कोरोना काल : प्रवंचनाओं के संदर्भ-5


महामारी की बढ़ती मार और आत्मनिर्भरता का फ़ासीवादी महा झूठ
राजेंद्र शर्मा

क्या इसे महज़ एक संयोग माना जा सकता है? देशव्यापी लॉकडाउन के 79वें दिन (जिसमें ओपनिंग अप के 11 दिन भी शामिल हैं), केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव, पांच सबसे ज़्यादा कोविड-19 प्रभावित राज्यों में मौजूदा रुझान के हिसाब से, जून से अगस्त के बीच, आइसीयू बैड, वैंटीलेटर आदि, गंभीर रूप से संक्रमितों की जान बचाने के लिए ज़रूरी सुविधाओं की, भारी कमी पैदा होने की डरावनी चेतावनी दे रहे थे। वे यह भी याद दिला रहे थे कि पहले ही देश के पूरे 69 ज़िलों में केस फ़ेटलिटी रेट यानी पॉज़िटिव पाये गये केसों में से जान गंवाने वालों की संख्या, अपेक्षाकृत ऊंची बनी हुई है। याद रहे कि उक्त पांच राज्यों में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, दिल्ली, गुजरात तथा उत्तर प्रदेश शामिल हैं यानी यहां देश की आबादी का लगभग 40 फ़ीसद हिस्सा रहता है। दूसरे शब्दों में लॉकडाउन के लगभग अस्सी दिन बाद भी, कम से कम 40 फ़ीसद आबादी के मामले में, कोविड-19 की तबाही तथा ख़ासतौर पर मौतों से बचाने के लिए जो कुछ किया जाना ज़रूरी था और किया जा सकता था, नहीं किया जा सका था। किसी भी तरह से देखें, इसे महामारी का मुक़ाबला करने के शासन के प्रयासों की और उसके मुख्य हथियार के रूप में लॉकडाउन की, नाकामी क़बूल किया जाना ही कहा जायेगा।
ज़ाहिर है कि यह लॉकडाउन के ही सिलसिले में नाकामी क़बूल करने के गृहमंत्री अमित शाह के लफ़्फ़ाज़ी के उस पैंतरे से बिल्कुल अलग है, जो ओडिशा में अपनी वर्चुअल रैली में उन्होंने आज़माया था। शाह ने तो लफ़्फ़ाज़ी के दांव के तौर पर यह कहने की झूठी विनम्रता का प्रदर्शन किया था कि 'हमसे कुछ ग़लती हो गयी होगी’, 'हमारी कोई कमी रही होगी’ आदि। और इसे उन्होंने हाथ के हाथ यह कहकर विपक्ष पर हमला करने के हथियार में भी बदल डाला था कि 'लेकिन विपक्ष ने क्या किया है?’ कैबिनेट सचिव तो सीधे-सीधे महामारी के सिर पर आ गये ख़तरे के बारे में चेता रहे थे, जोकि देश में कोविड के पॉज़िटिव केसों की और मौतों की भी, बड़ी तेज़ी से बढ़ती संख्या से पैदा हो रही चिंताओं के प्रति सरकार के कम से कम बाख़बर होने का भरोसा दिलाने की कोशिश का भी हिस्सा था। लेकिन, ठीक उसी समय प्रधानमंत्री मोदी, इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कामर्स के 95वें वार्षिक सत्र को संबोधित करते हुए, देश के उद्यमियों से अवसर को पहचान कर नयी बुलंदियों की ओर जाने का और भारत को आत्मनिर्भर बनाने का आह्वान कर रहे थे। क्या यह कोविड के प्रसंग में आमतौर पर अपनी सरकार की और ख़ासतौर पर लॉकडाउन की देश के लिए बहुत ही महंगी पड़ी अपनी रणनीति की विफलता के सामने, प्रधानमंत्री के अचानक विषय-परिवर्तन करने के उस पैंतरे का ही मामला नहीं है, जिसका इस्तेमाल टीवी बहसों में हमें आये दिन देखने को मिलता है?
प्रसंगवश याद दिला दें कि इससे हफ़्ता-दस दिन पहले, प्रतिस्पर्धी उद्योग संगठन, फ़िक्की के ऐसे ही अधिवेशन को डिज़िटल माध्यम से ही संबोधित करते हुए, प्रधानमंत्री ठीक यही आह्वान कर चुके थे। प्रसंगवश जोड़ दें कि इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने उद्योग संगठनों के ऐसे सालाना सम्मेलनों को संबोधित करने की ज़रूरत नहीं समझी थी। यह तथ्य बेशक, इस महामारी के बीच भी प्रधानमंत्री को, उद्योगपतियों की ही सबसे ज़्यादा फ़िक्र होने को दिखाता है। फिर भी, यह महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री बड़ी तत्परता से विषय-परिवर्तन के अपने खेल के लिए उद्योगपतियों के मंच का उपयोग कर रहे हैं। बेशक, विषय-परिवर्तन के इस खेल की शुरूआत इससे पहले ही हो चुकी थी। वास्तव में, लॉकडाउन-4 की पूर्व-संध्या में, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में, लॉकडाउन में आगे-आगे ढील दिये जाने का ऐलान करने के साथ 20 लाख करोड़ रु0 के कथित पैकेज का जब ऐलान किया था, तभी विषय-परिवर्तन के लिए आत्मनिर्भर भारत का नया नारा उछाल दिया गया था। वैसे आरएसएस स्कूल में संदर्भ से काटकर जब-तब उछाले जाते रहे इस नारे का, मोदी जी के नारों में इससे भी कुछ पहले प्रवेश हो चुका था। 'महाभारत के युद्घ के 18 दिन के बजाय, लॉकडाउन को 21 दिन देने के बाद भी, जब मोदी जी को कोविड-19 वायरस पर जीत नहीं मिल सकी और प्रधानमंत्री को लॉकडाउन-2 की घोषणा करनी पड़ी, उसके बाद ही पंचायत प्रतिनिधियों के साथ अपने वीडियो कान्फ्रेंसिंग- संवाद में प्रधानमंत्री ने, संभवत: आज़माइश के तौर पर, आत्मनिर्भरता से ही महामारी की चुनौती का सामना करने का विचार रखा था। लेकिन, ग्रामीण संदर्भ में आत्मनिर्भरता की अलग से चर्चा का कोई ख़ास अर्थ ही नहीं होने के चलते, उस समय इस नारे पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया। लेकिन, लॉकडाउन के क़रीब साढ़े सात हफ़्ते बाद, 20 लाख करोड़ रु0 का कथित पैकेज तो पेश ही किया गया था, ’आत्मनिर्भर भारत पैकेज’ की मोहर लगाकर।
बेशक, हम यह भी दर्ज करना चाहेंगे कि अपनी सारी ताक़त तथा सारे संसाधनों के बावजूद, मोदी सरकार के लिए यह विषय-परिवर्तन इतना आसान भी साबित नहीं हो रहा है। इतने बड़े पैमाने पर ज़िंदगियां शब्दश: दांव पर जो लगी हुई हैं। अचरज की बात नहीं है कि कैबिनेट सचिव के ख़तरे की घंटी बजाने के बाद, आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट की भी नींद टूटी और उसने ख़ासतौर पर उन्हीं पांच राज्यों में सरकारी अस्पतालों की दयनीय स्थिति का स्वत:संज्ञान लेते हुए, ख़ासतौर पर राज्य सरकारों से कड़े प्रश्न ही नहीं किये, उनसे पांच दिन में ही जवाब देने को भी कहा। सुप्रीम कोर्ट की इस नयी-नयी सक्रियता ने विषय-परिवर्तन की मुश्किलें कम से कम कुछ तो बढ़ा ही दीं। इसके बाद, मोदी सरकार को शीर्ष स्तर पर, कोविड के मामले पर समीक्षा बैठक कर बढ़ती चुनौतियों का जायज़ा ही नहीं लेना पड़ा, इस जायज़े के आधार पर गृहमंत्री की अगुआई में संबंधित राज्यों की सरकारों से बात करने तथा ज़रूरी उपाय कराने के लिए केंद्र की ओर से सक्रियता दिखाये जाने का फ़ैसला भी लिया गया। बहरहाल, बात सिर्फ़ इतनी नहीं है कि प्रधानमंत्री ने मौजूदा गंभीर हालात में भी कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई की कमान अपने विश्वस्त सहयोगी को सौंप दी है। इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण यह कि इन हालात में भी केंद्र सरकार, राज्यों को क़दम उठाने के लिए तिकतिकाने से ज़्यादा अपनी कोई भूमिका नहीं देख रही है। ऐसे मुश्किल वक़्त में भी, केंद्र के राज्यों को बड़े पैमाने पर कोई ठोस सहायता देने के, अब तक भी कोई संकेत नहीं हैं, जिसके बिना बैठकों में केंद्र की सारी सक्रियता, रस्मअदायगी का ही मामला रह जाती है। इस तरह, महामारी के तेज़ी से बिगड़ते और वास्तव में बेक़ाबू होते जा रहे हालात के बीच भी बल्कि ऐसे हालात की वजह से भी, विषय-परिवर्तन का खेल ज़ोरों से जारी है।
लॉकडाउन से बल्कि कोविड-19 की चुनौती से ही विषय परिवर्तन के लिए आत्मनिर्भरता के नारे का सहारा लिये जाने के अनेक गहरे निहितार्थ हैं, जिनमें से हरेक स्वतंत्र रूप से विस्तृत चर्चा की मांग करता है। यहां तो हम इतना ही ध्यान दिलायेंगे कि यह मोदी सरकार के अपनी विफलता की ओर से ध्यान बंटाने के लिए, कोई और नारा लगाने का दांव आज़माने भर का मामला नहीं है। यह अपनी विफलता की ओर से ध्यान हटाने के लिए, एक ऐसा नारा उछालने का भी मामला है, मोदी सरकार का वास्तविक अमल जिससे ठीक उल्टा रहा है और आगे भी रहने जा रहा है। अचरज की बात नहीं है कि इसके साक्ष्य भी ख़ुद कथित 20 लाख करोड़ के पैकेज में ही दे दिये गये थे, जिसमें आत्मनिर्भरता का जाप करते-करते, प्रतिरक्षा उत्पादन जैसे न सिर्फ़ आत्मनिर्भरता के लिए बल्कि देश की संप्रभुता के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र के दरवाज़े, सौ फ़ीसद विदेशी मिल्कियत के लिए खोल दिये गये। ऐसे ही कोयला व अन्य खनिजों व खनन के क्षेत्र के दरवाज़े, विदेशी मिल्कियत के लिए चौपट खोलने का ऐलान कर दिया गया, फिर दूसरे अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों की तो बात ही क्या करना।
लेकिन, शायद सबसे महत्वपूर्ण यह है और यह भी इसी पैकेज के गठन से स्पष्ट था कि इस तरह से विषय परिवर्तन की ज़रूरत, इसलिए नहीं थी कि मोदी सरकार की मुख्यत: लॉकडाउन पर निर्भर कोशिशें, महामारी पर अंकुश लगाने में विफल रही थीं। इस विषय परिवर्तन की ज़रूरत इसलिए भी थी कि लॉकडाउन की विफलता के बाद, इस सरकार के पास महामारी का मुक़ाबला करने के लिए, करने को कुछ रह नहीं गया था। बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि जो कुछ करने की ज़रूरत थी, वह करना सरकार को मंज़ूर नहीं था। जैसा हमने पहले कहा, जो करने की ज़रूरत थी वह करना मंज़ूर न होने के साक्ष्य, ख़ुद 20 लाख करोड़ के कथित पैकेज पर छपे हुए हैं।
इसीलिए, इस पैकेज में लॉकडाउन की घोषणा के फ़ौरन बाद, मोदी सरकार द्वारा घोषित 1.76 लाख करोड़ के पहले पैकेज के ऊपर से, केंद्र सरकार की ओर से ख़र्च का शायद ही कोई ऐलान किया गया था। विभिन्न आकलनों के अनुसार, इन पैकेजों में नये ख़र्च के प्रस्ताव कुल-मिलाकर एक लाख करोड़ रु0 के क़रीब ही बैठेंगे और किसी भी तरह से देश के जीडीपी के 1 फ़ीसद से ज़्यादा नहीं हैं। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि महाभारत के युद्घ के सारे रूपक बांधने के बावजूद, आख़िर महामारी के ख़िलाफ़ युद्घ में ख़र्च करने में इतनी कंजूसी किसलिए? ज़ाहिर है कि इसकी वजह यह तो हो नहीं सकती कि इस युद्घ के लिए संसाधनों की ज़रूरत सरकार को दिखायी ही नहीं दे रही हो। अचानक थोपे गये लॉकडाउन के बाद, करोड़ों मेहनत-मज़दूरी करने वालों के लिए खाने के लाले पड़ जाने से लेकर, दसियों लाख प्रवासी मज़दूरों के जान बचाने के आख़िरी उपाय के तौर पर, अपने गांव-घर लौटने के लिए पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र पर निकल पड़ने तक, हर मामले में यह तो हो ही नहीं सकता है कि सरकार को, अपने लॉकडाउन में योजना व तैयारी के अलावा, संसाधनों की कमी दिखायी ही नहीं दे रही हो। इसी तरह, महामारी के ख़िलाफ़ अग्रिम मोर्चे पर लड़ रहे राज्यों की संसाधनों की मांग उसे सुनायी नहीं दे रही हो, यह भी संभव नहीं है।
और यह भी संभव नहीं है कि शुरू से सारे स्वास्थ्य/ महामारी के जानकारों द्वारा दी जा रही यह चेतावनी सरकार को सुनायी ही नहीं दी हो कि लॉकडाउन की अवधि का, उधार के समय की तरह तत्परता से उपयोग कर, असाधारण रूप से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को खड़ा किया जाये, नहीं तो महामारी के बोझ तले पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था बैठ जायेगी और देश को इसकी बहुत भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। इस सब के बावजूद, मोदी सरकार को न तो संकट के मारे शहरी व ग्रामीण ग़रीबों की मदद के लिए कुछ ख़ास करना मंज़ूर हुआ, जिन्हें अचानक घोषित लाकडॉउन ने सिर्फ़ काम/आय से ही नहीं, दो वक़्त की रोटी तथा सिर पर छत तक से वंचित कर दिया था। और न उसे इस लड़ाई में अगले मोर्चे पर लड़ रहे राज्यों की मदद के लिए कुछ करना मंज़ूर हुआ। और उसे सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे का विस्तार करने के लिए कुछ ख़ास करना भी मंज़ूर नहीं हुआ। मीडिया पर मोदी सरकार के सारे शिकंजे के बावजूद, शहरी व ग्रामीण ग़रीबों और ख़ासतौर पर प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा की अनगिनत दिल हिला देने वाली कहानियां, इस विफलता का जीता जागता सबूत हैं। और रही स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति तो उसका जीता-जागता सबूत देश के कैबिनेट सचिव का ख़ुद इसकी चेतावनी देना है कि ऐसे ही हाल रहे तो देश की चालीस फ़ीसद आबादी, कोविड-19 वायरस के ही रहमो-करम के भरोसे होगी। और जैसा हमने शुरू में ही ध्यान दिलाया, जिस समय कैबिनेट सचिव जब उक्त गंभीर चेतावनी दे रहा था, उसी समय देश का प्रधानमंत्री आत्मनिर्भरता का जाप कर रहा था। यानी इस सामने खड़े दिखायी देते ख़तरे से बचाने के लिए, मोदी सरकार से कुछ भी करने की उम्मीद कोई नहीं करे!
यह सब इसलिए कि आत्मनिर्भरता का जाप सबसे बढ़कर इसी सचाई पर पर्दा डालने के लिए है कि यह देश की अब तक की सबसे परनिर्भर सरकार है। इस परनिर्भरता के अनेक पहलू हैं। इनमें से एक चौंकाने वाला किंतु काफ़ी कम ही चर्चा में आया पहलू, जिसे हर मामले में पारदर्शिता से दूर भागने वाली मोदी सरकार ने सात पर्दों में छुपा कर रखा हुआ था, उसके दुर्भाग्य से आधिकारिक रूप से आत्मनिर्भरता का जाप शुरू होने के कुछ ही बाद में अचानक उघाड़ा हो गया। हुआ यह कि लॉकडाउन में संक्रमितों की संख्या और मौतों का भी आंकड़ा बहुत तेज़ी से बढ़ते रहने के बाद भी मोदी सरकार, जैसाकि उसका तरीक़ा ही हो गया है, यह साबित करने की कोशिशें कर रही थी कि उक्त आंकड़ों के बावजूद, लॉकडाउन का उसका फ़ैसला तो बहुत कामयाब रहा था। इसके लिए, महामारी के फैलाव तथा उसके नुक़सान के अनुमान की मॉडलिंग-आधारित कसरतों के ज़रिये, यह दिखाने की कोशिशें की जा रही थीं कि लॉकडाउन में संक्रमणों और मौतों के तेज़ी से बढ़ने को मत देखो, इसका शुक्र मनाओ कि मोदी सरकार ने लॉकडाउन लगाकर भारत को इसके कई गुना ज़्यादा संक्रमण और मौतों से बचा लिया था। इस तर्क का बेढ़बपन अपनी जगह, इसे लॉकडाउन न होने की स्थिति के संभावित संक्रमणों व मौतों के एक से ज़्यादा ग्राफ़ों के सहारे, वैज्ञानिक सत्य की तरह स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी।
बहरहाल, इन ग्राफ़ों में एक ग्राफ़ जो लॉकडॉउन की सबसे ज़बर्दस्त सफलता का बखान करता था, अपने अति-अतिरंजित लगने के चलते, जानकारों की नज़रों में ख़ासतौर पर आया। तब पता चला कि यह ग्राफ़ तो अमरीकी व्यापारिक कंसल्टेंसी फ़र्म, बोस्टन कंसल्टेंसी ग्रुप द्वारा तैयार किया गया था। इसके बाद यह सच भी सामने आने में ज़्यादा समय नहीं लगा कि बोस्टन कंसल्टेंसी ग्रुप को बाक़ायदा, कोविड के संदर्भ में ख़ासतौर पर स्वास्थ्य मंत्रालय के क़दमों के लिए परामर्श की ज़ित्तेदारी ही नहीं सौंपी गयी थी, उसे कृषि मंत्रालय में इस महामारी से संबंधित कंट्रोल रूम में ही बैठा दिया गया था। यह इसके बावजूद था कि इस फ़र्म का, जिसकी गिनती अमरीका की तीन सबसे बड़ी कंसल्टेंसी फ़र्मों में होती है, महामारी से निपटने में परामर्श देने का न तो कोई अनुभव था और न उसके पास सांख्यिकीय विश्लेषण के अलावा, इसके लिए ज़रूरी कोई विशेषज्ञता थी।
आज़ादी के बाद, पहली ही बार हुआ था कि किसी सरकार ने ऐसे मामले में किसी विदेशी कंपनी को परामर्श का ठेका देने की ज़रूरत समझी थी और अनेक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने न सिर्फ़ इस पर हैरानी जतायी थी बल्कि इसे महामारी से निपटने के अपने देश के अनुभव तथा क्षमताओं का तिरस्कार भी बताया था। याद रहे कि भारत ने इससे पहले निकट अतीत में ही एड्स और उसके बाद सार्स जैसी वायरस-जनित महामारियों पर कामयाबी के साथ क़ाबू पाकर दिखाया था। जो स्वास्थ्य विशेषज्ञ ऐसे मामलों में व्यवहारवादी रुख़ अपनाने के पक्ष में थे, उनका भी यह कहना था कि सरकार को कम से कम यह स्पष्ट रूप से बताना चाहिए था कि उक्त अमरीकी बहुराष्ट्रीय परामर्श कंपनी, महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई में ऐसी कौन सी विशेषज्ञता मुहैया कराने जा रही थी, जो भारत के पास नहीं थी।
मोदी सरकार ने तो इस संबंध में किसी सवाल का जवाब नहीं दिया, बहरहाल ऐसा लगता है कि इससे सरकार की कोविड महामारी से लड़ने की रणनीति में योगदान करने के नाम पर गठित कार्यदल तथा परामर्श ग्रुपों में स्वास्थ्य वैज्ञानिकों की सरकारी कार्यनीति से असहमतियां, खुलकर सामने आ गयीं। संभवत: इसी का नतीजा था कि लॉकडाउन-4 के आख़िर में, तीन सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठनों द्वारा बाक़ायदा एक संयुक्त पत्र लिखकर, न सिर्फ़ लॉकडाउन की सफलता पर सवाल उठाये गये बल्कि उसके वास्तव में संक्रमण के फैलने के लिहाज़ से उल्टे ही पड़े होने को रेखांकित किया गया। ये संगठन हैं: इंडियन पब्लिक हैल्थ एसोसिएशन, इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ प्रिवेंटिव एंड सोशल मैडीसन और इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ इपीडेमियोलॉस्टिस। संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में जैसाकि हमने पहले कहा, ख़ुद मोदी सरकार द्वारा इसी महामारी के संबंध में गठित सलाहकार परिषद के कुछ सदस्य भी शामिल हैं। पत्र में अन्य बातों के अलावा कहा गया है: 'अगर प्रवासियों को महामारी के शुरू में ही घर जाने दिया गया होता, जब बीमारी का प्रसार कम था, तो मौजूदा हालात से बचा जा सकता था। घर लौट रहे प्रवासी अब अपने साथ संक्रमण देश के कोने-कोने तक, ज़्यादातर ऐसे ज़िलों में ग्रामीण व अर्ध-शहरी इलाक़ों में ले जा रहे हैं, जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाएं अपेक्षाकृत कमजोर हैं। इन वैज्ञानिकों की एक बड़ी शिकायत यह भी है कि महामारी के सिलसिले में सरकार की कार्यनीति और रणनीति के फ़ैसलों में न महामारी विज्ञानियों की सुनी जा रही थी, न सार्वजनिक स्वास्थ्य विज्ञानियों या इस चुनौती से संबंधित अन्य विशेषज्ञों की।
फिर भी, मुद्दा विषय-परिवर्तन के लिए अचानक आत्मनिर्भरता का जाप करने लगी इस सरकार के अपने वास्तविक आचरण में सिर्फ़ इस या उस देश या इस या उस कंपनी पर, निर्भर होने का नहीं है। ये तो अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं, समग्रता में यह विदेशी पूंजी पर निर्भरता का मामला है, जिसमें उस आवारा पूंजी का बोलबाला है, जिसके पांव में चक्कर है। इस आवारा पूंजी के नाराज़ होने का डर ही है जो, जनता के लिए जीवन- मृत्यु के संकट बीच भी नरेंद्र मोदी की सरकार को, वायरस के ख़िलाफ़ युद्घ में किसी उल्लेखनीय पैमाने पर ख़र्च करने से रोकता है। इस हद तक रोकता है कि भारत को आर्थिक महाशक्ति बना देने और उसके जल्द ही 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बन जाने के रास्ते पर तेज़ी से बढ़ रहे होने की अपनी सारी शेख़ियों के बावजूद, महामारी से लड़ने के लिए यह सरकार जीडीपी का 1 फ़ीसद भी ख़र्च करने के लिए तैयार नहीं है। यहां यह जोड़ना ज़रूरी नहीं है कि कथित 20 लाख करोड़ के पैकेज को, शायद ही किसी ने गंभीरता से लिया है। और यह तब है जबकि विकसित पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं इसी चुनौती का सामना करने पर अपने जीडीपी का 10 से 20 फ़ीसद तक ख़र्च कर रही हैं।
सरकार को ख़र्च करना मंज़ूर क्यों नहीं है? ख़र्च करेगी, तो राजकोषीय घाटा बढ़ जायेगा। राजकोषीय घाटा बढ़ा तो, वैश्विक रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा देंगी और आवारा पूंजी उड़कर किसी और डाल पर जा बैठेगी। वित्त मंत्री हर हफ़्ता-दस दिन में इस आवारा विदेशी पूंजी को इसका भरोसा दिलाना नहीं भूलती हैं कि राजकोषीय घाटे के मामले में सरकार, एकदम लक्ष्य पर है! वास्तव में जैसाकि अनेक पूंजीवादी सिद्घांतकारों तक ने दर्ज किया है, कोविड के संकट के बीच, जो विश्व अर्थव्यवस्था के पहले ही गहराते संकट के बीच आया है और जिसने इस आर्थिक संकट को लॉकडाउन आदि के रास्ते और भी मारक बना दिया है, विकसित पूंजीवादी दुनिया किसी न किसी रूप में कल्याणकारी राज्य के उस रास्ते की ओर लौट रही है, जिसे नवउदारवाद के दशकों ने भुलवा ही दिया था। इंग्लेंड में, अमरीका में तथा अन्यत्र, इस संकट के बीच मज़दूरों के वेतन के 80 फ़ीसद तक हिस्से की भरपाई, सरकारी बजट से किया जाना, इसी की ओर एक इशारा है। ऐसा ही एक और इशारा इटली समेत कई देशों में निजी चिकित्सा संस्थानों का, कम से कम महामारी की अवधि में, सरकारों द्वारा अपने नियंत्रण में लिया जाना है।
बेशक, यह महज कल्याणकारी राज्य की ओर लौटना ही नहीं है। इन विकसित पूंजीवादी देशों में सरकारी खजाने से मज़दूरों के वेतन के बड़े हिस्से की भरपाई, न सिर्फ़ यह सुनिश्चित करती है कि इस संकट में मज़दूरों के भूखों मरने की नौबत नहीं आये बल्कि यह भी सुनिश्चित करती है कि जनता के विशाल बहुमत के हाथों में क्रय शक्ति बिल्कुल बैठ ही नहीं जाये, जैसाकि हम भारत में होता देख रहे हैं। जनता के बड़े हिस्से के हाथों में क्रय शक्ति का बचे रहना, अर्थव्यवस्था में मांग को और इसलिए, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पहिए दोबारा चल पड़ने की संभावनाओं को, बचाये रखने के लिए भी ज़रूरी है। यानी इस दिशा में चलना ख़ुद पूंजीवादी व्यवस्था के अस्तित्व की रक्षा के लिए ज़रूरी है। लेकिन, इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इस संकट के बीच भी ऐसा होना पूंजीवादी व्यवस्था की नियति ही है। विकसित दुनिया के विपरीत, तीसरी दुनिया के देशों पर इस दिशा में न जाने के भी प्रबल दबाव हैं, जिनमें सबसे प्रमुख तो वित्तीय पूंजी का दबाव ही है। मोदी के नेतृत्व में भारत न सिर्फ़ इस बाहरी दबाव के आगे घुटने टेक रहा है बल्कि इस संकट के बीच विकसित पूंजीवादी देशों से ठीक उल्टी दिशा में चल रहा है।
लेकिन, उल्टी दिशा में ही क्यों? क्योंकि अगर इस संकट के बीच भी सरकार ख़र्च नहीं करने को तैयार नहीं है और महामारी का मुक़ाबला करने के लिए भी सिर्फ़ लॉकडाउन जैसे क़दमों का ही सहारा लेती है, तो कोविड महामारी के आने तथा उसका मुक़ाबला करने के लिए लॉकडाउन किये जाने से पहले से गहरा रहा आर्थिक संकट, महामारी के साथ जुड़कर आगे-आगे, एक बहुत भारी चौतरफ़ा सामाजिक-आर्थिक संकट का रूप लेने जा रहा है। और मोदी राज ऐसे हरेक संकट से निपटने का और उसे अपने लिए राजनीतिक संकट का रूप लेने से रोकने का एक ही रास्ता जानता है; एक ओर जनतंत्र का दमन और दूसरी ओर सांप्रदायिक आधार पर जनता का विभाजन तथा बहुसंख्यक समुदाय का अपने गिर्द ध्रुवीकरण। अचरज नहीं कि मोदी राज ने कोविड की महामारी को अपने हाथों में शक्ति के ज़्यादा से ज़्यादा केंद्रीयकरण, जनतंत्र के नंगे दमन और खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बहाने में ही तब्दील कर दिया है। यह सरकार महामारी की स्वास्थ्य इमर्जेंसी की ओर से तो ज़्यादा से ज़्यादा मुंह मोड़ती गयी है और उसे राजनीतिक इमर्जेंसी के बहाने में ज़्यादा से ज़्यादा तब्दील करती गयी है। चौतरफ़ा संकट की मार से जनता के बढ़ते विरोध को अपने लिए राजनीतिक संकट बनने से रोकने के लिए, वह इस राजनीतिक इमर्जेंसी का आगे-आगे और ज़्यादा सहारा लेगी।
लेकिन, सिर्फ़ बढ़ते पैमाने पर सांप्रदायिक-तानाशाही का सहारा लेना भी, चौतरफ़ा बढ़ते संकट के बीच उसे बचाने के लिए काफ़ी नहीं होगा। आत्मनिर्भरता का सरासर फ़र्ज़ी नारा, सरकार ख़ुद जिससे उल्टा आचरण ही कर रही है और आगे भी कर रही होगी, इसीलिए ज़रूरी हो जाता है। दूसरी ओर, इस तरह एक झूठे नारे का सहारा लिया जाना, इस शासन के असली चरित्र को ही उजागर करता है। जानते-बूझते हुए ऐसे झूठे नारे का सहारा लिया जाना, मिसाल के तौर पर अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी को कोविड से मुक़ाबले की कार्यनीति तय करने की ज़िम्मेदारी सौंपने के बाद भी, आत्मनिर्भरता का जाप करना, जनता और जनतंत्र के प्रति एक गहरी हिकारत का सबूत है, जो कि फ़ासीवादी प्रवृत्ति की पहचान है। और यह भरोसा बल्कि कहना चाहिए दंभ कि हम जनता से कुछ भी मनवा सकते हैं, उसे कुछ भी पाठ पढ़ा सकते हैं, प्रोपेगंडा की फ़ासीवादी रणनीति पर गहरे भरोसे को ही दिखाता है।
प्रोपेगंडा की फ़ासीवादी रणनीति में इसका विशेष महत्व है कि छोटे-छोटे झूठ नहीं, बड़ा झूठ बोला जाये, इतना बड़ा झूठ कि लोगों को विश्वास ही न हो कि यह झूठ भी हो सकता है। आम धारणा के विपरीत, यह सिद्घांत गोयबल्स के बजाय ख़ुद हिटलर ने अपनी आत्मकथा, मीन कैम्फ़ में प्रस्तुत किया है, जिसके संबंधित अंश का हिंदी रूपांतर कुछ इस प्रकार होगा: 'महा झूठ में हमेशा एक प्रकार का विश्वसनीयता का बल होता है। वजह यह कि राष्ट्र के अवाम सचेतन रूप से या स्वेच्छा से प्रभावित होने के बजाये हमेशा, अपनी भावनात्मक प्रकृति के गहनतर संस्तर से कहीं ज़्यादा आसानी से प्रभावित होते हैं और इस तरह अपने दिमाग़ की आदिम सादगी में वे छोटे झूठ के बजाय, महा झूठ के कहीं आसानी से शिकार हो जाते हैं क्योंकि वे ख़ुद अक्सर छोटी छोटी चीज़ में छोटे झूठ तो बोलते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर झूठ का सहारा लेने में, शर्मिंदगी महसूस करेंगे। यह कभी उनके दिमाग़ में नहीं आयेगा कि विशालकाय झूठ गढ़ें और वे इस पर विश्वास ही नहीं करेंगे कि दूसरा कोई इतना धृष्ट हो सकता है कि इतनी बेशर्मी से सत्य को विकृत कर दे। ऐसा साबित करने वाले तथ्य भले ही स्पष्ट रूप से उनके दिमाग़ के सामने लाये जायें, वे फिर भी उन पर संदेह करेंगे तथा हिचकेंगे और यह मानते रहेंगे कि कोई और कारण होगा। इसकी वजह यह है कि सरासर धृष्ट झूठ, बेनक़ाब किये जाने के बाद भी, हमेशा अपने पीछे निशान छोड़ जाता है...। वर्तमान सरकार के मुंह से आत्मनिर्भरता ऐसा ही बड़ा फ़ासीवादी प्रकृति का महा-झूठ है, जिसे सांप्रदायिक-राष्ट्रवाद की बैसाखी के सहारे खड़ा करने की कोशिश की जा रही है, ताकि कोविड से गहराये चौतरफ़ा संकट से, मोदी सरकार को और उसके द्वारा संरक्षित बड़ी पूंजी के मुनाफ़ों को, बचाया जा सके।             
मो0 9818097260

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