वैचारिक चर्चा-1

 

सावित्रीबाई फुले रचना-समग्र और दलित चिंतन

शिवानी चोपड़ा

दलित स्त्री चिंतन के समक्ष साहित्य व समीक्षा में ऐतिहासिक धरोहर बनाने का काम चुनौतीपूर्ण रहा है। सदियों से मूक मान ली जाने वाली जातियों, समुदायों व वर्गों की मौखिक व लिखित रचनाओं का न मिलना संयोग नहीं है। हाशिये पर रहने के कारण वे अपनी पहचान को स्थायी महत्त्व देने में संघर्षशील रहे हैं। लेकिन यहां सवाल केवल अस्मिता की पहचान का नहीं, उसे व्यापक वैचारिक आधार बनाते हुए चिंतन व ज्ञान की नयी स्थितियों व संरचनाओं के निर्माण का है। इस संदर्भ में सावित्रीबाई फुले को पहली शिक्षिका मानना प्रतीक मात्र नहीं है, उनकी रचनाओं व लेखन के माध्यम से यह जाना जा सकता है कि वे राष्ट्रीय चेतना के उत्थान के दौर में सभी वर्णों की स्त्रियों के लिए शिक्षा व ज्ञान को आवश्यक मान रहीं थीं। इसलिए दलित चिंतन उनके लेखन को शोषित-दमित वर्ण व समुदाय की स्त्रियों के लिए व्यापक आंदोलन के तहत अवस्थित करता है। सावित्रीबाई फुले जोतिबा फुले की प्रेरणा से दलित स्त्री समाज की स्थिति में बदलाव के लिए शिक्षा को अंधकार से उबारने वाले प्रकाश के रूप में देखती हैं। वे निरंतर प्रयास करती हैं कि दलित समाज अपने अंधविश्वासों व पिछड़ेपन से मुक्त हो, स्वाभिमान के साथ अस्तित्व को निर्मित करे व नये समाज का निर्माण करने में योगदान दे। जातीय भेदभाव के कारण होने वाले उत्पीड़न से मुक्ति के लिए शिक्षा जितनी ज़रूरी है, उतना ही महत्वपूर्ण सवाल शिक्षा के स्वरूप, ज्ञान के चरित्र और भाषा से भी जुड़ा हुआ है।

  समाजशास्त्री शर्मिला रेगे आंबेडकर और फुले के लेखन पर विचार करते हुए कहती हैं कि दलित जातियों की मुक्ति के लिए शिक्षा तीसरा रत्न है। दलित चिंतन के अंतर्गत इसे तीसरा रत्न इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि चिंतन की परंपरा में पहला रत्न फुले हैं, दूसरे आंबेडकर हैं, जिन्होंने मुक्ति के लिए रास्ते तैयार किये और तीसरा रत्न शिक्षा है जिसके लिए फुले और आंबेडकर दोनों ने जागृति फैलाने का काम किया। शिक्षा के माध्यम से वे मुक्ति का सिद्धांत गढ़ते हैं। इसलिए वे शिक्षा के स्वरूप पर भी बात करती हैं। सत्यशोधक समाज में पढ़ने वाली 14 वर्षीय मांग जाति की लड़की के कथन को उद्धृत करती हैं, जो किसी सभा में ऊंचे स्वर में ललकारते हुए कहती है, '(-) ज्ञानी पंडितो, खोखली बौद्धिकता से भरी अपनी स्वार्थपूर्ण बकबक को बंद करो और मेरी बात ध्यान से सुनो!...' शर्मिला रेगे सावित्रीबाई की इस साधारण शिष्या के शब्दों में निहित तीव्र विरोध व प्रखरता को स्पष्ट करते हुए आगे कहती हैं कि ये आग से भरे हुए दहकते हुए शब्द हैं, इन शब्दों के माध्यम से संस्कृति, सत्ता और ज्ञान के जटिल 'अंत:संबंधों को समझा जा सकता है, जिसमें स्त्रियों व दलितों को शिक्षा से वंचित रखने वाली प्रक्रिया सामने आती है। वे स्पष्ट करती हैं कि सत्यशोधक समाज के माध्यम से ऐसे विचलित कर देने वाले कई उदाहरण सामने आते हैं जिनमें (पूर्व-) अछूत जातियों व स्त्रियों की अवहेलना, तिरस्कार और बाधा उत्पन्न करने वाली परंपरागत संरचनाओं का विरोध किया गया है, जो शिक्षा व ज्ञान के माध्यम से समाज में सत्ता व वर्चस्व निर्मित करती हैं।1 इस तरह के उदाहरणों का नोटिस रेगे जैसे समाजशास्त्रियों द्वारा ही अकादमिक चिंतन में किया गया। हिंदी साहित्य समीक्षा में सावित्रीबाई फुले जैसे चिंतकों का लेखन कुछ वर्ष पूर्व ही मूल से अनूदित रूप में सर्वसुलभ हुआ है। सावित्रीबाई की मूल मराठी रचनाओं के अध्ययन पर दलित समीक्षक बजरंग बिहारी सावित्रीबाई की कविताओं का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि सावित्रीबाई की चिंताएं तात्कालिक से ज़्यादा दूरगामी स्वरूपवाली हैं, वे वास्तविकताओं से ही कविता रचना चाहती हैं, इसलिए उनकी कविताएं उन कल्पनामयी व भावुक कविताओं से अलग हैं जिनमें स्त्री स्वप्नलोक की परी की तरह आती है। उनके लिए यह एक गंभीर व चिंताजनक प्रश्न है कि सावित्रीबाई को किस तरह से पढ़ा जाये, क्योंकि वे सावित्रीबाई के लेखन को अस्मितावादी या विमर्शवादी एजेंडे तक सीमित कर देने से जो ऐतिहासिक-साहित्यिक क्षति होती है, उससे लेखन को बचाना चाहते हैं। इसलिए वे सावित्रीबाई को एक कवयित्री की तरह विश्लेषित करते हैं, उनकी कविता में आये छंदों से लेकर काव्यरूप व विषयवस्तु के चयन के सामाजिक आधार पर विस्तृत विश्लेषण करते हैं। वे उनकी कविताओं के माध्यम से द्रष्टा कवि की अवधारणा को सामने रखते हैं, जिसके लिए कुछ पूर्ववर्ती शर्तें थीं, इसे वे संत परंपरा की ज्ञान की अवधारणा से भी जोड़ते हैं, जिससे शास्त्र के समकक्ष साधारणजन व लोकपरंपरा में विकसित ज्ञान की परंपरा से जोड़ते हैं।2 इन  कविताओं में शर्तों का संबंध जीवन के सत्य, शिव व सुंदर के महत्व की उचित व्याख्या से है, जो व्यापक मानव समाज व सृष्टि को घृणा, छुआछूत और भेदभाव से मुक्त एक द्रष्टा के रूप में देखने के लिए प्रेरित करती है। विमर्श व दलित चिंतन के विकास के कारण ही फुले दंपति के लेखन, समकक्ष ज्ञान और व्याख्या की ओर अकादमिक जगत उन्मुख हुआ, जिसे मुक्ति की व्यापक अवधारणा से जोड़ने के उपक्रम में रजनी तिलक जैसी रचनाकार व्यापक पाठक वर्ग के लिए उपलब्ध कराती हैं।         

  रजनी तिलक के संपादन में प्रकाशित किताब, सावित्रीबाई फुले रचना समग्र सावित्रीबाई के महत्त्वपूर्ण रचनात्मक व ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को एक जगह एकत्रित कर जनसामान्य के लिए उपलब्ध कराती है। ये रचनाएं नयी ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण के नये रास्ते खोलती हैं, जिनसे दलित चिंतन को व्यापक सामाजिक संदर्भों में समझने में मदद मिलती है। अपने एक साक्षात्कार में रजनी तिलक इस किताब को संपादित करने व प्रकाशित करने की प्रेरणा का सारा श्रेय सामाजिक व दलित आदोलनों की संघर्षमय भूमि को देती हैं जिनसे वे व्यक्तिगत जीवन संघर्षों के लिए भी विचारधारात्मक शक्ति प्राप्त करती रहीं। रजनी तिलक आंदोलनों के यांत्रिक स्वरूप से बचते हुए इस बात के लिए सावधान करती हैं जो महत्त्वपूर्ण वैचारिक लेखन के सामाजिक उपयोग व वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के स्थान पर इस तरह के जननायकों को पूजनीय देवी-देवता बनाकर अंधभक्ति करना सिखाते हैं। इससे संघर्ष करता जनमानस वैचारिक-मानसिक रूप से सबल होने के स्थान पर पूर्ववत जड़ और पिछड़ा बना रहता है। आज इस बात को रेखांकित किया जाता है कि दलित चिंतन में शिक्षा व ज्ञान अर्जित करने की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण रत्न माना जाता है। दलित समाज की स्थिति बदलने के लिए फुले और आंबेडकर का चिंतन भी इसलिए है चूंकि इन चिंतकों ने शिक्षित होने व नये ज्ञान को प्राप्त करने के लिए दलित समाज को जाग्रत किया। फुले मानते थे कि सामाजिक आदोलनों को सफल बनाने के लिए शिक्षा व ज्ञान के नये अवयवों के लिए प्रयासरत रहना पड़ेगा।

     सावित्रीबाई का लेखन मूल रूप से मराठी भाषा में उपलब्ध है और जिसे साहित्य व समीक्षा के इतिहास की धरोहर के रूप में दलित चिंतन की आधारभूमि माना जाता है। इसलिए सावित्रीबाई इस चिंतन की आधारशिला रखने वाली जन-नायिका के रूप में पढ़ी जाती हैं। उनका लेखन साहित्य व इतिहास के पृष्ठों में अनदेखा नहीं किया जा सकता बल्कि यह गंभीर समीक्षा व पुनरावलोकन की अपेक्षा रखता है। इन रचनाओं का मूल मराठी भाषा से हिंदी में अनुवाद शेखर पवार द्वारा किया गया और रजनी तिलक द्वारा इसका संपादन सर्वप्रथम सन् 2017 में प्रकाशित हुआ तथा यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इसका प्रकाशन द मार्जिनलाइज़्ड पब्लिकेशन द्वारा किया गया। सावित्रीबाई द्वारा इन रचनाओं को कब लिखा गया, इनकी सुनिश्चित जानकारी हिंदी अनुवाद में नहीं मिलती, परंतु कुछ कविताओं के अंत में लेखन वर्ष दिया गया है या सावित्रीबाई द्वारा लिखे कुछ पत्रों व भाषणों में वर्णित घटनाओं के माध्यम से मोटेतौर पर समय का अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे आरंभिक कविता समर्पण के अंत में समय सन् 1854 दिया गया है। इस कविता में वे लिखती हैं कि सबकी कृपा व अगाध स्नेह के कारण ही वे लिख रहीं हैं, इसलिए यह काव्यमाला वे अपने समुदाय के पाठकों व उनके स्नेह को समर्पित करती हैं। वे इसे इतिहास में दर्ज करने वाले दस्तावेज़ की तरह नहीं लिखतीं, बल्कि जनसामान्य के लिए आसानी से पढ़ी-सुनी जाने वाली रचनाओं की श्रेणी में रखती हैं। वर्तमान साहित्य-समीक्षा पद्धति केवल इतिहास के दस्तावेज़ बनाकर काव्यकृतियों के साहित्यिकरचनात्मक स्वरूप का कहीं न कहीं अवमूल्यन करती रही है। सावित्री की कविताएं भी लोक परंपरा का हिस्सा हैं। उनकी कविताओं के बारे में एक जगह बताया गया है कि जोतिबा को समर्पित कविताएं बावनकशी संग्रह में ‘52 बहरों की लंबी कविता के रूप में शामिल हैं, इन रचनाओं में उन्होंने जोतिबा के प्रति प्रेम, सम्मान प्रकट करते हुए अपनी भावात्मक अभिव्यक्ति की है तथा इसके साथ ही उनके व्यक्तित्व व विचारों का विस्तृत वर्णन भी किया है। इनमें जोतिबा के संपूर्ण जीवन के संघर्षों को शब्दबद्ध किया गया है। इस प्रकार इन रचनाओं व कविताओं में अभिव्यक्त जातीय उत्पीड़न के संदर्भ दलित साहित्य के विकास के लिए सैद्धांतिकी प्रदान करते हैं। दलित समीक्षक बजरंग बिहारी के एक आलेख में इसके बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। सावित्रीबाई फुले(1831-97) के दो काव्य-संग्रह एक, काव्य फुले(1854) तथा दूसरा, सुबोध रत्नाकर(1891) मराठी भाषा में प्रकाशित हुए। एक संग्रह में जीवनसाथी फुले के प्रति प्रेमपूर्वक कृतज्ञता ज़ाहिर की गयी है व दूसरे में उनकी प्रामाणिक जीवनी दी गयी है।3   

रजनी तिलक द्वारा संपादित सावित्रीबाई फुले रचना समग्र किताब को तीन भागों में विभाजित किया गया है। पहले भाग में सावित्रीबाई फुले रचित कविताएं हैं, जिन्हें दलित संदर्भों से जुड़ी कविताएं कहना चाहिए। दूसरे भाग को काव्य-फुले  शीर्षक दिया गया है। इन कविताओं के नीचे इनका मूल प्रकाशन वर्ष सन् 1854 दिया हुआ है। इसी में जोतिबा को लिखे कुछ पत्रों का भी उन्होंने संकलन किया है जिनमें दलित समाज के साथ होने वाले अन्यायपूर्ण व्यवहार व घटनाओं का उल्लेख है। विशेषकर दलित स्त्रियों के साथ समाज का संकीर्ण व्यवहार व दलित समाज की अनभिज्ञता सामने आती है। सावित्रीबाई दलित स्त्री के साथ होने वाले अन्याय के लिए दलित समाज की सीमाओं का भी विवेचन करती हैं और उनके समक्ष इसका एकमात्र उपाय नयी व आधुनिक शिक्षा है, जिसके पुरोधा अंग्रेज़ हैं। इस ज्ञान को वे ब्राह्मणवाद का सामना करने का हथियार मानती हैं। किताब का तीसरा और अंतिम भाग सावित्रीबाई के भाषणों का संकलन है, जिनमें वे दलित समाज को शिक्षित करने का दायित्व गंभीरता से विवेचित करती हैं तथा उनके उत्थान के लिए समाज में व्याप्त भिन्न भिन्न व्यसनों को छोड़ने व उनसे दूर रहने के लिए प्रेरित करती हैं। दलित समाज में पुरुषों को आलस्य त्यागने व परिस्थितयों से हारकर हाथ पर हाथ रखकर बैठने के स्थान पर श्रम करने का महत्व समझाती हैं। 

सावित्रीबाई का लेखन ऐतिहासिक महत्त्व इसलिए भी रखता है क्योंकि यह ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौर में लिखा गया, जिसे राष्ट्रीय चेतना के उत्थान का काल भी माना जाता है। वे जातीय उत्पीड़न के प्रति सजग स्त्री थीं इसलिए उन्होंने धार्मिक संरचना के भीतर पोषित अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग व कर्मकांडों के ख़िलाफ़ लिखा, जिन्हें आधार बनाकर स्त्रियों व अछूत मानी जाने वाली जातियों के प्रति शोषण, भेदभाव व उत्पीड़न किया जाता था। राष्ट्रीय चेतना के इस दौर में जब स्त्रियों की शिक्षा व उद्धार का सवाल सामने आया तब दमित जातियों का उत्थान देश के कई हिस्सों में ज्वलंत प्रश्न बनता जा रहा था। यह स्वीकृत तथ्य है कि उस समय सभी जातियों की स्त्रियां अपने तरीक़े से लड़ रहीं थीं और शिक्षा को स्त्री के सामाजिक उत्थान के लिए सबसे अहम व आवश्यक मान रही थीं। लेकिन शिक्षा व शैक्षिक प्रक्रियाओं के मायने सबके लिए अलग-अलग ढंग से काम कर रहे थे। अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने वाला उच्च वर्ण, विशेषकर जो आर्थिक रूप से भी संभ्रांत था, जिसे कुछ इतिहासकारों ने भद्र वर्ग भी कहा है, अपनी मातृभाषाओं के प्रति जितना सचेष्ट था उतना ही अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त करने के लिए जागरूक था। उसके लिए मातृभाषा और मातृभूमि राष्ट्रीय प्रतीक बनाये जा रहे थेऐसा राष्ट्रीय आंदोलन, साहित्यिक रचनाओं और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों के माध्यम से किया जा रहा था। देश भाषा और भारत भूमि के लिए चिंतित यह वर्ग अपने इतिहास, संस्कृति और जड़ों को औपनिवेशिक ताक़त के विरुद्ध परिभाषित कर रहा था जिसे बांग्ला में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के लेखन से लेकर हिंदी में भारतेंदु युग व उसके बाद के युगों में भी देखा जा सकता है। हिंदी नवजागरण के दौर में भाषा, समाज और स्त्री के अंत:संबंधों को समझने के लिए स्त्री दर्पण पत्रिका के कुछ अंकों के संपादन को देखा जा सकता है, जिनमें स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए जिन सुधार कार्यों को आवश्यक बताया गया है, वे मुख्यधारा और सवर्ण समाज की सांस्कृतिक समझ का परिचायक हैं। जैसे स्त्री धर्म, पतिव्रता धर्म आदि पर लेख व कई टिप्पणियां हैं, साथ ही विधवा स्त्री, परित्यक्ता तथा नीच जातियों की दुर्दशा पर चिंता भी व्यक्त की गयी है। भारतवासियों को स्त्री शिक्षा के महत्त्व के प्रति जागरुक करते हुए पश्चिम की संस्कृति, अंग्रेज़ी भाषा व शिक्षा से होने वाली हानि के बारे में विस्तार से लिखा गया है।4 इसमें भारतीयता के जिस फ्रेमवर्क में स्त्री की नयी छवि को निर्मित किया जा रहा था वह भारतीय समाज की विभिन्न संरचनाओं में मौजूद विभेदीकरण की सटीक व्याख्या कर पाने में असमर्थ थी। भारतीय राष्ट्र की वह छवि विक्टोरियन समाज की तरह परंपरागत संस्कारों के निर्वाह को आदर्श बनाकर चल रही थी, जिसकी समीक्षा पूर्व बनाम पश्चिम की रूढ़िगत 'बाइनरी' के फ्रेमवर्क में भी की गयी है।       

दलित मत की समीक्षा इस दौर के पूरे लेखन के प्रति भिन्न दृष्टि प्रदान करती है। वर्तमान दलित चिंतन सावित्रीबाई के लेखन को स्पष्टतौर पर जातीय भेदभाव व शोषण के संदर्भों में परिभाषित करता है। वे समाजसुधारक हैं, कवयित्री हैं, जोतिबा से प्रेरित हैं और उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए शिक्षा के महत्व पर काव्य रचती हैं, जिसमें जातीय संदर्भों में शिक्षा के विशिष्ट मायने हैं :

प्रणाम जोतिबा...

जोतिबा महान

शूद्र-अतिशूद्र, अंत्यज

तुम्हारे अनूठे ज्ञान को पाकर अपने को इंसान के रूप में पाते

...

ज्ञान की रोशनी है, जानकारी की ताक़त है

सुन उपदेश तुम्हारा

हम अपना स्वाभिमान जगाते। 5

 

इसी तरह मनुस्मृति व मनुवाद के विरुद्ध एक कविता में ज्ञान के प्रतिष्ठित मानदंडों को चुनौती देते हुए लिखती हैं :

मनु कहे--

...

मनुस्मृति ब्राह्मणों को देती आदेश/ कहे मनुस्मृति खेती न कीजिए/ और उपदेश देती/ खेती करें जो लोग, जो हल चलावे/ वे होते हैं मूढ़ बे-अक्ल

...

जन्म ले जो शूद्र में/ वह पाप है उनके पूर्वजन्मों का/ इस जन्म में चुक्ता करें सब शूद्र/ सावित्री खोले पोल मनु की विषमता की कुटिल रचना/ रीति-रिवाज, परंपराओं पे ठप्पा/ इन अमानवीय कृत्यों का षड्यंत्र/ रचा है धूर्तों की चाल ने।6

एक अन्य कविता में खेती को वे सर्वक्षेष्ठ मानती हैं श्रम के साधन व पेट भरने के लिए, पर इनके साथ शिक्षा व ज्ञान को समय रहते आत्मसात करने पर भी बल देती हैं।7

शिक्षा का अभिप्राय दलित समाज के लिए अपनी सामाजिक स्थिति को ठीक तरह से समझना व उसकी व्याख्या करना भी था, इसलिए सावित्रीबाई शूद्र होने का अभिप्राय और जातीय इतिहास, पूर्वज आदि के बारे में भी लिखती हैं। शिक्षा के माध्यम से वे मुक्तिपथ निर्मित करना चाहती थीं, जिसमें स्त्रियों को गुलामी की संस्कृति से मुक्ति मिले, वे घर-संसार, परिवार, कामकाज व श्रम की भी व्याख्या करती हैं जिससे स्त्रियां प्रेरित हो सकें तथा स्त्री के लिए निर्धारित संरचनाओं को नये ढंग से देखें व व्यापक आंदोलन का हिस्सा बनें। 'शूद्र का शब्दार्थ', 'शूद्रों का दर्द', 'परनिर्भर शूद्र' आदि कविताओं में वे अपने विचार निर्भीकता से व्यक्त करती हैं।

शिक्षा के स्वरूप और भाषा के संबंध में सावित्रीबाई व जोतिबा के मत औपनिवेशिकता का विरोध कर रही राष्ट्र व भारतीयता की अवधारणा से अलग थे। वे अंग्रेज़ी-राज की नीति व क़ानून की प्रशंसा, इस अर्थ में करती हैं जिसका लाभ उठा कर दमित वर्ग शिक्षा के माध्यम से अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारने का प्रयास करे। ब्राह्मणों-पुरोहितों के द्वारा सिखायी ग़ुलामी की संस्कृति को बढ़ावा देने वाली दक़ियानूसी परंपराओं को छोड़ कर व स्वर्ग-नरक के आतंक से मुक्त होकर जीवनयापन करें। भाग्य के भरोसे बैठने के बजाय व अकर्मण्यता के स्थान पर नयी जागृति व चेतना के साथ कर्मपथ पर अग्रसर होने के लिए भी प्रेरित करती हैं। अंग्रेज़ों की सत्ता नामक कविता में वे स्पष्टतौर पर व्यक्त करती हैं कि पेशवाओं की सत्ता अब समाप्त हुई और अंग्रेज़ों की सत्ता में नये अवसर विधि-क़ानून समझ कर जातीयता के आधार पर दमित-शोषित वर्ग को अपने हितों को पहचानना होगा। वे लिखती हैं :

 ब्राह्मण-पुरोहितों के षड्यंत्र जाल/ अविद्या अज्ञानता के कारण शूद्रजनों का/ बहुत किया शोषण-दमन, अन्याय और अत्याचार/अपने ही जाल में फंसकर बेमौत मरी पेशवायी शासन देखो अब अंग्रेज़ों की सत्ता आयी

...

ब्राह्मण पुरोहित और पेशवाओं के/ शासन का ख़ात्मा हुआ/ मनुस्मृति की स्मृतियां खाक हुईं/ शूद्रजनों को सताने वाले बर्बाद हुए/ सयाने अंग्रेज़ों का राज हुआ प्रारंभ

...

देखो अब अंग्रेज़ों का राज्य है/ शूद्रों को मिलेगी ज्ञान की छांव/ अंग्रेज़ों की सत्ता की छतरी से/ शूद्र अतिशूद्रों को मिलेगी थोड़ी आज़ादी/ शूद्र विरोधी क्रूर शासकों की सत्ता का/ समाप्त हुआ काला अध्याय।8

इस कविता के माध्यम से यह भी स्पष्ट होता है कि सावित्रीबाई न केवल जातीयता के आधार शोषण की संरचनाओं को गहराई से पहचानती थी बल्कि शासनतंत्र और सत्ता परिवर्तन की राजनीति की गहरी समझ रखती थीं। इसी तरह काव्यफुले नामक भाग में उन्होंने एक कविता में पेशवा राजतंत्र के बारे में बताया है तो एक अन्य कविता में अंग्रेज़ी राज को समझाने का प्रयास किया है। सन् 1860 से 1880 के मध्य लिखे जोतिबा फुले के काव्य के साथ सावित्रीबाई द्वारा उन्हें लिखे पत्रों को भी देखा जा सकता है जिनमें इसी तरह के चिंतन व विचारों को दिया गया है तथा उनके द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के सुधार कार्यों का विवरण मिलता है। इसमें पुरोहितों द्वारा अशिक्षित ग्रामीणों के साथ किये जाने वाले छल छद्म और भ्रमों को फैलाने के साथ साथ पितृसत्ता के सामाजिक दबावों के कारण दलित स्त्री के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और सामाजिक प्रतिबंधों के कारण होने वाली हिंसा के उदाहरण मिलते हैं जिसके मूल में वे अशिक्षा व अज्ञान को ही देखती हैं। जब एक दलित स्त्री सामाजिक मर्यादाओं के मानदंडों को तोड़ती है तो उसे दंडित करने व सामाजिक मर्यादाओं के अनुसार न्याय की स्थापना के लिए बिना सोचे समझे गांव व समुदाय के सभी लोग हिंसा पर उतर आते हैं। इसे रोकने के उपाय स्वरूप सावित्रीबाई सबको अंग्रेज़ों के शासन और क़ानून के बारे में बताती हैं और क्रूर भीड़ को हत्या करने से रोकती हैं।9

  प्रस्तुत रचना समग्र की भूमिका में रजनी तिलक वर्तमान नारी आंदोलन की सक्रियता पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं और इसकी तुलना में सावित्रीबाई द्वारा किये गये कार्यों का उल्लेख करते हुए लिखती हैं कि उन्होंने सन्1852 में महिला सेवा मंडल स्थापित किया जिसमें अछूत मानी जाने वाली महिलाओं व सवर्ण महिलाओं सभी को एकत्रित कर सभा आयोजित की व तत्पश्चात बदलाव के लिए अभियान कार्यों को आयोजित किया।10

सन् 1853 में फुले दंपति ने मिलकर स्त्रियों के लिए पहला शेल्टर होम व प्रसूति गृह खोला जिसे 'बाल-हत्या प्रतिबंधक गृह' नाम दिया गया और बाद में सन्1873 में इसी गृह से उन्होंने विधवा स्त्री के पुत्र को गोद लेकर उसे डाक्टर बनाया। दलित समाज के उद्धार को लेकर उनकी चिंता सक्रिय आंदोलनधर्मिता की प्ररेणा बनी जिसके परिणामस्वरूप विधवा विवाह, अंतर्जातीय विवाह करवाने से लेकर धार्मिक कर्मकांडों व अंधविश्वासों को रोकना, विधवा मुंडन जैसी प्रथाओं को बंद कराने के प्रयास करवाना आदि के बारे में यह रचना-समग्र महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।      

इस प्रकार जहां सत्यशोधक समाज सुधार कार्यों व शिक्षा के क्षेत्र में नये ज्ञान, भाषा व संस्कृति के माध्यम से परंपरागत दासता, अपमान व उत्पीड़न से मुक्ति के मार्ग तलाश रहा था, वहीं राष्ट्रीय चेतना का विकास कर रही मुख्यधारा, भारतीयता की मूल परंपरागत संस्कृति, संस्कृत भाषा और धर्म की स्थापना के माध्यम से काम कर रही थी। स्त्री दर्पण के संपादित अंकों में सन् 1910 के एक अंक में 'मातृभाषा' नामक लेख छपा, जिसे श्रीमती कैलासरानी बातल, (इलाहबाद) ने लिखा। इस लेख में मातृभाषा संस्कृत को मानकर उसे स्थापित करने व सम्मान देने का आग्रह प्रबलता से किया गया है। वे अपने भाषण में कहती हैं, ‘औपनिवेशिक सत्ता के कारण अंग्रेज़ी भाषा और संस्कृति अपनी जड़ें जमाती जा रही है, जिससे आम जनमानस के विचारों में बिखराव व विशृंखलता आ गयी है। स्त्री हो कर अपनी बात कहने का सुअवसर मिला है ...इसकी सराहना व आभार व्यक्त किया गया है और घर से बाहर निकल कर शिक्षा प्राप्त करने पर बल दिया गया है। शिक्षा अवश्य होनी चाहिए...अपने देश के लिए, धर्म की और राष्ट्र की दशा सुधार लेंगे।...हमें ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि जिससे देश के बालक सच्चे देश भक्त  व राष्ट्र को बनाने वाले बनें। ऐसी विद्या उनको तब तक नहीं मिल सकती जब तक कि संस्कृत की शिक्षा न दी जावेगी और अपनी धार्मिक या मज़हबी पुस्तकें न पढ़ाई जावेंगी। हमारे बालकों का बहुत सा समय व्यर्थ विदेशी भाषा सीखने में जाता है।11

इससे दो बातें स्पष्ट होती हैंएक, पितृसत्ता में जकड़ी ये भद्र महिलाएं भी घर से बाहर निकल कर अपने तरीक़े से राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में भागीदारी कर रही थींजिसमें स्त्री शिक्षा, परिवार और देश की देख रेख और विदेशी शासन का विरोध शामिल थे। दूसरे, विदेशी शासन के विकल्प के रूप में अपनी परंपरा, भाषा और संस्कृति में स्त्री के लिए बराबरी और नेतृत्व की बात अंतर्निहित है, अर्थात कहीं न कहीं ये स्त्रियां अब तक अपनी ही परंपरा, भाषा और संस्कृति से भी वंचित थीं और किसी भी तरह का दख़ल देने से वंचित थीं, जैसा कि इस लेख के आरंभ में लेखिका कहती है कि हमें अपने टूटे-फूटे विचार रखने का अवसर मिला है12

परंतु इन स्त्रियों के लिए राष्ट्रीय चेतना और सुधारवाद का अभिप्राय थाअंग्रेज़ी भाषा और विदेशी संस्कृति का विरोध। जबकि सावित्रीबाई और जोतिबा इसी विदेशी शासन की भाषा, संस्कृति की सत्ता के माध्यम से नयी शिक्षा ग्रहण करने व भारतीय धार्मिक रूढ़ियों से मुक्ति के रास्ते तलाश रहे थे।

जोतिबा को एक पत्र में सावित्रीबाई लिखती हैं कि महार-मांग जैसे अस्पृश्यों के लिए काम करना पापकार्य बता कर उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है और ब्राह्मण की कही धर्म सम्मत बातों को न मानने के कारण उनहें बचकानी अतार्किक बातें सुननी पड़ीं। इस सबके बावजूद वे लगातार कोशिश करती रहीं कि इन जातियों का शिक्षा से बौद्धिक विकास हो। वे दलित ही नहीं अन्य जातियों की स्त्रियों को शिक्षा देतीं जो आर्थिक रूप से वंचित थीं। स्वाभिमान से जीने के लिए और अशिक्षा के कारण अपमानजनक विशेषणों से अपनी रक्षा करने के लिए उन्होंने ज्ञान अर्जित करने की महिमा का निरंतर प्रयास किया।13

विद्या को सबसे बड़ा दान मानते हुए सावित्रीबाई ने अंग्रेज़ी शिक्षा के कार्यों व पाठशालाओं की स्थापना के बारे में स्त्रियों व दलितों को बताया। जहां सवर्ण अंग्रेज़ी शिक्षा का भरपूर लाभ उठा रहे थे और सत्ता व प्रशासन में भागीदारी कर रहे थे, वहीं दलितों व दलित स्त्रियों के लिए उस समय यह काम चुनौतीपूर्ण था कि वे अपने परंपरागत व्यवसायों— ‘कुम्हार, लुहार, बढ़ई, जुलाहा, बुनकर, नाई, धोबी, माली, बसोड़ जाति, केवट मल्लाह, पशुपालन करने वाली सैनी जातियां, कुशवाह, कुर्मी, काछी आदि श्रमजीवी मेहनती जातियां सरकारी तंत्र का लाभ उठा पातीं। इसके लिए सावित्रीबाई अंग्रेज़ सरकार की आलोचना भी करती हैं कि सरकार ने इन श्रमजीवियों की मेहनत का उपयोग नहीं किया। सरकार के लापरवाह रुख़ की वे निंदा भी करती हैं।14

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि सावित्रीबाई फुले रचना समग्र के माध्यम से हमें न केवल भातीय समाज की विभिन्न संरचनाओं की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पुर्नव्याख्या करने के लिए ठोस व प्रमाणिक तथ्य मिलते हैं, बल्कि साहित्यिक-रचनात्मक वैचारिक दृष्टि विकसित करने के लिए ज़मीन तैयार होती है। पिछले दो  दशकों में हाशिये के लेखन में आत्मनिष्ठता को प्रमुखता दी जाती रही है और कुछ सीमा तक आत्मनिष्ठता आत्मकेंद्रित होती नज़र आयी है। परंतु रजनी तिलक द्वारा किये इन ऐतिहासिक महत्त्व की रचनाओं के संपादन से न केवल सावित्रीबाई व जोतिबा का नि:स्वार्थ जीवन, सुधार कार्य व शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से जागरूकता फैलाने के लिए क्रांतिकारी प्रयास सामने आते हैं बल्कि अकादमिक जगत में व विभिन्न अनुशासनों में ज्ञान मीमांसा के स्वरूप की समीक्षा के लिए मदद मिलती है।

मो .  8054229264

संदर्भ व सहायक पुस्तकें

1. ‘Education as Tritya Ratna: Towards Phule-Ambedkar Feminist Pedagogical Practices-

                                    Sharmila Rege’, NCERT Memorial Lecture at SNDT University, 2009

2.  सावित्रीबाई फुले की कविताई (लेख)- बजरंग बिहारी तिवारी, समालोचन ब्लाग. कॉम, मई, 2019

3.  वही

4. स्त्री दर्पण : हिंदी नवजागरण और स्त्री, संपादन : गरिमा श्रीवास्तव, अनन्य प्रकाशन, 2018, पृष्ठ 59, 66,74,102

 5  सावित्रीबाई फुले रचना-समग्र, संपादन : रजनी तिलक, मार्जिनलाइज़्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्‍ली, 2017, पृष्ठ  31

6.  वही, पृष्ठ 53

7.  वही, पृष्ठ 54

8.  वही, पृष्ठ 71

9.  वही (फुले, पत्र तीन), पृष्ठ 100

10.  वही, पृष्ठ 15-16

11.  स्त्री दर्पण : हिंदी नवजागरण और स्त्री, लेख : 'मातृभाषा', पृष्ठ 107

12 . वही, पृष्ठ 106

13.  सावित्रीबाई फुले रचना-समग्र, पत्र-4, पृष्ठ 103-105

14.  वही (भाषण : विद्या-दान), पृष्ठ 117

अन्य संदर्भ

Against Madness of Manu : B.R Ambedkar’s Writing on Brahmanical Patriarchy,

Selected and Introduced by Sharmila Rege, Navayana Publication, Print-2013.        

 

 

   

  

   

               

            

           

 

 

 

 

 

1 comment:

  1. बेहतरीन आलेख। कृपया बधाई स्वीकार कीजिए।

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