किसान आंदोलन : समसामयिक परिदृश्य-2 

किसान आंदोलन : भाजपा का दुष्प्रचार

('अमीर किसान', 'भूमंडलीय साज़िश' और 'स्थानीय मूर्खताएं')

 पी साईनाथ

 

दिल्ली की सीमाओं पर विरोध-प्रदर्शन करते किसानों को तितर-बितर करने की कोशिशें जब नाकाम रहीं तो स्थानीय दमन को जायज़ ठहराने के लिए अंतरराष्ट्रीय दुरभिसंधियों की बात की जाने लगी। कौन जाने, कल को बात बढ़कर किसी और ग्रह की दुरभिसंधि तक भी पहुंच जाये!

लाखों लोगों का बिजली-पानी काट देना, ऐसा करके उन्हें स्वास्थ्य संबंधी गंभीर ख़तरों में धकेल देना, पुलिस और अर्द्ध-सैनिक बलों की घेरेबंदी में डालकर उनके ऊपर ख़तरनाक रूप से अस्वास्थ्यकर हालात थोप देना, आंदोलनकारी किसानों तक पत्रकारों की पहुंच को लगभग असंभव बना देना, पिछले दो महीनों में अपने 200 लोगों की जानें गवां चुके समूह को दंडित करना—दुनिया में कहीं भी इसे एक बर्बर कार्रवाई और मनुष्य के अधिकारों तथा गरिमा पर हमले के रूप में देखा जाता।

लेकिन हम, हमारी सरकार और शासक वर्ग के दिमाग़ पर ज़्यादा गहरी चिंताएं सवार हैं। जैसे यह कि इस धरती के महानतम राष्ट्र को बदनाम और अपमानित करने की जो साज़िशें रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग जैसे वैश्विक आतंकवादियों द्वारा चलायी जा रही हैं, उन्हें कैसे नाकाम किया जाये।

एक गल्प के तौर पर यह पागलपन की हद तक मज़ेदार होता। एक वास्तविकता के तौर पर यह सिर्फ़ पागलपन है।

यह सब भले ही हमें चौंका दे, पर हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए। जिन्होंने ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ के नारे पर भरोसा किया था, उन्हें भी अब तक पता चल चुका होगा कि असल खेल क्या था। वह था, अधिकतम सरकारी बल-प्रयोग और अधिकतम ख़ून-ख़राबे वाला शासन। चिंता की बात यह है कि दूसरे मसलों पर लगातार चलती रहनेवाली ज़ुबानों ने भी, जिनमें से कुछ ने सत्ता का बचाव करने और ऐसे सभी क़ानूनों की सराहना करने में कभी कोताही नहीं की, सोची-समझी चुप्पी अख्तियार कर ली। आपको लगा होगा कि इस तरह के लोग भी लोकतंत्र की इस रोज़ाना की ठुकाई-पिटाई के साथ सहमति जताने से इनकार कर देंगे।

केंद्रीय मंत्रिमंडल का एक-एक सदस्य जानता है कि किसान आंदोलन के समाधान के रास्ते में सचमुच क्या आड़े आ रहा है।

वे जानते हैं कि किसानों के साथ इन तीन क़ानूनों पर कभी कोई सलाह-मशवरा नहीं किया गया—अगरचे किसान इसकी मांग उसी दिन से कर रहे थे जिस दिन उन्हें पता चला कि ये अध्यादेश के रूप में लाये जा रहे हैं। 

इन क़ानूनों को बनाने में राज्यों से भी कोई सलाह-मशवरा नहीं किया गया—अगरचे कृषि भारतीय संविधान की राज्य सूची में है। विपक्षी दलों के साथ या संसद के भीतर भी कोई बात नहीं हुई।

भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्रिमंडल जानता है कि कोई सलाह-मशवरा नहीं हुआ—क्योंकि खुद उनसे कभी बात नहीं की गयी। न तो इस पर, न ही दूसरे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर। उनका काम तो बस नेता के आदेश पर सागर की लहरों को वापस मोड़ने का है।

और फ़िलहाल लहरें दरबारियों से बेहतर काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में भारी प्रदर्शन हो रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत उस दिन के मुक़ाबले, जब उन्हें ध्वस्त करने की कोशिश की गयी, आज कहीं ज़्यादा बड़ी क़द-काठी हासिल कर चुके हैं। महाराष्ट्र में 25 जनवरी को बहुत बड़ा विरोध-प्रदर्शन हुआ। राजस्थान में, कर्नाटक में—जहां ट्रैक्टर रैली को बेंगलुरु में प्रवेश करने से रोक दिया गया—आंध्र प्रदेश और अन्य जगहों पर भी इसी तरह के प्रदर्शन हुए। हरियाणा में तो हालत ऐसे हैं कि आम सभाओं में भाग लेना मुख्यमंत्री के लिए नामुमकिन होता जा रहा है। 

 पंजाब में, ग़ालिबन, हर परिवार आंदोलनकारियों के साथ है—कई हिस्सा लेने के लिए बेताब हैं और बहुतेरे ऐसा करने की प्रक्रिया में पहले ही उतर चुके हैं। वहां 14 फ़रवरी को होने जा रहे शहरी स्थानीय निकाय चुनावों के लिए भाजपा को कोई उम्मीदवार नहीं मिल रहा है। जो लोग पहले से उसके पास हैं—यानी पुराने वफ़ादार—वे भी अपनी पार्टी के निशान का उपयोग करने से कतरा रहे हैं। इस बीच राज्य में युवाओं की एक पूरी पीढ़ी उनसे अलग हो गयी है और भविष्य के लिए इसके गहरे निहितार्थ हैं।

यह इस सरकार की आश्चर्यजनक उपलब्धि है कि इसने किसानों और आढ़तियों जैसे पारंपरिक वैरियों समेत सामाजिक शक्तियों के एक विराट और असमान दायरे को एकताबद्ध कर दिया है। इसके अलावा इसने सिख, हिंदू, मुस्लिम, जाट और ग़ैर-जाट, यहां तक कि खाप और 'ख़ान मार्केट तबक़े' को भी एकता के सूत्र में बांध दिया है। क्या बात है!

लेकिन जो आवाज़ें अब शांत पड़ गयी हैं, उन्होंने पहले दो महीनों तक हमें आश्वस्त किया था कि यह “महज़ पंजाब और हरियाणा” का मामला है। कोई और प्रभावित नहीं है। किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता।

मज़ेदार है न! आख़िरी दफ़ा जब एक कमेटी ने, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त नहीं की गयी थी, तहक़ीक़ात की, तब पंजाब और हरियाणा दोनों भारतीय संघ के ही हिस्से थे। आपका यह सोचना लाज़िम था कि वहां जो कुछ होता है, उसका असर हम सब पर पड़ता है।

उन वाग्मी स्वरों ने हमें यह भी कहा था—और अभी भी दबी ज़ुबान में कहते हैं—कि सुधारों का प्रतिरोध करनेवाले सभी 'अमीर किसान' हैं।

वाह भई, दिल जीत लिया! पिछले एनएसएस सर्वेक्षण के अनुसार, पंजाब में एक किसान परिवार की औसत मासिक आय 18,059 रुपये थी। प्रत्येक किसान परिवार में व्यक्तियों की औसत संख्या 5.24 थी। इसलिए प्रति व्यक्ति मासिक आय लगभग 3,450 रुपये ठहरती है। संगठित क्षेत्र में सबसे कम वेतन पाने वाले कर्मचारी से भी कम।

बाप रे! इतनी दौलत! आधी बात तो हमें बतायी नहीं गयी थी। हरियाणा के लिए संबंधित आंकड़े (किसान परिवार का आकार 5.9 व्यक्ति) इस प्रकार थे- 14,434 रुपये औसत मासिक आय और प्रति व्यक्ति मासिक आय लगभग 2,450 रुपये। निश्चित रूप से, यह छोटी रक़म अभी भी उन्हें अन्य भारतीय किसानों से आगे रखती है। उदाहरण के लिए, गुजरात में किसान परिवार की औसत मासिक आय 7,926 रुपये थी। प्रत्येक किसान परिवार में औसतन 5.2 व्यक्तियों के साथ, प्रति व्यक्ति मासिक आय 1,524 रुपये थी।

किसान परिवार की मासिक आय के लिए अखिल भारतीय औसत 6,426 रुपये था (लगभग 1,300 रुपये प्रति व्यक्ति)। वैसे, इन सभी औसत मासिक आंकड़ों में सभी स्रोतों से होने वाली आय शामिल है। केवल खेती से ही नहीं, बल्कि पशुधन, गैर-कृषि व्यवसाय और मज़दूरी तथा वेतन से होने वाली आय भी।

यह है भारतीय किसान की वह दशा जो राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 70वें चक्र, ‘की इन्डिकेटर्स ऑफ़ सिचूऐशन ऑफ़ इंडियन ऐग्रिकल्चर हाउसहोल्ड्स इन इंडिया’ (2013) में दर्ज है। और याद रखिए, भारत सरकार ने 2022 में, यानी अगले 12 महीनों में किसानों की आमदनी को दुगुना करने का वायदा किया है। निस्संदेह, यह एक कठिन कार्यभार है, जिसके कारण रिहानाओं और थनबर्गों के विघटनकारी हस्तक्षेप पर और अधिक झल्लाहट होती है।

ओह, दिल्ली की सरहदों पर जमे ये अमीर किसान, जो 2 डिग्री सेल्सियस या उससे कम तापमान में धातु की ट्रॉलियों में सोते हैं, जो 5-6 डिग्री तापमान में खुले में स्नान करते हैं — इन्होंने निश्चित रूप से भारतीय अमीरों के बारे में हमारी समझ में सुधार किया है। हमने जितना सोचा था, ये उससे कहीं ज़्यादा सख्तजान निकले।

इस बीच किसानों से बात करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी अपने-आप से भी क़ायदे से बात करने में असमर्थ जान पड़ रही है—इसके चार सदस्यों में से एक ने पहली बैठक से पहले ही कमेटी छोड़ दी। जहां तक सचमुच के आंदोलनकारियों से बात करने का सवाल है, वह तो हुई ही नहीं। 

12 मार्च को सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति की दो महीने की अवधि (कृषि के लिए बेहद ज़रूरी कीट परागणकर्ताओं का अधिकतम जीवन काल) समाप्त हो चुकी होगी। तब तक समिति के पास उन लोगों की एक लंबी सूची होगी, जिनसे उन्होंने बात नहीं की, और इससे कहीं ज़्यादा लंबी उन लोगों की सूची, जिन्होंने उनसे बात नहीं की। और शायद उन लोगों की एक छोटी सूची, जिनसे उन्हें कभी बात नहीं करनी चाहिए थी।

आंदोलनकारी किसानों को डराने-धमकाने की हर कोशिश के बाद उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाती है। उन्हें बदनाम करने के हर क़दम ने व्यवस्था की ज़रखरीद मीडिया को भले ही बहुत ज़्यादा आकर्षित किया हो, ज़मीन पर उसका असर उलटा हुआ है। डरावनी बात यह है कि यह ज़मीनी असर किसी भी तरह से उन कोशिशों को तेज़ करने से इस सरकार को रोक नहीं पायेगा जो और भी अधिनायकवादी, शारीरिक और क्रूर होती जायेंगी।

कॉरर्पोरेट मीडिया में कई लोग जानते हैं, और भाजपा के अंदर तो कई लोग और भी बेहतर तरीक़े से जानते हैं, कि इस विवाद में शायद सबसे दुर्लन्घ्य बाधा है व्यक्तिगत अहम्। नीति नहीं, यह भी नहीं कि सबसे अमीर निगमों से किये गये वादों को पूरा करना है (वे निश्चित रूप से, किसी न किसी दिन पूरे कर दिये जायेंगे)। क़ानूनों की शुचिता का भी सवाल नहीं है (जैसा कि सरकार ने ख़ुद ही स्वीकार किया है, वह इसमें कई संशोधन कर सकती है)। बात सिर्फ़ इतनी है कि राजा कभी ग़लत नहीं कर सकता। और ग़लती को स्वीकार करना और उससे पीछे हटना तो अकल्पनीय है। इसलिए, चाहे देश का हर एक किसान दामन छोड़ जाये—नेता ग़लत नहीं हो सकता, चेहरा नहीं खो सकता। मुझे इस पर बड़े दैनिक समाचार पत्रों में एक भी संपादकीय नहीं मिला, दबी ज़ुबान से भी यह बात नहीं कही गयी, हालांकि वे जानते हैं कि यही सच है।

इस पूरे गड़बड़झाले में अहम् कितना अहम है? इंटरनेट शटडाउन पर एक पॉप स्टार के सरल-से ट्वीट—'हम इसके बारे में बात क्यों नहीं कर रहे?'—पर जो प्रतिक्रिया आयी, उस पर विचार करें। जब बहस यहां तक पहुंच जाती है कि ‘अरे, मोदी के पास रिहाना से ज़्यादा फ़ॉलोवर्स हैं’, तो हमारा दिशा-ज्ञान लुप्त हो जाता है। असल में, हम तो उसी दिन दिशाहारा हो गये थे  जिस दिन विदेश मंत्रालय ने इस मामले पर आतंकवाद-निरोधक आत्मघाती हमले जैसे कारनामों का नेतृत्व किया और देशभक्त सेलिब्रिटी लाइट ब्रिगेड को अपनी ओर से साइबर हमला करने की प्रेरणा दी (विनाश की डिजिटल घाटी में, जहां ट्वीटों की गर्जन-तर्जन और बौछारें हुईं, बढ़ती हुई निराशा की परवाह किये बिना उसने छह सौ का सम्माननीय आंकड़ा प्राप्त कर लिया)।

मूल अपमानजनक ट्वीट में, जहां इस पर महज़ चिंता जतायी गयी थी कि हम इस बारे में बात क्यों नहीं कर रहे हैं, कोई स्पष्ट रुख़ या पक्ष नहीं लिया गया था। यह आईएमएफ़ के मुख्य अर्थशास्त्री और संचार निदेशक के बयानों के विपरीत था, जिन दोनों ने सार्वजनिक रूप से कृषि क़ानूनों की प्रशंसा की है (साथ में ‘सुरक्षात्मक उपायों’/‘सेफ़्टी नेट’ संबंधी ‘सावधानी’ बरतने की सलाह भी दी है—जिस तरह निकोटीन बेचनेवाले पूरी ईमानदारी से अपने सिगरेट के डिब्बों पर वैधानिक चेतावनी लिख देते हैं)।

बिल्कुल नहीं, एक पॉप कलाकार और एक 18 वर्षीय जलवायु कार्यकर्ता बिलाशक ख़तरनाक हैं, जिनसे पूरी सख़्ती से निपटा जाना चाहिए। कोई समझौता नहीं। यह तसल्ली की बात है कि दिल्ली पुलिस इस काम पर निकल पड़ी है। और अगर वे वैश्विक साज़िश से आगे बढ़ते हुए इसमें किसी और ग्रह का हाथ होने का पता लगाने के लिए निकलते हैं—आज भूमंडल, कल आकाशगंगा—तो मैं उन लोगों में शामिल नहीं पाया जाऊंगा जो उनका मज़ाक़ उड़ा रहे होंगे। जैसा कि नेट पर चक्कर काटती मेरी पसंदीदा उक्तियों में से एक में कहा गया है, 'दूसरे ग्रहों में मौजूद प्रज्ञा के अस्तित्व का सबसे पुख़्ता सबूत यह है कि उन्होंने हमें अकेला छोड़ दिया है।'

मो. 9869212127

(5 फ़रवरी 2021 को द वायर में प्रकाशित अंग्रेज़ी लेख का अनुवाद )

अनुवाद : संजीव कुमार

मो.  9818577833

  

No comments:

Post a Comment