किसान आंदोलन : ऐतिहासिक परिदृश्य-1

 मुग़लकालीन किसान आंदोलन

सूरजभान भारद्वाज

  मुग़लकालीन किसान आंदोलन से संबंधित इतिहास के विद्वानों ने बहुत कम लिखा है। बहुत पहले इरफ़ान हबीब ने अपनी पुस्तक, Agrarian System of Mughul India 1963  प्रकाशित की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक में मुग़लकालीन कृषि विद्रोहों की चर्चा की है। उसके बाद इस विषय पर कोई गंभीर शोध नहीं हुए। हालांकि 1990 के दशक तक किसानों के शोध का इतिहास,  विद्यार्थियों में काफ़ी आकर्षण का क्षेत्र माना जाता था। मगर इसके बाद धीरे-धीरे यह विषय शोध के लिए कोई आकर्षण का विषय नहीं रहा। इसका एक कारण तो यह रहा है कि कैंब्रिज स्कूल और अमेरिकन विश्वविद्यालयों में होने वाले इतिहास लेखन में नये तरह के शोधों ने विद्यार्थियों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा है, जबकि विद्यार्थियों के लिए यह एक गंभीर शोध का विषय है। जब हम मुग़लकालीन या मध्यकालीन इतिहास को पढ़ते हैं या पढ़ाते हैं तब हमें मुग़लकालीन कृषि ढांचे को समझना होगा। मुग़ल राजसत्ता कृषि ढांचे पर बनी हुई अर्थव्यवस्था पर टिकी हुई थी। इस अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ रूप से चलाने के लिए एक भू-राजस्व नीति बनायी गयी। इस भू-राजस्व नीति की विशेषता यह थी कि प्रत्येक किसान के कृषि उत्पादन का सही आकलन करके राज्य उससे लगभग 40 प्रतिशत भू-राजस्व के रूप में ले लेता था। इसके अलावा उसको कुछ दूसरे कर भी चुकाने पड़ते थे, जो दस्तूरवार (Customary) होते थे। परंपरागत रिवाज मानकर हर किसान, राज्य को भू-राजस्व चुकाना अपना एक तरह से दायित्व समझते थे। यदि बहुत अच्छी फ़सल हुई है तब तो वह ख़ुशी से भू-लगान चुका देता था, यदि फ़सल उतनी अच्छी नहीं हुई तब उसको भू-लगान चुकाने में परेशानी होती थी क्योंकि उसके अपने परिवार के खाने के लिए कुछ बचता नहीं था। आमतौर से किसान की बढ़िया फ़सल कम ही होती थी, क्योंकि फ़सल का अच्छा होना और ख़राब होना मानसून के अच्छे होने और ख़राब होने पर निर्भर करता था। सूखा पड़ना आम बात थी। कभी उसकी फ़सल ओलावृष्टि से ख़राब हो गयी तो कभी खड़ी फ़सल कड़ाके की सर्दी ने फूंक दी और कभी तेज़ आंधी से कटी हुई फ़सल उड़ गयी, तो कभी बाढ़ में डूब गयी। जब तक किसान की फ़सल पककर तैयार नहीं होती और अनाज निकलकर उसके घर नहीं आता तब तक वह आसमान की ओर ताकता रहता था। हरध्यान सिंह चौधरी ने एक भजन में किसान के हालात इस प्रकार बयान किये :

    पट-पट कै दिन रात कमाया, फिर भी भूखा सोया रै।

    अन्नदाता, तेरा हाल देखकर मेरा जीवड़ा रोया रै।।

    तेरे बैरी बहोत जगत में, तूं क्यूंकर रहै रूखाला रै।

    सूखा, मूसा, चिड़िया, बईयां, गादड़ कर गया चाला रै।।

    आंधी, धूंध फूल नै खोदे, बुरी आग तैं पाला रै।

    औले, बिजली फ़सल फूंकदे रूखां तक का गाला रै।।

    पीपी, टीडी, सुंडी, रोली, कीड़ा, कांदरा यो रोज काढ़ले  कोया रै।

    अन्नदाता तेरा हाल देखकर मेरा जीवड़ा रोया रै।।

 

हरियाणवी लोककवि चौधरी हरध्यान सिंह ने अपनी रागनी के माध्यम से यह बताया है कि प्रकृति और जंगली जीव किसान की फ़सल के इतने सारे दुश्मन होते हैं। भूखा प्यासा रहकर सुबह से शाम तक काम करता है, फिर भी भूखा ही सोता है। इस प्रकार की किसान की दयनीय स्थिति मुग़ल भारत में समझी जा सकती है। चूंकि मुग़ल राज्य का जीवित रहना किसान द्वारा पैदा किया गया कृषि उत्पादन से प्राप्त भू-राजस्व पर निर्भर करता था, इसलिए मुग़ल स्टेट कृषि उत्पादन को बनाये रखने के लिए विशेष ध्यान देता था। ज़रूरतमंद किसानों को नयी फ़सल उगाने के लिए महाजनों से तक़ावी (Loan) का भी प्रबंध करवाता था। अकाल के समय ज़्यादा से ज़्यादा कच्चे कुएं खोदाने के लिए भी किसान को प्रोत्साहित करता था। ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन को जुतवाने के लिए अपने अधिकारियों (आमील) को समय समय पर आदेश भी देता था। राज्य का प्रयास रहता था कि ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीन पर खेती हो, जिससे उसको सर्वाधिक भू-लगान प्राप्त होता रहे। चूंकि बादशाह से लेकर गांव के पटवारी तक सभी कृषि उत्पादन से प्राप्त भू-राजस्व पर जीवित रहते थे, इसलिए मुग़ल राज्य ने बड़ी संख्या में भू-राजस्व अधिकारियों की नियुक्ति की ताकि वे भू-राजस्व की नीति को सही रूप से एवं सुचारु रूप से लागू कर सकें। साथ ही साथ किसानों से भी दस्तूर के हिसाब से भू-लगान की वसूली करें। इसका काफ़ी हद तक श्रेय मुग़ल बादशाह अकबर को जाता है जिसने मुग़ल स्टेट की नींव रखते समय इन सभी बातों पर ध्यान दिया। भू-राजस्व प्रणाली की तरह मनसबदारी व्यवस्था भी बनायी गयी थी जिसके अंतर्गत मुग़ल राज्य की सैनिकों के रख-रखाव की व्यवस्था को नियंत्रित किया गया था। इसमें प्रत्येक मनसबदार को अपनी हैसियत (पद और ओहदा) के हिसाब से सैनिकों की संख्या रखनी होती थी। इसके लिए मनसबदारों को उनके वेतन के अनुसार माप करके जागीरें दी जाती थीं। मनसबदारी व्यवस्था जिस पर मुग़लों की सैनिक ताक़त टिकी हुई थी और भू-लगान व्यवस्था जिस पर मुग़ल राज्य की आर्थिक नीति टिकी हुई थी - ये दोनों मुग़लों की बहुत महत्वपूर्ण संस्थाएं थीं जो एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं, मगर इन दोनों संस्थाओं में एक दूसरे के साथ अंतर्विरोध बना हुआ था क्योंकि मुग़ल राज्य की यह एक नीति यह थी कि कोई भी मनसबदार अपनी जागीर तीन वर्ष से ज़्यादा नहीं रख सकता था, उसका दूसरी जगह की जागीर में तबादला कर दिया जाता था। यह नियम इसलिए बनाया गया था ताकि लंबे समय तक एक जागीर में रहने से मनसबदार वहां के किसान व ज़मींदारों के साथ मिलकर ताक़तवर न बन जाये, जिससे राज्य को ख़तरा हो सकता था। इसलिए मनसबदारों के जल्दी-जल्दी तबादलों की नीति अपनायी गयी, इससे बादशाह की ताक़त बढ़ती थी। मगर जल्दी-जल्दी तबादलों की नीति ने मनसबदारों की प्रवृत्ति को शोषणकारी बना दिया। मनसबदार को लगता था कि उसका तबादला होने वाला है इसलिए वह चाहता था कि उसकी जागीर से ज़्यादा से ज़्यादा भू-राजस्व की वसूली हो। उसका किसानों के प्रति कोई लगाव नहीं होता था और न ही वह कृषि उत्पादन से संबंधित कोई कल्याणकारी योजनाओं के बारे में सोचता था। बस उसके दिमाग़ में एक ही बात रहती थी कि ज़्यादा से ज़्यादा भू-लगान की वसूली हो। हालांकि मुग़ल राज्य ने किसान के पक्ष में कुछ नियम भी बनाये थे जिससे मनसबदारों को किसानों पर ज़्यादतियां करने से रोका जा सके। मगर मनसबदारों की किसानों को लूटने की प्रवृति बढ़ती चली गयी और भू-लगान अधिकारी भी किसानों का साथ देने की बजाय मनसबदारों की तरफ़दारी करते थे। इसलिए किसानों की फ़रियाद मुग़ल दरबार में प्रभावहीन हो जाती थी। इससे किसानों में असंतोष बढ़ता ही चला गया। किसानों का असंतोष विद्रोहों में बदलने लगा। सन् 1668 में गोकुला जाट (तिलपत का ज़मींदार) के नेतृत्व में बड़ी संख्या में किसानों ने मथुरा के इलाक़े में विद्रोह कर दिया। किसानों ने मथुरा के मुग़ल नायक फ़ौजदार की हत्या कर दी थी। धीरे-धीरे यह विद्रोह दूसरे इलाक़ों में भी फैल गया। मेवात के इलाक़े में मेव किसानों ने भी विद्रोह कर दिया। नारनौल के आसपास के इलाक़ों में सन् 1675-76 के सतनामियों ने मुग़ल सत्ता को चुनौती देते हुए विद्रोह कर दिया। उधर दक्खन में मराठों के भी मुग़ल सत्ता के ख़िलाफ़ विद्रोह शुरू हो गये। इसी तरह मुरादाबाद, गढ़ गंगा, हाथरस, सहारनपुर और हरिद्वार के इलाक़ों में भी किसानों ने विद्रोह कर दिये। मुग़ल राज्य इस तथ्य को समझने में असमर्थ रहा कि किसान विद्रोह क्यों कर रहे हैं? समस्या कहां पर है? मुग़ल राज्य ने मनसबदारों को इसके लिए ज़िम्मेदार मानने की बजाय किसानों को ही ज़िम्मेदार ठहराया। इसलिए किसानों के विद्रोहों को दबाने के अनेक तरह के क़दम उठाये गये। विद्रोही गांव व किसानों को ‘ज़ोरतलब’ बताकर उनके ख़िलाफ़ फ़ौजी कार्रवाई की गयी। मगर किसानों ने अलग-अलग तरीक़े अपना कर, राज्य को अपने असंतोष से अवगत कराया।

मुग़ल राजसत्ता निरंकुश थी, जिसकी पूरी शक्ति का केंद्र बिंदु मुग़ल बादशाह होता था। किसानों और मुग़ल बादशाह के बीच काम करने वाले व मुग़ल बादशाह को समझाने वाले अनेक एजेंट होते थे। यही कारण होता था कि मुग़ल बादशाह के पास किसानों की फ़रियादों को ठीक से नहीं बताया जाता था। जब किसानों को मुग़ल दरबार में न्याय नहीं मिलता था तब उनकी उम्मीदों का सब्र टूट जाता था और फिर उनके सामने बग़ावत के अलावा और कोई रास्ता बचता नहीं था। मुग़ल राज्य ने इस पर गंभीरता से विचार करने के अलावा और इसका समाधान खोजने की बजाय एक दूसरा रास्ता अपना लिया, वह था इज़ारा व्यवस्था लागू करना। अर्थात् जब किसानों के विद्रोह के कारण शाही मनसबदारों को अपनी-अपनी जागीरों का भू-राजस्व इकठ्ठा करने में भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता था तब उन्होंने अपनी जागीरों को इज़ारा में देना शुरू कर दिया। इज़ारा प्रथा एक तरह से ठेकेदारी प्रथा की तरह होती थी जिसमें इज़ारेदारों को किसानों से भू-लगान इकट्ठा करने का अधिकार दे दिया गया। ज़्यादातर इज़ारेदार वहीं के ही स्वबंस ज़मींदार या अधिकारी महाजन होते थे जिनकी उस इलाक़े में दबंगई होती थी। इज़ारा पाने वाले ज़्यादातर ज़मींदार वे लोग थे जो किसानों के विद्रोहों का संचालन कर रहे थे या महाजन वे लोग थे जो किसानों को तक़ावी स्वयं देते थे। अब ज़्यादातर मनसबदारों ने अपनी जागीरों को इज़ारा में देना शुरू कर दिया। दरअसल, इज़ारा व्यवस्था नियमित व्यवस्थित मुग़ल भू-राजस्व व्यवस्था का उल्लंघन था। किसानों के दृष्टिकोण से यह एक विनाशक व्यवस्था थी। मगर मुग़ल राज्य के लिए यह भूराजस्व इकठ्ठा करने का आसान तरीक़ा था जिसमें मनसबदार अपनी जागीरों से भू-लगान इकठ्ठा करने की ज़िम्मेदारियों से मुक्त थे क्योंकि अब किसानों से उनका कोई सीधा वास्ता नहीं रह गया था। भू-राजस्व इकठ्ठा करने की सारी ज़िम्मेदारी इज़ारेदार की होती थी। आमतौर से इज़ारेदार अपने इलाक़े का दबंग होता था जिसके पास अपनी सैनिक टुकड़ियां व छोटे-छोटे क़िले भी होते थे, जिन्हें ‘गढ़ी’ बोला जाता था। किसानों से भू-लगान इकठ्ठा करते समय वह अपना ख़र्चा भी भू-लगान के साथ जोड़ लेता था। अर्थात् मनसबदारों के भू-लगान की मांग पूरी करने के बाद वह अपना हक़ (ख़र्चा) भी किसानों से भू-लगान के साथ वसूल कर लेता था क्योंकि इज़ारेदार के अपने लोग होते थे जो किसानों से भू-लगान इकठ्ठा करते थे। इज़ारेदार को उन्हें भी पैसा देना होता था। इसके अलावा इज़ारेदार किसानों से अलग से भी कुछ धन इकठ्ठा करता था। इज़ारेदारों के लिए इज़ारा प्रथा एक लाभकारी सौदा था जिसको प्राप्त करने के लिए उन्हें शाही मनसबदारों को रिश्वत भी देनी पड़ती थी। अंततः इज़ारा व्यवस्था पर होने वाला सभी तरह का ख़र्च किसान से ही वसूला जाता था।

मुग़ल दरबार से लिखी गयी वकील रिपोर्टों के अनुसार इज़ारा व्यवस्था को, मुग़ल साम्राज्य के अधिकांश भू-भाग में, लागू किया गया। किसानों के विरोध के बावजूद भी यह व्यवस्था बलपूर्वक चलती रही। इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ अनेक इलाक़ों में किसानों ने राज्य के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी - जैसे मेवात, पूर्वी राजस्थान, मथुरा, आगरा का इलाक़ा, गंगा जमुना का इलाक़ा जिसमें कोल (अलीगढ़), मेरठ, हाथरस, मुरादाबाद और गढ़ गंगा के इलाक़ों में किसानों ने नयी इज़ारा व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। हरिद्वार के इलाक़े में सभाचंद जाट के नेतृत्व में किसानों ने विद्रोह कर दिया। वकील रिपोर्ट के अनुसार पंजाब के इलाक़े कलानोर, बटाला, भट्ठा, रोपड़, संगरूर, सरहिंद और लाहौर में किसानों ने बंदा बहादुर के नेतृत्व में बग़ावत कर दी। मुग़ल बादशाह ने अब्दुल समद ख़ान के नेतृत्व में शाही सेना को, पंजाब के किसानों को कुचलने के लिए भेजा । मुग़ल दरबार में रिपोर्ट आयी कि गुजरात में नर्मदा नदी के आसपास के अहीर किसानों ने वहां के मनसबदार के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी है। उनको दबाने के लिए बादशाह से सहायता मांगी गयी। बंगाल सूबे के जहांगीराबाद के इलाक़े में किसानों ने इज़ारा प्रथा के तहत भू-लगान चुकाने से मना कर दिया। मालवा सूबे में मांडू के इलाक़े में किसानों ने इज़ारा प्रथा के तहत इज़ारेदार को भू-लगान चुकाने से मना कर दिया। आमेर राजा का वकील जगजीवन राम पचांली मुग़ल दरबार से अपने महाराजा को समय समय पर रिपोर्ट भेजकर सूचित करता है, जिनमें वह लिखता है कि अनेक जगहों पर किसानों व शाही फ़ौज के साथ लड़ाइयां हुई हैं, जिनमें बड़ी संख्या में किसान मारे गये। इसके बावजूद किसानों के विद्रोह कम नहीं हो रहे हैं। मेवात के इलाक़े में फ़ौज को देखकर किसान काला पहाड़ में छिप जाते हैं। मथुरा भरतपुर के इलाक़ों में जाट किसान चूड़ामन जाट के नेतृत्व में अनेक जगहों पर बने आमेर राजा के थानों को हटा दिया था। थूण, सिनसिणी, अंवार, सोगर और कठूंबर में जाटों ने अपनी मज़बूत गढ़ियां बना रखी हैं जहां पर जाट, मीणा व मेव किसान छिप जाते थे। हरिद्वार के इलाक़े में सभाचंद जाट को पकड़ने के लिए सेना भेजी जाती है, मगर ख़ाली हाथ लौटती है, क्योंकि सभाचंद जाट व उसके आदमी श्रीनगर के पहाड़ों में भाग कर छिप जाते हैं। वहां पर सरबुलंदख़ां की सेना ने हज़ारों किसानों को बंदी बना लिया है। पंजाब में गुरु बंदा बहादुर को पकड़ने के लिए अनेक बार सेनाएं भेजी गयीं, मगर गुरु कभी तो लाखी जंगल में छिप जाते हैं और कभी नाहन की पहाड़ियों में भाग जाते हैं। इस प्रकार किसानों और मनसबदारों की सेनाओं के बीच अनेक घटनाओं की चर्चा की है। वकील अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखता है कि मनसबदार अपने-अपने इलाक़ों में किसानों को लुटवाते हैं।

आमीलों की रिपोर्ट के अनुसार मुग़ल दरबार में पटेलों की अगुवाई में अनेक परगनों के किसान फ़रियाद करने गये। किसानों का कहना होता है कि उनके गांव इज़ारा में न दिये जायें क्योंकि इज़ारेदार उनसे भू-लगान के अतिरिक्त तरह-तरह के दूसरे ऐसे करों की ज़बरन वसूली करते हैं जो उनसे पहले कभी नहीं लिये जाते थे। किसानों का कहना है कि इस प्रकार के करों की उगाही परंपरागत दस्तूरों का उल्लंघन है। इसलिए यह राजधर्म की मर्यादाओं का भी उल्लंघन है। वकील रिपोर्ट बताती है कि किस प्रकार इज़ारा प्रथा ने किसान को लाचार और बेबस बना दिया है। मराठा पेशवा माधोराव-1 ने अपनी डायरी में लिखा था कि महाराष्ट्र के कोंकण और देश के किसान इज़ारा प्रथा के कारण बर्बाद हो गये हैं, इसलिए मैं चाहता हूं कि इसे ख़त्म करके नियमित भू-लगान प्रथा को फिर से लागू किया जाये ताकि वे सुरक्षित महसूस कर सकें। आमेर राजा का वकील अपने महाराजा को इज़ारा के फ़ायदे बता रहा है कि इससे अनेक प्रकार की सुविधा और लाभ हैं। इस प्रथा के तहत राज्य प्रति वर्ष फ़सल (रबी और ख़रीफ़) इज़ारेदार से निर्धारित राशि ले लेता है और चिंता, दुविधा , हानि, आपत्तियां और फ़ायदा - ये सब इज़ारेदार के ज़िम्मे रहते हैं।

इस प्रकार इज़ारा प्रथा किसानों के दृष्टिकोण से एक बहुत ही अत्याचारी और विनाशक संस्था थी जिसने 17वीं सदी के उत्तरार्ध और 18वीं सदी के पूर्वार्ध में एक सुव्यवस्थित नियमित भू-राजस्व प्रणाली को हटाकर जगह ले ली थी। मगर राज्य के लिए यह एक आरामदायक व सुविधापरक तरीक़ा था जिसमें किसानों से भू-लगान वसूलने की पूरी ज़िम्मेदारी इज़ारेदार की होती थी। निस्संदेह इज़ारेदार भी इस प्रथा के तहत अपना अच्छा मुनाफ़ा कमाता था तभी तो यह प्रथा बहुत जल्दी से प्रचलन में आयी थी। किसानों के इस प्रथा के विरोध के तरीक़े केवल लड़ना मरना ही नहीं था बल्कि गांव के उजाड़ के बाद कहीं दूसरी जगह चले जाना और खेती लायक़ ज़मीन पर खेती न करना उसे बंजर छोड़ना, भू-लगान न चुकाना और पकी हुई फ़सल को काटकर चोरी करना आदि भी विरोध के तरीक़े थे।  परगना अधिकारी आमील अपनी रिपोर्ट में लिखता है कि अलवर सरकार के अनेक परगनों में बहुत से गांव उजड़ गये हैं। परगना पहाड़ी में कुल 209 में से 100 गांव उजड़ गये हैं। परगना खोहरी के काफ़ी गांव के किसान थूण के क़िले में भाग गये हैं। परगना ब्याना में कुल 139 गांव जिनमें 33 गांव उजड़ गये हैं और 42 गांव ज़ोरतलब हैं अर्थात 42 गांव के किसानों ने भू-लगान चुकाने से मना कर दिया है। परगना गुढ़ा, लिवाली और लालसोट में किसान खड़ी फ़सल को काटकर ले जा रहे हैं। इस प्रकार के अनेक उदाहरण राजस्थानी दस्तावेज़ों (अठसठा और अर्जदासत) में भरे पड़े हैं।

इज़ारा प्रथा का प्रभाव यह हुआ कि 18वीं सदी के पूर्वार्ध में कृषि उत्पादन में तेज़ी से गिरावट आयी। अनेक परगनों में गांव उजड़ने लगे। खेती लायक़ ज़मीन बंजर हो गयी। खेत चरागाहों में बदल गये क्योंकि किसानों को लगता था कि खेती करके भी उसे भूखा ही रहना है। इज़ारा प्रथा में भारी भू-लगान चुकाने के बाद परिवार के भरण-पोषण के लिए कुछ नहीं बचता था। इसलिए अनेक गांव के किसान गांवों को ख़ाली करके रोटी की तलाश में जहां उन्हें ठीक लगता था वहां चले जाते थे या फिर विद्रोही ज़मींदारों की गढ़ी या जंगल और पहाड़ों में छिप जाते थे। खेती न करने से कृषि उत्पादन पर बुरा असर पड़ा। मुग़ल साम्राज्य का वैभव, शासक वर्ग व अमीरों की शान-शौकत,  शाही फ़ौज, नौकरशाही - सभी कृषि उपज की आमदनी पर निर्भर थे अर्थात् किसान की पैदावार से 40 से 50 प्रतिशत तक मुग़ल राज्य भू-राजस्व के रूप में लेता था जिस पर मुग़ल राज्य की अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी। कृषि उत्पादन में गिरावट आने से मुग़ल राज्य को कृषि संकट का सामना करना पड़ा जिससे उसे एक भयंकर आर्थिक संकट झेलना पड़ा, अब भू-राजस्व बहुत कम मिलने लगा। मुग़ल राज्य के लिए इतनी बड़ी फ़ौज का रख-रखाव करना व कुलीन वर्ग की आवश्यकताओं को पूरा करना मुश्किल हो गया। परिणामस्वरूप मुग़ल साम्राज्य बिखर गया।

मुग़ल राज्य को यह आभास नहीं हो रहा था कि जिस इज़ारा व्यवस्था को अपनी ज़िम्मेवारी से मुक्त होकर आरामदायक प्रथा के रूप में लागू कर रहा है वही उसकी जड़ों को खोखला भी कर रही है। इतिहासकारों का एक वर्ग इज़ारा व्यवस्था को किसानों के दृष्टिकोण से मूल्यांकन न करके इज़ारेदारों के दृष्टिकोण से देखते हैं। वे लोग इसे व्यापार व वाणिज्य को बढ़ाने के लिए पूंजी संचय के उदगम का रास्ता मानते हैं। मगर वे इस तथ्य को समझना नहीं चाहते कि जब इज़ारा व्यवस्था ने इतने शक्तिशाली विशाल मुग़ल साम्राज्य को निगल लिया तब व्यापारिक पूंजी संचय का सवाल कहां पैदा होता है? यह दलील भी ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार आज के शासक, नये कृषि कानूनों को, कृषकों के दृष्टिकोण से न समझकर उनके फ़ायदे की बात करते हैं।

भले ही आज किसानों का इतिहास शोध के लिए एक आकर्षण का केंद्र न रहा हो, मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय इतिहास का स्वरूप किसानों के संघर्षों की गाथाओं की विरासत है। राज्यों के निर्माण की प्रक्रियाएं किसानों के बग़ैर संभव नहीं थी। इसी के साथ साथ विभिन्न धर्मों व संस्कृतियों का भी विकास हुआ था। तभी त हिंदू धर्मशास्त्रों में राजधर्म और प्रजा धर्म जैसी अवधारणाओं पर ज़ोर दिया गया। इसलिए किसानों के बग़ैर जगत मिथ्या है। राजधर्म में राजा को अपनी प्रजा (किसान) के साथ पुत्रों जैसा व्यवहार करना चाहिए इसलिए न्यायप्रिय राजा की अवधारणा को उत्तम माना गया। यही कारण रहा है कि विक्रमादित्य जैसे न्यायप्रिय राजा की कहानियां किसानों में लोकप्रिय रही हैं। कौटिल्य ने भी इस बात पर ज़ोर दिया था कि राजा के मंत्री को किसानों के साथ अपना निवास बनाकर रहना चाहिए ताकि राज्य निष्पक्ष होकर उनकी समस्याओं का निराकरण कर सके। भारत में मुस्लिम शासकों ने भी किसानी पर ही पूरा ज़ोर दिया था। उनकी भारतीय जाति व्यवस्था, परंपराएं व रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्होंने किसानी को इतना प्रोत्साहन दिया कि बड़े-बड़े जंगलों को खेतों में बदल दिया गया और वहां पर नये-नये गांव व क़स्बों का प्रसार हुआ जिससे व्यापार व वाणिज्य को भी बढ़ावा मिला। फ़िरोज़शाह तुग़लक का उदाहरण हमारे सामने है जिसने सिरसा से हांसी तक फैले बीहड़ जंगल को नहरों के जल से हरे-भरे खेतों में बदल दिया जिसके कारण वह इलाक़ा नये-नये गांवों व क़स्बों से भर गया। इस संबंध में जाट किसानों का इतिहास बहुत ही दिलचस्प है। मुस्लिम शासकों ने जाट किसानों को बसाने में व प्रोत्साहन देने में बहुत योगदान दिया था। तभी तो लाहौर से लेकर आगरा तक जाट किसानों की बस्तियां इतनी ज़्यादा मिलती हैं। इसलिए किसानों का राजसत्ता के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान रहा है। जैसे भारत में मुस्लिम राजसत्ता - दिल्ली सल्तनत से लेकर मुग़ल साम्राज्य के निर्माण में किसानों का योगदान अहम रहा है वैसे ही जोधपुर व बीकानेर राजपूत राज्यों के निर्माण में जाट किसानों का योगदान बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। इसी तरह आमेर (जयपुर), कोटा व बूंदी राजपूत राज्यों के निर्माण में मीणा जाति के किसानों की भूमिका को इतिहास में दर्ज किया गया है। किसान ने अपनी कृषि पैदावार से शासकों की संपन्नता और उसकी सार्वभौमिक ताक़त को बढ़ाया है। इसके बदले में वह शासक से न्याय की उम्मीद करता है जो एक लोक कहावत से समझी जा सकती है :

     दस चगें बैल देख, वा दसमन बेरी।

    हक हिसाबी न्याय, वा साकसीर जोरी।।

    भूरी भैंस का दूधा, वा राबड़ घोलणा।

    इतना दे करतार, तो बाहिर ना बोलना।।

मो. 9968019358

 

 

 

1 comment:

  1. It is well explained Research piece to understand the role of farmer. To tackle their business by different angle can destroy our whole purpose. Thank you Sir. Always feel proud of being ur colleagues.

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