कोरोना काल : प्रवंचनाओं के संदर्भ-3


      कोविड-19 का दौर और श्रमिक वर्गीय आंदोलन
जे. एस. मजूमदार

कोविड-19 से संबंधित दो मूल बातों को रेखांकित करना आवश्यक है : पहली,  इस राष्ट्रीय आपदा के प्रबंधन के बारे में और दूसरी, स्वयं कोविड-19 के बारे में।

आपदा प्रबंधन के बारे में
कोविड-19 से संबंधित लॉकडाउन और अन्य दिशा-निर्देश राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा जारी किये जा रहे हैं। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत यह एक 9 सदस्यीय प्राधिकरण है जिसके सदस्य 5 साल के लिए नियुक्त किये जाते हैं। अध्यक्ष होने के नाते प्रधानमंत्री इसके सर्वोच्च प्राधिकारी होते हैं। प्राधिकरण के निर्णयों को निष्पादित करने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यकारी समिति होती है। प्राधिकरण के निर्णयों का पालन केंद्र और राज्य सरकारों के लिए बाध्यकारी है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को (i) ट्रेड यूनियन अधिकारों सहित नागरिक स्वतंत्रता में कटौती करने, (ii) केंद्र-राज्य संबंधों और संघीय अधिकारों पर अंकुश लगाने, और (iii) प्रतिबंध लगाने  को लेकर असाधारण अधिनायकवादी शक्ति मिली हुई है।

कोविड-19 के बारे में
यह कोरोना समूह का एक वायरस है जिसे विश्व स्वस्थ्य संगठन द्वारा कोरोना वायरस रोग 2019 (कोविड-19) नाम दिया गया है। इस वायरस के ख़िलाफ़ अभी कोई दवा उपलब्ध नहीं है। जो उपलब्ध है, वह केवल एंटीबॉडी है, जिसे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के माध्यम से विकसित किया गया है। यह हमें आत्म-रक्षात्मक तंत्र और / या उधार लिये गये अर्थात टीकाकरण के ज़रिये वायरस से बचाता है। कोविड-19 कोरोना वायरस समूह का एक नया वायरस है जिसे हाल ही में पशु से मानव में प्रेषित किया गया है; और इसलिए मानव शरीर में प्रतिरक्षा प्रणाली के माध्यम से एंटीबॉडी विकसित नहीं हो पाया है। इस वायरस के ख़िलाफ़ टीका विकसित करने में अभी समय लगेगा। तेज संक्रमण और अधिक मृत्यु दर के कारण यह महामारी फैली; और इसलिए लॉकडाउन और प्रतिबंधों का औचित्य बनता है। लेकिन, इन उपायों से हम  एक्सपोज़र की प्रक्रिया को केवल लंबा कर रहे हैं या और आगे टाल रहे हैं । पर सवाल है कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कैसे विकसित होगी। इसके बारे में किसी को भी अभी तक कोई सुराग़ नहीं मिला है। कोविड-19 स्थायी रूप से हमारे साथ रहने वाला है क्योंकि हम छोटे चेचक और चिकन पॉक्स वायरस के साथ जी ही रहे हैं, भले ही टीकाकरण के कारण लोगों में इससे बीमार पड़ने की संभावना कम हो गयी। इसी तरह हम कोविड-19 के ख़िलाफ़ भी तंत्र विकसित कर लेंगे और भविष्य में सुरक्षात्मक उपाय अपनाते हुए इसके साथ रहेंगे।

कोविड-19 की आड़ में पूंजीवाद को मज़बूत करने का अभियान
कहा जाता है कि महामारी के कारण या वैसे भी युद्ध और संकट हमेशा शासकों की मदद करते हैं। यह कोविड-19 के लिए भी सही है। यहां महामारी इसकी अधिक बड़ी वजह है। पूंजीवादी विकास की राह पर चल रहे देश इस कोविड-संकट के दौरान पूंजीवाद को और मज़बूत कर रहे हैं तथा मेहनतकश जनता के विशाल समूह पर दुःख का पहाड़ लाद रहे हैं। पूंजीवादी व्यवस्था की यह हक़ीक़त हमेशा से रही है। उदाहरण के लिए, जब नवउदारवादी नीतियां विफल हो गयीं, तो शुरुआती बढ़ावे के बाद, पूंजीवादी देशों ने कॉर्पोरेट द्वारा सार्वजनिक निधि और व्यक्तिगत बैंक जमाओं को हड़पने के लिए 'बेल-आउट' और / या 'बेल-इन' पैकेजों को दिया। इसी तरह 2007 के अंत या 2008 के आरंभ में जब विश्वस्तर पर आर्थिक संकट चल रहा था,तब भी विकसित पूंजीवादी देशों ने आईएमएफ़ और यूरोपीय सेंट्रल बैंक के निर्देश  पर रोज़गार, पेंशन और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कटौती की।

कामगारों, किसानों और अन्य मेहनतकश तबक़ों  पर सबसे बड़ी  चोट
कोविड-19 के कारण आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के आदेश द्वारा 25 मार्च 2020 को भारत में देशव्यापी लॉकडाउन और प्रतिबंध लगाये गये थे। इसे समय-समय पर नये दिशानिर्देशों के साथ बढ़ाया जा रहा है। रोग के फैलाव के आधार पर लॉकडाउन संबंधी दिशानिर्देशों  में सख्त़ी और नरमी का रुख़ लंबे समय तक देखने को मिलेगा । कोविड-19 लॉकडाउन से बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूरों, किसानों, मेहनतकश तबक़ों और अन्य हाशिये के लोगों पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा है। गांवों में रह रहे अपने प्रियजनों की चिंता से परेशान बेरोज़गार, ग़रीब, आश्रयहीन, भूखे लोग लॉकडाउन की वजह से रेल या सड़क परिवहन की नियमित सुविधा न होने के कारण अपने  घर नहीं लौट पा रहे रहे थे । ऐसे में करीब 10 करोड़ से अधिक प्रवासी मज़दूरों और अन्य प्रवासी ग़रीबों को अपने बोरिया-बस्तर के साथ हज़ारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनमें से सैकड़ों भूख और हादसे से सड़कों व रेल पटरियों पर और कुछ तो हाल में ट्रेन के अंदर मर गये । सहानुभूति के बदले पुलिस और प्रवर्तन अधिकारियों द्वारा उन्हें सड़कों और राज्य सीमाओं पर अपमानित और प्रताड़ित किया गया। उन पर क्रूर हमले किये गये। यह राष्ट्रीय त्रासदी और शर्म इस बात का प्रमाण है कि भारतीय गणराज्य के गठन के 70 साल बाद भी श्रमिकों की बदहाली कम नहीं हुई है।
लॉकडाउन के कारण कृषि क्षेत्र को बहुत नुक़सान हुआ। कटाई में देरी या फ़सल की हानि से कृषि श्रमिकों को अपने काम और आजीविका से हाथ धोना पड़ा। किसानों को अपने कृषि उत्पादों के लिए फ़सल-हानि, बाज़ार-हानि और मूल्य-हानि का सामना करना पड़ा। लॉकडाउन के कारण हाशिये के वर्गों की भी दिन-प्रतिदिन की आजीविका चली गयी।

अधिनायकवादी शासन लागू करना
कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान केंद्र में लोकतांत्रिक और संसदीय प्रणाली पर अंकुश लगाने के लिए एक अधिनायकवादी शासन स्थापित किया गया है जो लॉकडाउन के नाम पर पर पुलिस बल के इस्तेमाल द्वारा लोगों की गिरफ़्तारी करता है, उन्हें हिरासत में रखता है और भीड़ को तितत-बितर करके  श्रमिकों और लोगों के विरोध के अधिकार को दबा रहा है।


पूंजीवाद को मज़बूत करना
सत्तारूढ़ शक्तियां पूरी आक्रामकता और ताक़त के साथ भारत में पूंजीवाद को मज़बूत कर रही हैं। आत्मनिर्भर भारत के नाम पर प्रधानमंत्री लोगों को गुमराह कर रहे हैं । नीति आयोग ने जिस तरह से मौजूदा स्थिति का विश्लेषण किया है, उसमें पूंजीवाद को मज़बूत करने का दृष्टिकोण साफ़ झलकता है। इसके पांच बिंदु वाले निष्कर्ष इस प्रकार हैं:
(i) घर से काम (डब्ल्यूएफ़एच): नीति आयोग के अनुसार डब्ल्यूएफ़एच में किसी भी काम के लिए 8 घंटे की दैनिक सीमा जैसी बंदिशों से मुक्त होने की ओर प्रोत्साहित करने का सबसे अच्छा समय है। डब्ल्यूएफ़एच टुकड़ों में किया जाने वाला काम बन जायेगा और वह भी, अनुबंध के आधार पर। इससे ऑफ़िस स्पेस और अन्य परिवहन लागत आदि पर होने वाले ख़र्च में भी बचत होगी।
(ii) चीन से आपूर्ति शृंखला को तोड़ना: नीति आयोग के अनुसार, कोविड-19 महामारी के कारण एक ऐसी वैश्विक स्थिति बनी है जो चीन की बाहरी आपूर्ति शृंखला को तोड़ देगी और इससे भारत जैसे देश के लिए दवाओं के कच्चे माल, मोबाइल पार्ट्स, ऑटो-पार्ट्स आदि की आपूर्ति की संभावना बढ़ेगी। इस स्थिति में केंद्र सरकार यह अनुमान लगा रही है कि कई बहुराष्ट्रीय निगम अपनी उत्पादन इकाइयों को चीन से हटाकर उन दूसरे देशों में स्थानांतरित कर देंगे जहां श्रम सस्ता है और अन्य परिस्थितियां उनके अनुकूल हैं।
भारत इस अवसर को लपकने के लिए कई अन्य देशों के साथ स्पर्धा कर रहा है और इसलिए यहां केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा
(i) निजी उद्योग-मालिकों के पक्ष में श्रम सुधारकिये जा रहे हैं;
(ii) एफ़डीआई मानदंडों को कम किया जा रहा है ;और
(iii) निगमीकरण और निजीकरण को गति दी जा रही है ।

केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पूंजी समर्थक श्रम सुधार
केंद्र सरकार चार श्रम संहिताओं में से तीन को संसद से पारित कराने का प्रयास कर रही है। मज़दूरी संबंधी कोड पहले ही पारित हो चुका है और अब अधिनियम बन गया है । औद्योगिक संबंध (आईआर)  और ओएसएच से जुड़े कोड श्रम से संबंधित संसदीय स्थायी समिति के समक्ष रखे गये थे। इन दोनों रिपोर्टों को कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान जल्दबाज़ी में स्पीकर को प्रस्तुत किया गया। स्थायी समिति में माकपा, भाकपा और द्रमुक सदस्यों ने असहमति के नोट प्रस्तुत किये। केंद्र सरकार के श्रम मंत्री ने नियोक्ताओं के पक्ष में राज्यों में श्रम सुधार शुरू करने, विशेष रूप से काम के घंटे बढ़ाने को लेकर कुछ मुख्यमंत्रियों से बात की । उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, पंजाब और कुछ अन्य राज्य सरकारों ने कार्यकारी आदेश के माध्यम से जल्दबाज़ी में काम के घंटे बढ़ा दिये । इसके बाद केंद्र सरकार के श्रम मंत्रालय ने 5 मई 2020  को राज्य सरकारों को एक परामर्श पत्र जारी किया है जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ निम्नलिखित का सुझाव दिया गया है :
1.‘इसके तहत कार्रवाई करने की अपेक्षा है’ 
2. ‘कोविड-19 को देखते हुए काम के घंटे को एक दिन में 8 से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया जाये’
अब तक 15 राज्य सरकारों ने इस तरह के नोटिफ़िकेशन जारी किये हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात जैसे कुछ राज्य सरकारों ने अगले 3 वर्षों / 1000 दिनों के लिए मौजूदा श्रम क़ानूनों को निष्क्रिय कर दिया है।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) संबंधी  मानदंडों में ढील
केंद्र सरकार ने स्वचालित मार्ग के माध्यम से एफ़डीआई की घोषणा की और सामरिक, रक्षा उत्पादन जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में भी राज्य / घरेलू होल्डिंग्स को कम  किया।

निगमीकरण और निजीकरण
रेलवे, ऑर्डिनेंस फ़ैक्ट्रियों का निगमीकरण; रक्षा उत्पादन की आउटसोर्सिंग; वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए कोयला खानों का निजीकरण, यहां तक कि अंतरिक्ष अनुसंधान और परमाणु ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में भी पीपीपी मॉडल लागू करके देश की सुरक्षा के साथ  समझौता किया जा रहा है।

जानबूझ कर क़र्ज़ न चुकाने वाले कॉर्पोरेट (विलफुल डिफ़ॉल्टर्स)को टैक्स रियायत
कारोबार में विफल हो चुके कॉरपोरेट्स को 5 लाख करोड़ रुपये की भारी कर रियायत दी गयी है। चोकसी, विजय माल्या जैसे अन्य भगोड़ों सहित अनेक विलफुल कॉरपोरेट डिफ़ॉल्टरों द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से लिये गये ऋणों को माफ़ कर दिया गया है। ऐसा उन्हें निजीकरण का फ़ायदा लेने और पीपीपी मॉडल में शामिल होने में मदद करने के लिए किया गया है।

टेली-मेडिसिन के क्षेत्र में व्यापक वृद्धि
नीति आयोग इस नतीजे पर पहुंचा है कि कोविड-19 से टेली- मेडिसिन के क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि देखने को मिलेगी। आईटी के माध्यम से डॉक्टर-रोगी-पर्चे के बीच के संबंध बदल जायेंगे। नीति आयोग जो सुझाव दे रहा है,वह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के नेटवर्क को बदलने का एक तंत्र है जिसकी अपर्याप्तता कोविड-19 परीक्षण और उपचार के दौरान साफ़ झलक रही है। बीमा संचालित ये स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही मौजूद आयुष्मान भारत योजनातथा लूप के निजी अस्पतालों में लागू बीमा सेवाओं  के अतिरिक्त हैं।

ई-कॉमर्स, ई-फ़ार्मेसी जैसे संपर्क रहित वितरण में वृद्धि
नीति आयोग कोविड-19 को ख़ुदरा व्यापार में ई-कॉमर्स और ई-फ़ार्मेसी को बढ़ावा देने के अवसर के रूप में मानता है। ख़ुदरा व्यापारों के निगम सहित अमेज़ॅन जैसे विदेशी बड़े कॉरपोरेट करोड़ों लोगों के रोज़गार और आजीविका को बुरी तरह प्रभावित करेंगे। भारत में ख़ुदरा व्यापार जीडीपी के 10% के लिए ज़िम्मेदार है। यह देश की कुल आबादी का 3.3% या लगभग 4 करोड़ है और कृषि क्षेत्र के बाद यह दूसरा स्थान रखता है। परिवार के सदस्यों सहित लगभग 20 करोड़ लोगों की आजीविका इस पर निर्भर है। ई-फ़ार्मेसी इस कॉरपोरेटाइज़ेशन ड्राइव का एक हिस्सा है, जिसका उद्देश्य स्व-नियोजित 5.5 लाख ख़ुदरा दवा विक्रेताओं और उनके 12 लाख से अधिक कर्मचारियों को हटाना है। ऑल इंडिया ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ केमिस्ट्स एंड ड्रगिस्ट पहले से ही ई-फ़ार्मेसी के ख़िलाफ़ हड़ताल और  आंदोलन कर रहे हैं।

 संरचनात्मक सुधारों की नीति
नीति आयोग का निष्कर्ष कोविड-19 महामारी का लाभ उठाते हुए संरचनात्मक सुधारों की नीति को तेज़ी से अपनाने की बात करता  है। श्रम, एफ़डीआई, सहकारिता और निजीकरण, कर रियायतों आदि में संरचनात्मक सुधारों के लिए कुछ नीतियां पहले से ही लागू हैं और कुछ क़तार में हैं।

प्रधानमंत्री का 20 लाख करोड़ का आत्मनिर्भर भारत, कोविड-19 राहत कोष और वित्त मंत्री  का पंचसूत्री पैकेज
इस बड़े संरचनात्मक परिवर्तन के लिए प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भर भारतकोविड-19 राहत कोष की घोषणा की है। प्रधानमंत्री की घोषणा के तुरंत बाद केंद्रीय वित्त मंत्री के पांच भागों वाले धारावाहिक भाषणों में आत्मनिर्भर भारतबनाने के लिए इस राहत कोष के पंचसूत्री पैकेजों की घोषणा की गयी। सीटू ने इसे 'विदेशीकरण' की ओर बढ़ाये गये क़दम के साथ-साथकॉरपोरेट्स का सशक्तीकरणऔर मेहनतकश वर्गों- श्रमिकों, किसानों, कृषि श्रमिकों और ऐसे अन्य वर्गों का विघटनतथा 'विनाश और विऔद्योगिकीकरण' क़रार दिया  है। यह 20 लाख करोड़ रुपये का कोविड-19 राहत कोष एक गणितीय बाज़ीगरी है जिसमें आरबीआई द्वारा पहले से ही घोषित सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तरलता; ऋण; कर वसूली में देरी; ईपीएफ़ योगदान आदि शामिल है जबकि सरकार का वास्तविक योगदान 50 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक नहीं है । पहली और दूसरी खेप में प्रवासी श्रमिकों और श्रम केन्द्रित एमएसएमई को राहत देने घोषणा की गयी है। ये घोषणाएं असत्य और विकृतियों से भरी हैं। वित्त मंत्री ने तत्काल राहत पर न बोलकर भविष्य के आवास और अवसंरचनात्मक विकास के बारे में अधिक बात की है । हर महीने 5 किलो प्रति व्यक्ति खाद्यान्न और 1 किलो प्रति परिवार चना बांटने की घोषणा सवाल उठाने लायक़ है क्योंकि उद्देश्य की ईमानदारी और पहचान के उपकरणों की अनुपस्थिति के कारण अतीत में ऐसी राहत 80% लाभार्थियों तक पहुंची ही नहीं ।
पैकेज में एमएसएमईसहित अन्य व्यवसायों के लिए 3 करोड़ रुपये की आपातकालीन कार्यशील पूंजी की सुविधा शामिल है। इसे बड़े व्यवसायों के लिए डिज़ाइन किया गया है, ताकि वे इसे हड़प सकें। तीसरी खेप भूमि प्रबंधन और कृषि उपज पर है। पैकेज को भूमि  बैंक के निर्माण के माध्यम से एसईज़ेड के लिए कृषि भूमि प्राप्त करने में सहूलियत देने; कृषि और अनुबंध खेती के निगमीकरण; और खाद्य सुरक्षा को ख़तरे में डालकर खाद्यान्नों की निजी ख़रीद; कृषि उत्पाद विपणन समितियों को बेदख़ल करके नि:शुल्क विपणन; आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन और कृषि उत्पादों के मुक्त व्यापार, निर्यात और अग्रिम व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए सीमा शुल्क हटाने जैसे उद्देश्यों के लिए  डिज़ाइन किया गया है । देश की सुरक्षा से समझौता करते हुए, चौथी खेप में कारपोरेटों ख़ासकर विदेशी कंपनियों को एक बड़ा बोनस दिया गया है, जिसमें रक्षा उत्पादन में स्वचालित मार्ग से 74 प्रतिशत की हिस्सेदारी, कोयला और अन्य खनिजों में स्वचालित मार्ग से 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई); विमानन क्षेत्र का निजीकरण; केंद्रीयकृत प्राधिकरण की स्थापना के साथ बिजली संशोधन बिल 2020 के माध्यम से सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपयोगिता वाले बिजली क्षेत्र का निजीकरण, सब्सिडी को चरणबद्ध तरीक़े से समाप्त करना; अंतरिक्ष अनुसंधान और परमाणु ऊर्जा का निजीकरण शामिल  है। पैकेज की पांचवी खेप के तहत मोदी सरकार के पूंजी सुधार के एजेंडे में संघीय व्यवस्था पर बड़ा हमला किया गया है। इसमें बिजली सुधारों को स्वीकार करना, किसानों से मुफ़ बिजली की सुविधा और व्यापार करने में आसानी हेतु अन्य शर्तें वापस लेना आदि शामिल हैं।

मज़दूर वर्ग का प्रतिरोध
भाजपा-आरएसएस सरकारों के श्रम क़ानूनों पर हमले ऐतिहासिक और संवैधानिक दिशा के ख़िलाफ़ रहे हैं। ऐतिहासिक दिशा को समझने के लिए भारत में मज़दूर वर्ग के आंदोलन से संबंधित पांच महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित करना आवश्यक है कि (1) स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए श्रमिक वर्ग का आंदोलन स्वतःस्फूर्त विकसित हुआ और, पहले केंद्रीय ट्रेड यूनियन संगठन के गठन के बाद, ट्रेड यूनियन आंदोलन एकजुट बना रहा और स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग बना;  (2) श्रम क़ानून राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्र भारत में भी श्रमिक वर्ग के शानदार संघर्षों के परिणाम हैं; (3) मज़दूर वर्ग को एकजुट रखने और सहयोग की लाइन के ख़िलाफ़ संघर्ष की स्थिति बहाल करने की जद्दोजहद चलती रही; (4) सत्ता समीकरणों में बदलाव के बावजूद एकता और संघर्ष के माध्यम से नवउदारवादी सुधारों को धीमा किया जा सकता है और उनका विरोध किया जा सकता है; और (5) विरासत में मिली उपर्युक्त चारों स्थितियों के रहते भारत में श्रमिक वर्गीय आंदोलन कोविड-19 के दौरान  कॉर्पोरेट समर्थक चुनौतियों का प्रभावी रूप से सामना करने में सक्षम होगा और मज़बूत होकर उभरेगा।

स्वतंत्रता आंदोलन के अभिन्न अंग के रूप में श्रमिक वर्गीय आंदोलन
उन्नीसवीं सदी के मध्य में देश के औद्योगिकीकरण के साथ, किसी संगठित ट्रेड यूनियन के बिना हड़ताल की कार्रवाई के रूप में सहज ही श्रमिक आंदोलन विकसित हुए। बाद में स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं के नेतृत्व में श्रमिकों के समूह बने। स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक के 6 साल के कारावास के विरोध में 1908 में बंबई में श्रमिकों की 6 दिनों की सामान्य हड़ताल ने मज़दूर वर्ग के आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का अहम हिस्सा बना दिया।
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम श्रमिकों और लोगों के लिए अनकहे दुखों से भरे थे। स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने; श्रमिक वर्ग के नेतृत्व में पहली मज़दूर वर्ग की क्रांति और सोवियत संघ के रूप में ‘वर्किंग क्लास स्टेट’ की स्थापना का प्रभाव; 1918 में बी. पी. वाडिया द्वारा मद्रास लेबर यूनियन के रूप में आधुनिक ट्रेड यूनियन का गठन; 1919 में प्रथम विश्व युद्ध की वर्साय संधि के अनुसार आईएलओ का गठन; इन सभी के प्रभाव से स्वतंत्रता सेनानी और लोकतांत्रिक लाला लाजपत राय के नेतृत्व में भारत में पहले  केंद्रीय ट्रेड यूनियन का गठन हुआ ।
श्रमिक आंदोलन और उनके क्रांतिकारी नेतृत्व की पहचान को नियंत्रित करने के उद्देश्य से उनके पंजीकरण और प्रमाणन के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1926 में ट्रेड यूनियन अधिनियम लागू किया। देश में व्यापक हड़ताल की लहर को नियंत्रित करने और किसी भी हड़ताल को 'अवैध' घोषित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने व्यापार विवाद अधिनियम, 1928 पेश किया जिसके ख़िलाफ़ शहीद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय विधान सभा में बम फेंका और भारत के मज़दूर वर्ग को उनका क्रांतकारी नारा इंकलाब जिंदाबाद’ भेंट किया। इस घटना के बाद 31 ट्रेड यूनियनों के नेताओं और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और उनके ख़िलाफ़ सालों तक मेरठ का मुक़दमा चलता रहा। ट्रेड यूनियन आंदोलन किसानों के संगठन और उनके आंदोलन के साथ-साथ छात्रों के संगठन और उनके आंदोलन के गठन के पूरक के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बना रहा। स्वतंत्रता की पूर्व संध्या तक एक ही  केंद्रीय ट्रेड यूनियन की साझा छतरी के नीचे ट्रेड यूनियनों की एकता बनी रही।

श्रम क़ानून और संवैधानिक दिशा
मज़दूर वर्ग के संघर्ष, उनकी एकता और स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी के कारण श्रम क़ानूनों की आवश्यकता और भारत के संविधान में इन्हें नीति निर्देशक सिद्धांत के तहत  शामिल करने के लिए ज़मीन तैयार हुई। भारत के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत, अनुच्छेद 43 में यह परिकल्पना है कि ‘राज्य ...सभी कामगारों को काम, निर्वाह मज़दूरी, शिष्ट जीवनस्तर ...प्राप्त कराने का प्रयास करेगा ।‘ स्वतंत्रता प्राप्त करने के तत्काल  बाद औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, 1948, कारख़ाना अधिनियम 1948, ईपीएफ़ अधिनियम 1952 सहित कई श्रम क़ानूनों को लागू किया गया था। 1957 में आयी 15वीं आईएलसी सिफ़ारिशों के पांच मानदंडों के आने से न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम में गंभीर परिणामी परिवर्तन हुए जिसे सर्वोच्च न्यायालय के 1992 के रप्ताकोस ब्रेट फ़ैसले का भी समर्थन मिला और उसमें में एक और मानदंड जुड़ गया। ट्रेड यूनियन आंदोलन ने स्वतंत्र भारत में अपनी हड़ताल और संघर्ष जारी रखते हुए बोनस अधिनियम 1965; अनुबंध श्रम अधिनियम 1970; ग्रेच्युटी एक्ट, 1972; अनुबंध श्रम कल्याण बोर्ड अधिनियम 1996 आदि अर्जित किये । भाजपा-आरएसएस सरकारों द्वारा किया जा रहा श्रम क़ानूनों का निलंबन इन ऐतिहासिक और संवैधानिक निर्देशों के विरुद्ध है।

वर्गीय एकता की बहाली और वर्ग सहयोग की लाइन के ख़िलाफ़ वर्ग संघर्ष की लाइन
ट्रेड यूनियनों की एकता और वर्ग सहयोग की लाइन के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का संघर्ष आजादी के बाद ट्रेड यूनियन आंदोलन के समक्ष महत्वपूर्ण एजेंडा बन गया। ट्रेड यूनियनों की एकता, जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता की पूर्व संध्या तक जारी रही, सत्ता में आने से ठीक पहले कांग्रेस द्वारा तोड़ दी गयी। पूर्ववर्ती ब्रिटिश सरकार की भांति भारत में श्रमिक आंदोलन को नियंत्रित करने के लक्ष्य के साथ सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा 3 मई, 1947 को इंटक (INTUC) का गठन किया गया। इसके बाद 1948 में HMS, 1949 में UTUC, 1955 में BMS तथा 1958 में UTUC (LS) का गठन हुआ । ट्रेड यूनियनों के विभाजन के कारण कांग्रेस शासकों के साथ सत्ता में सहयोग की भी शुरुआत हुई।
कई कारणों से ऐटक (एआईटीयूसी) ट्रेड यूनियनों के विभाजन की इस प्रक्रिया को उलटने में विफल रहा। वह भी सहयोग की लाइन  में शामिल हो गया, जिसके कारण 1974 के ऐतिहासिक रेल हड़ताल के क्रूर दमन और बाद में देश में आपातकालीन शासन का इसने समर्थन किया। ऐटक के अंदर के इस माहौल के बीच ट्रेड यूनियन की एकता के माध्यम से मज़दूर वर्ग की एकता और सहयोग की लाइन  के ख़िलाफ़ संघर्ष की बहाली के लिए 'एकता और संघर्ष' के स्पष्ट आह्वान के साथ 30 मई 1970 को सीटू का गठन हुआ। इसके कारण सहयोग लाइन  पर एनसीटीयू और संघर्ष लाइन पर जेसीटीयू का गठन हुआ। उस समय सबसे लोकप्रिय एनपीएमओ सहित कई अंतरिम ट्रेड यूनियनों, मंचों और जन संगठनों की स्थापना के साथ एकता और संघर्ष की लाइन मज़बूत  हुई।
आपातकाल के बाद के दौर में आपातकालीन शक्तियों की हार के बाद, एकता और संघर्ष की लाइन बलवती हुई, जो 1978 में आईआर बिल के ख़िलाफ़ हुई ऐतिहासिक रैली में दिखायी दी। इसके बाद 19 जनवरी 1982 को स्वतंत्र भारत में मज़दूरों की पहली आम हड़ताल हुई जिसमें अन्य मेहनतकश वर्ग भी शामिल हुए । भारत बंद का नेतृत्व करने के कारण इसे क्रूर दमन का सामना करना पड़ा। देश के विभिन्न हिस्सों में पुलिस द्वारा की गयी गोलीबारी में श्रमिकों, खेतिहर मज़दूरों, छात्रों सहित 10 लोगों की मौत हो गयी।

नव उदरवादी हमले और मज़दूर वर्ग का प्रतिरोध
केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार में तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री, मनमोहन सिंह ने 1991 में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी निर्देशित आर्थिक एल.पी.जी (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) एजेंडा पेश किया। तब से एनडीए हो या यूपीए, केंद्र की सभी क्रमिक सरकारें कोविड-19 लॉकडाउन सहित परिवर्तित विश्व स्थिति के अनुसार आक्रामकता, विविधता और दबंगई के साथ एक ही एजेंडे पर चलती रही हैं। लेकिन, उस समय तक एकजुट ट्रेड यूनियन आंदोलन, हड़ताल के अपने सबसे शक्तिशाली हथियार के साथ नवउदारवादी एजेंडे के कार्यान्वयन को बहुत हद तक रोकने और कुछ क्षेत्रों में इस प्रक्रिया को धीमा करने में समर्थ थे । क्षेत्रीय संघर्षों की शृंखला के अलावा, इधर मज़दूरों की 18 सामान्य हड़तालें हो चुकी हैं; लेकिन केंद्र में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से आरएसएस से जुड़ा बीएमएस इनसे अनुपस्थित रहा है।

कोविड-19 में मज़दूर वर्ग का सामना कॉर्पोरेट समर्थक चुनौतियों से होगा
कोविड-19 के लॉकडाउन और बहुत कम समय की ऑनलाइन नोटिस के बावजूद 21 अप्रैल, 2020 के विरोध प्रदर्शन में मज़दूर वर्ग और भारी संख्या में लोगों की भागीदारी रही। लोगों के विरोध का यह रूप जिसमें बड़े स्तर पर परिवार और अन्य वर्ग शामिल हुए, एक नये अध्याय की शुरुआत करता है । इसके बाद 22 मई 2020 को हुए संयुक्त ट्रेड यूनियनों के विरोध प्रदर्शन भी उतने ही  सफल हुए। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान लोगों को जुटाने की संभावना और स्थापना / उद्योग / राज्य में  हड़ताल किस प्रकार संघर्ष के औजार के रूप में इस्तेमाल किये जा सकते हैं, सीटू इसकी जांच कर रहा है। जैसे-जैसे स्थिति बदलेगी, कोविड -19 लॉकडाउन के दौरान आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए संघर्ष के और अधिक रूप सामने आयेंगे, जो सत्ता द्वारा कॉर्पोरेट एजेंडे के पक्ष में किये जा रहे मौजूदा संरचनात्मक परिवर्तन को मापने के प्रभावी पैमाने होंगे ।
मज़दूर वर्ग और आम लोगों के सामने उपस्थित वर्तमान चुनौती की गंभीरता को समझ कर अतीत के अनुभव से और वर्तमान से मुख़ातिब होकर मज़दूर आंदोलन आगे बढ़ेगा। कोई भी आसानी से यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि कोविड-19 के वर्तमान चरण के बाद भी, भारत के आर्थिक संरचनात्मक परिवर्तनों की दिशा आम तौर पर यथावत रहेगी; और सतर्क व एकजुट मज़दूर वर्ग इन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगा तथा मज़बूत होकर निकलेगा। इतिहास इसका गवाह बनेगा।
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अनु0 नलिन विकास
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