना करना मौत से कम नहीं होता
और मौत कितनी भयानक होती है
ज़िंदगी की दरिया की सतह पर
तैरने वाला व्यक्ति नहीं जानता
कैसी बिडंबना है कि
हम विरोध जताने की पूरी हिम्मत बटोरते
निरंतर चुप रहते और झेलते हैं अंदर का धिक्कार
एक ऐसे समय में
जब बाढ़ के पानी की तरह
पसर रहा है अवसाद हमारे चारों ओर
और लोग बचा रहे हैं
अपनी-अपनी दुनिया, अपना-अपना घर
बोलो ! बोलो अशोक सिंह !
बोलो कि व्यवस्था के विरुद्ध हमारी यह चीख
कविताओं के बाद कहां जा रही है...?
4. कितना मुश्किल है
कितना मुश्किल है
इस दौर में झूठ के ख़िलाफ़
दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोलना
उठाना असहमति में अपने हाथ
किसी गंभीर दिखती बहस में
लगभग पूरी सहमति के बीच
रात को रात
ख़ून को ख़ून
और दुश्मन को सीधे दुश्मन कहना
मुश्किल है कितना
याद रखना सफ़र की पिछली सारी बातें
और वे तमाम चेहरे भी
जिन्हें याद रखना
बहुत ज़रूरी होता है हमारे लिए !
भूल पाना अपनी इच्छाओं को
उनकी पूर्ति के बजाय
और उसमें भी
रसोई से बिस्तर तक के बीच हो रहे निरंतर
बाज़ारू हमले के बीच रहते हुए
कितना मुश्किल है
दुनिया के टंटों से ख़ुद को दूर रखते
एक छोटी सी साफ़-सुथरी सौम्य ज़िंदगी जीना
यह सच है कि
तुम्हारे बारे में सोचते हुए
एक अजीब सी ख़ुशबू से
भर जाती है दुनिया
पर कैसे बताऊं कितना मुश्किल है
एक व्यस्त शहर में रहते
दाल-रोटी की जुगाड़ में लगे रहने के बीच
अपनी जेब में रखी पर्स में लगी तुम्हारी तस्वीर को
बार-बार निकाल कर देखना।
मो. 9431339804/9955990374
तीन कविताएं
नरेश अग्रवाल
1. फ़र्क़ नहीं मिटा
सभी सोचते थे
वोट के अधिकार से
जूते पहनने वाले
और नंगे पांवों का फ़र्क़ मिट जायेगा
या सिर पर टोपी
या सिर पर धूप सहने वालों के बीच का
फ़र्क़ मिट जायेगा
वर्ष-पर-वर्ष बीत गये
लाइन में लगकर लोग वोट डालते रहे
फिर भी फ़र्क़ नहीं मिटा
थोड़ा-थोड़ा करके यह बहुत बड़ा हुआ
मुस्कुराहटें और बड़ी हो गयीं
दुख और बड़ा हो गया
अभाव चंद किलो अनाज में सिमट गया
साथ ही बड़ों के द्वारा
छोटों की खुशियां छीनना भी आसान हो गया
अब इनके पास नये तरीक़े हैं
नये साधन मौजूद
नंगे पांव से चमड़ी भी उतार लेने के!
2. ग्रीटिंग कार्ड
ग्रीटिंग कार्ड में एक किसान होगा
खेत होंगे, लहलहाती फ़सलें होंगी
काम करते लोग होंगे
कुएं और छोटे-से पोखर
कुछ बैल और आकाश में उड़ते पक्षी भी
इन सबके चित्रण से बन जायेगा
एक शानदार उपहार
चाहे वह नहीं दे सकेगा इन्हें किसी को
लोग ज़रूर देते रहेंगे इसे एक-दूसरे को
सभी कहेंगे यह धरती कितनी ख़ुशहाल है
प्रकृति के सौंदर्य से आपूर
सभी इस कार्ड पर अपना नाम लिखेंगे
प्यार से बांटेंगे लोगों को
किसान कितना अनभिज्ञ रहेगा इनसे
नहीं होंगे कहीं उसकी जुताई के हस्ताक्षर
न ही बीजों को छिड़कने की प्रक्रिया
न ही धूप में रिसता उसका श्रम
हर चीज़ तो उसकी चुरा ली जाती है
दृश्य भी चुरा लिये गये तो क्या हुआ
पास रहेंगी उसकी बलिष्ठ भुजाएं
पास रहेगा उसका सर्जक श्रम!
3. दोस्ती
मित्र तुम पीले होकर झड़ने वाले हो
मैं तो अभी-अभी जन्मा हूं
अभी-अभी तुमसे दोस्ती हुई है
कुछ दिनों का ही साथ रहा
अब क्या करूं?
बस देखता रहूंगा तुम्हारा झड़ना
ज़मीन पर गिरना
और सूखकर उड़ना
मेरी दोस्ती इतनी प्रगाढ़
मन करता है
छोड़कर डालियों का साथ
निकल पडूं तुम्हारी ही यात्रा पर
लेकिन मैं मजबूर
पर चाहे अभी संभव न हो
कुछ दिनों बाद ज़रूर!
मो. 9334825981, 7979843694
दो कविताएं
महेश केशरी
1. माफ़िया
उनकी नज़रें हमेशा
तलाशतीं रहतीं हैं ।
ख़ाली - खुली जगहें।
वे, खुले चारागाहों पे,
नज़रें गड़ाये हुए होते हैं ।
और उनकी नज़रें, ख़ाली पड़े
बाग़-बगीचों पर भी गड़ी होती है ...।
जो गाय-बैल, भेड़-बकरियों
के चरने के लिए
होती हैं ।
उस पर वे कंक्रीट के जंगल
उगाना चाहते हैं ।
वे नहीं चाहते हैं कि
छोटे-छोटे बच्चे जो खेलते
हैं, ख़ाली- खुली जगहों पर
वे वहां खेलें ।
उन पर वे कब्ज़ा
करना चाहते हैं ।
उनके कब्जा करने की
चाह ख़त्म ही नहीं होती है ।
अलबत्ता वे कब्ज़ा करते जा
रहे है, शहर के पुराने
टूटे क़िले-खंडहरों के अवशेषों पर ।
जो, कभी प्रेमी जोड़ों के
मिलने की सबसे सुरक्षित
जगहों में से एक
मानी जाती थी।
वे सांठगांठ से सबकुछ
कर सकते हैं ।
वे लगातार खोद कर
बेचते जा रहे हैं
नदियों का रेत ।
नदियां होती जा रहीं हैं
ख़ाली ।
वे लगातार काटते जा रहे
हमारे, पहाड़ का सीना।
और,
पहाड़ को फाड़कर
निकाल लेना चाहते हैं
सारा का सारा पत्थर।
वे छीन लेना चाहते हैं
धरती की हरियाली
और झोंक देना चाहते हैं
हमारे भविष्य को अंधकार में ।
और, तो और, एक अख़बारी
कतरन, के अनुसार,
उन्होंने
कब्ज़ा कर लिया है
शहर के सबसे आख़िर में
बने क़ब्रिस्तान पर
जहां मुर्दे दफ़नाये जाते हैं ।
2. घोषणाएं
राजनीति और भूख में
बड़ा गहरा संबंध होता है।
भूख केंद्र में होती है
और उसके इर्दगिर्द
घूमती रहती है
राजनीति ।
कभी-कभी लगता है.
राजनीति नदी के दो
किनारों की तरह होती है।
जिसके एक सिरे पर
होता है आदमी
और दूसरे सिरे पर होती हैं
राजनीतिक
घोषणाएं
जैसे - सबको रोटी, सबको शिक्षा
सबको स्वास्थ्य, सबको आवास
और सबको
रोज़गार ।
या फिर
राजनीतिक घोषणाएं ,
और लोगों की ज़रूरतें
रेल की दो समानांतर पटरियों की तरह
होतीं हैं
जो चलती तो
साथ-साथ हैं
लेकिन, आपस में
मिलती कभी नहीं।
मो.9031991875
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